करवा चौथ व्रत क्या हैं?

हमारे देश मे एक पर्व होता है, करवा चौथ का पर्व, जिसको माताएं बड़े भाव से अपने पति की लंबी आयु की कामना के लिए मनाती हैं। ये एक प्रकार की श्रद्धा है। वैसे पति शब्द तो परमात्मा के लिए ही आया है। पती माने स्वामी होता है, पती माने मर्यादा की रक्षा करने वाला होता है, सबका मालिक होता है। उसी पति शब्द को समाज में पति पत्नी के रुप में उपयोग किया गया। इसलिए जब कोई भी पर्व, त्यौहार,भारतीय संस्कृती में आता है, तो उसका उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ती होता है। घूम फिरकर अगर उस व्रत, त्यौहार को समझेंगे लोग, तो उसका अर्थ निकलेगा कि कैसे हमें भगवान की प्राप्ती करना है ? और इसके पहले लोग,मनाते ही हैं,सभी, त्यौहार को जैसी परम्परा है, उस तरह।लेकिन जब उसका सही अर्थ समझ में आयेगा, तो वो प्रत्येक त्यौहार हमको परमात्मा से जोड़ता है, चाहें कोई भी त्यौहार हो। इसी तरह से करवा चौथ का भी व्रत है। ये व्रत,माताएं अपने पति के लिए करती हैं, उनकी लम्बी आयु के लिए। लेकिन वास्तव में ,जो सबका पति है, वो तो परमात्मा ही है। और पत्नी कौन है? प्रत्येक जीव की जो वृत्ति है, इष्टोन्मुखी लगन हैं,वही पत्नी है। वास्तव में परमात्मा ही सबका, पति, स्वामी, मालिक है।

करवा चौथ का व्रत क्या है?
चौथ का मतलब होता है, चतुष्ट अन्तःकरण, मन, बुद्धी, चित्त, अहंकार। व्रत माने होता हैं,दृढ़ संकल्प होना। इष्टोन्मुखी वृत्ति जब मन, बुद्धी चित्त, अहंकार इन चतुष्ट अन्तःकरण में दृढ़ संकल्प हो जाता है, कौन? इष्टोन्मुखी वृत्ति, जो पत्नी है, चित्तवृत्ती जिसको नारी कहते है।
किसके लिए? ईश्वर की प्राप्ती के लिए। दृढ़ संकल्प होकर किसमे लगना है? भजन में लगना। नाम जप में लगना, ध्यान में लगना। इसमें दृढ़ संकल्प होकर जब वृत्ति लग जाती है। तब परमतत्व जो परमात्मा है, उसको प्राप्त कर लेती है, फिर पति सदा सदा के लिए अमर हो जाता है। कभी जन्मने और मरने वाले पति के चक्कर नही आता। और जबतक जन्मने मरने वाले पति के साथ संबन्ध है, तब तक उसको जन्म मृत्यु के चक्कर में आना ही पड़ेगा। चाहें व्रत करो या उपवास करो, एक निश्चित आयु होती है, जन्म , मृत्यु लगा ही रहता है। निश्चित आयु पाकर के सभी लोग चले जाते हैं। लेकिन जब कोई दृढ़ संकल्प होकर के नाम जपने लगता हैं, ध्यान करने लगता है,व्रत करने लगता है, तो बाहर जो पत्नी है, भजन में लगी है, उसके पति की रक्षा भी भगवान करते हैं। क्योंकि भगवान सबके अन्तःकरण में हैं।पत्नी के ह्वदय में भी हैं,और पति के ह्वदय में भी हैं,कण कण में व्याप्त हैं।

सबसे महान व्रत क्या है?
परमात्मा प्राप्ति का, तो जो सबका मालिक है, परम पति परमात्मा उसके प्रति समर्पित होकर हमे भजन करना पड़ेगा। मन बुद्धी चित्त अहंकार, चतुष्ट अंतःकरण से , जब हम नाम जपेंगे ध्यान करेगें तो बाहर के पति की रक्षा भी भगवान करेगे। और जो परमपति परमात्मा है, जब वो प्राप्त हो जायेगा तो सदा सदा के लिए उसका सुहाग अमर हो जाता है, वो जन्म मृत्यु के चक्कर मे नहीं आता। तो मीराबाई से जब पूंछा गया, कि तुम्हारे पति वीर गति को प्राप्त हो गए , तुम सती नही होगी, मीरा बाई? तो मीरा बाई ने कहा, ऐसे पति को क्यों बरु जो जन्मे मर जाय, मीरा अविनाशी बरौ सुहाग अमर हो जाय। ऐसे पति का मैंने वरण ही कब किया था? जो जन्म लेता है, और उसकी मृत्यु हो जाती है। मैने तो उस अविनाशी प्रभु का वरण किया हैं परमात्मा का वरण किया हैं, जिसको पाकर के सुहाग अमर हों जाता हैं। मीरा बाई ने भजन गाए , परमात्मा को ही पति बनाकर के, बाहर पति तो उनके भी थे ही।
सबके पिया परदेस बसत है, लिख लिख भेजत पाती, मेरे पिया मेरे हीय में बसत है, न कहूं आती न जाती।
तो मीरा बाई के पति परमात्मा हृदय मे बसते थे। वैसे भी पति का मतलब होता है, इज्जत रखने वाला। बाहर समाज में शादी विवाह होता है, किसी ने दहेज में कुछ मांगा मिल गया, तो इज्जत बच गई, और नही मिला तो इज्जत चली गई। बहुत कम मिला, तो इज्जत मिट्टी में मिल गई। तो इस तरह से इज्जत मर्यादा के लिए भी ये शब्द आया।
लेकिन मर्यादा रखनेवाला पति कौन हैं संसार में? ये जीव जो है,जन्म जन्मांतरों से भटकता आ रहा है, कभी कुत्ता, कभी बिल्ली, पेड़, पशु किसी और भी योनी में चक्कर मारकर, मनुष्य शरीर मिलता है। और इसकी इज्जत कौन रखता है? परमात्मा।
जन्म मृत्यु के चक्कर से मुक्त कर देता है, इसलिए परमात्मा का एक नाम है पति है,वो ही मर्यादा रखनेवाले हैं। किसकी? जीव की। और मर्यादा कोई नही रखता है। हम जिस, जिस के चक्कर में रहतेँ हैं। पति पत्नी सम्बंध बनते हैं, बेटा, बाप इन्हीं के कारण हमको बार, बार ये जो गर्भवाश की यातनायें,जन्म मृत्यु के चक्कर में आना होता है। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।।
तो इतने अंदर,आत्मा मरने तक रहता है। पता ही नही चलता, नरक में पड़ा रहता है।इससेे बड़ी बेईज्जती और क्या होगी। लेकिन इस जन्म मृत्यु के चक्कर से उबारने में निकालने में कौन सक्षम है? परमात्मा। इसीलिए उस परमात्मा का एक नाम पति हैं।
तो पति शब्द परमात्मा का नाम है। लेकिन बाहर समाज में हमारी संस्कृति ऐसी है, कि हमने भगवान के नाम को जो हमारा जीवन है, रहन सहन हैं पति पत्नी का , उसमें भी पति नाम परमात्मा के नाम से जोड़ दिया। तो इसलिए पति परमेश्वर ये नाम भी आया है। इस तरह की धारणा हमारे समाज में रहती है सदा। माताओं मे ये भावना रहती है , कि सेवा करे, और ये रहनी भी चाहिए। लेकिन किसी किसी का पति दारु, शराब पी लेता है,और गटर में पड़ा हुआ है,तो उसके लिए पति परमेश्वर की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है। सत्य का ज्ञान होना जरूरी हैं। वास्तव मे परमेश्वर ही पति हैं, परमात्मा ही पति हैं। ये नही है कि कोई भी पति परमेश्वर हो गया। लेकीन मान मर्यादा रखने के लिए वो पवित्र शब्द परमात्मा का पति के लिए उपयोग किया गया। लेकिन उसका दुरुपयोग भी लोग करने लगते हैं। बहुत सी ऐसी स्त्रियाँ होती है, जो इस तरह मानकर जीवन भर पालन करती हैं। और अच्छा भी, हैं, लेकिन किसी किसी के साथ धोखा हो जाता हैं। मानकर पालन तो करती हैं, लेकीन पति वैसा निकलता नहीं हैं। पहले ज्यादातर पति अच्छे ही निकलते थे, लेकिन अब कुछ समय से वैसे बर्ताव नहीं हो पा रहें है। इसलिए पतियों को भी सोचना चाहिए कि जब पत्नियां हमें परमेश्वर मानती हैं, तो हमें परमेश्वर का दस प्रतिशत आचरण तो करना ही चाहिए, सत प्रतिशत नही हो पा रहा है तो, इस बात का ध्यान उनको रखना चाहिए। तो दोनों जब सही रहते है, तो ही सब कुछ सही रहता है। हनुमान जी जब मिले भगवान राम से तो पूछने लगे,
कि तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ। नर नारायन की तुम्ह दोऊ।
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार। की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार।
आप कौन हैं? तीन देव में से कोई हैं? नर नारायण में से कोई हैं? या जग के कारण और भव से तारण परमात्मा हैं? जब भगवान ने अपना परिचय दिया तो हनुमान जी को विश्वास हो गया। कि ये तो मेरे स्वामी हैं, परमात्मा हैं। तो हनुमान जी बोलते हैं।
देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥
हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी, पति पत्नी का यहां कोई प्रश्न ही नहीं, लेकिन हनुमान जी बोलते हैं, पति अनुकूला, पति को अनुकूल जानकर प्रसन्न हों गए । उनका शूल समाप्त हो गया। पहचान में ही नहीं आ रहें थे, भगवान। पहचान में आ गए सारा शूल समाप्त हो गया। तो यहां पर पति शब्द परमात्मा के लिए आया। तो वास्तव मे जो पति होते हैं, समझो स्त्री का पति पुरुष हैं। तो पुरुष के अन्दर भी जो चेतना है, वो तो परमात्मा ही है न? परमात्मा तो सबके अन्दर है।
जहँ लगिनाथ नेह अरु नाते।
सब मनिहै राम के नातें।
जहां तक श्रृष्टि में स्नेह संबन्ध हैं, चाहें पति पत्नी का, चाहें भाई, बंधू का, जो कुछ भी है, वो सब किसके नाते माने जाते हैं ? सिर्फ़ राम के नातें।
राम की जो शक्ति है, राम जो जीव के रुप में प्रत्येक शरीर में विद्यमान हैं, वो निकल गया, शरीर छूट गया, फिर कोई मानता है उसको? कोई नही मानता।
तो सम्बंध नेह और नाते सब परमात्मा के नाते ही बने हुऐ हैं। परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर हैं, स्त्रीयों के अन्दर भाई और पुरुष के अंदर भी। तो इसीलिए जो असली पति है,वास्तविक पति है, वह परमात्मा ही है। जब बाली मारा गया, तो तारा विलाप करने लगीं। और उसने मन बना लिया सती होने का। तब भगवान ने उसको ज्ञान दिया। क्या ज्ञान दिया? यहीं बताया कि तुम्हारा पति मरा नहीं है। वो तो अमर है, कभी मरता ही नही है।
तो कौन था?
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।
भगवान कहते है तारा से, कि ये जो बालि है, इसका जो आकार था शरीर था, तुम्हारे साथ रहता था, वो पांच तत्वों का बना था, ये जो तुम्हारे सामने पड़ा हैं। अगर ये शरीर बालि है, तो वो तो है, कहीं नही गया,किसलिए रो रही है? और जीव नित्य केही लगी तब राेआ। और अगर जीव जो इनके अंदर आत्मा था, अगर वो बालि था, तो वो तो नित्य है, वो कभी मरता ही नही है। ये ज्ञान तारा को दिया, तो रोना बन्द हो गया, उसका मन स्थिर हो गया, फिर भगवान को ही पति मानकर वो भजन चिंतन करने लगीं।
पांच महासतियों में एक तारा भी थीं। महासती इसलिए नही थी कि वो पतिव्रता थी।
पतिव्रता की दृष्टी से अगर देखा जाय, पतिव्रता का एक पति होता है। लेकिन बालि जब मारा गया, तो तारा सुग्रीव को पत्नी हो गईं। मंदोदरी रावण की पत्नी थीं, लेकिन जब रावण मर गया, तो वो विभीषण की पत्नी हो गईं। बाहरी दृष्टी से तो वो नही हैं। लेकिन भीतर कोन था तारा का पति? भगवान। जैसे ही ज्ञान हो गया परमात्मा को पति मान लिया। इसलिए महासती कहलाई। वास्तव में बाहर के पति के अन्दर भी परमेश्वर हैं, तो इस परमेश्वर के नाते ही पति को परमेश्वर स्त्रियों ने माना। इसी तरह से पत्नियों को भी, पति को देवी मानना चाहिए। क्योंकि इनके अंदर भी परमेश्वर है, परमात्मा हैं। ये तो शरीर की भिन्नता है। बाकि दोनों के अन्दर परमात्मा एक ही है। इसी परमात्मा के लिए करवा चौथ का व्रत करती हैं। बाहर के पति की आयु तो निश्चित है, वो लम्बी तो होनेवाली नही है। जन्म लेना, और मरना इस जीव का चक्र हैं। शरीर , जो धरती पर आया हैं,वो तो जायेगा ही। सब जानते हैं, स्त्रियां भी जानती हैं। जाने अनजाने में उनका व्रत रहता है, इसी परमात्मा के लिए। जो उनके अंदर है, और बाहर उनके पतियों के अन्दर भी हैं। वही परमेश्वर हैं,और वही सबका स्वामी हैं। वास्तविक विधि नही जानती हैं, तो बाहर जो प्रथा है, वही करती हैं। वास्तविक विधी क्या हैं?
चतुष्ट अन्तःकरण, यही चौथ हैं। इसके द्वारा, दृढ़ संकल्प होकर के, उस परमात्मा के जो परमात्मा हृदय मे रहता है, उसके प्रति समर्पित होकर भजन मे लगना। यहां से करवा चौथ व्रत शुरु होता हैं, चन्द्रमा को देखकर के, वो पूरा हो जाता है। ये करवा चौथ की कहानी है।चंद्रमा को देखकर, चलनी से अपने पति को देखकर ये व्रत पुरा होता है। सुबह से बिना खाना खाये ये व्रत किया जाता है। तो बिना खाना खाएं पिये , शरीर के लिए थोड़े ही व्रत है इसकी आयु तो निश्चित है। ये परमात्मा के लिए है, उसकी विधी नहीं मालुम है। तो कहने का अर्थ ये है, कि चन्द्रमा को देखना क्यों जरूरी है, इसमें चंद्रमा कहा से आ गया? जब पति के लिए व्रत है, पति सामने है तो उसी को देख लेते।तो चन्द्रमा को देखने का क्या मतलब हैं, जो चौथ का चंद्रमा होता है, बहुत थोड़ा सा होता है, धीरे धीरे बढ़ता है, और पूर्णमासी तक पूर्ण हो जाता हैं। उसको देखकर व्रत पूरा होता हैं। इससे आयु बढ़ती है, किसकी? पती की। तो चंद्रमा का मतलब होता है, “मन शशि चित्त महान” हमारा जो मन है, यही चंद्रमा है। लेकिन इस मन को चंद्रमा कब कहते हैं? जब ईश्वर के प्रकाश से प्रकाशित है। इसके अंदर परमात्मा का क्षीण प्रकाश आ गया। जैसे आप बाहर भी देखेंगे, तो जो चंद्रमा चमकता है, रात को , ये जो अपनी प्रभा देता है, इनमे दिन में जो सुर्य की जो उर्जा है, उसको अवशोषित कर लेता है, और रात को जब ठंडा होता है, वातावरण तब वो चमकता हैं। वही प्रकाश उससे बाहर आता है। तो ऐसे ही मन हमारा चंद्रमा, है,और उसके अन्तराल में किसका प्रकाश है? क्षीण प्रकाश है, किसका ? परमात्मा का। सहज स्वरुप परमात्मा ही वह सुर्य है, जो सबके ह्रदय में है। वही स्वामी है, वही सूर्य है, वही पति है,वही परमेश्वर है,जो सबके हृदय मे हैं। उसका क्षीण प्रकाश हमारे अन्तःकरण हमारे मन में है। तो उस मन को हमें देखना है, जब भजन में लगना हैं। उस प्रकाश को बढ़ाने के लिए। क्षीण प्रकाश पूर्ण प्रकाश मे बदल जाय, पूर्णिमा का चंद्रमा हो जाय। तो ये व्रत शुरु होता है कि हमारे अंदर जो क्षीण प्रकाश है, मन के अन्तराल में, क्षीण प्रकाश का मतलब क्या होता हैं, प्रकाश क्या हैं? बाहर तो सूर्य का प्रकाश है, चन्द्रमा चमकता है। भीतर प्रकाश क्या हैं? सहज प्रकाश स्वरूप क्या है? परमात्मा। प्रकाश माने ज्ञान होता है। ज्ञान माने त्रिकालज्ञता होता है। भूत भविष्य और वर्तमान की जानकारी इसका नाम ज्ञान है। आत्मा के आधिपत्य में चलना ज्ञान है। तो ज्ञान की जागृति हो गई। आत्मा जो सहज प्रकाश स्वरूप है, वो जागृत हो गया, इस मन के अन्तराल मे। तो आत्मा जागृत हो गया तो। आत्मा त्रिकालज्ञ है,सर्वज्ञ है, अविनाशी है , वो प्रकाश (मार्गदर्शन) देने लगता है, ये है प्रकाश। जैसे बाहर आंखों से दिखेगा, तभी चलता है, व्यक्ति । लेकिन भीतर आध्यात्मिक मार्ग में आखों से दिखने से नहीं चल पाता हैं, व्यक्ती। उसको भूत भविष्य और वर्तमान की जानकारी मिलनी चाहिए। तभी तो अपने विचारों को संस्कारो को काट पाएगा। कि दस दिन बाद, छ महीने बाद, साल बाद कौन सी घटना घटेगी? तभी तो भजन में लगेगा। ये क्षीण प्रकाश हमारे अंदर जागृत हो गया। तो इसी चतुष्ट अन्तःकरण, मन बुद्धी चित्त अहंकार, उनके अन्तराल में क्षीण प्रकाश जागृत हों जाता है, ये चतुर्थी हैं। इसको करवा चौथ कहते हैं। क्षीण प्रकाश के रुप में है,परमात्मा, अब उसको देखते हुए आगे बढ़ना, व्रत करना, भजन करना, है, परमात्मा की प्राप्ती के लिए। दृढ़ संकल्प होकर नाम का जप करना, ॐ का जप करना, बोलकर के, फिर धीरे,धीरे फिर श्वास में जैसे जैसे हम नाम का जप करते जायेंगे,वो जो क्षीण प्रकाश है चंद्रमा में, मन में वो धीरे धीरे बढ़ता जायेगा। और एक समय ऐसा आ जायेगा जैसा पूर्णमासी का चंद्रमा आपने देखा होगा, पूर्णत्व की प्राप्ती हो जायेगी। मतलब जो सहज स्वरुप परमात्मा था, स्वामी था, पति था, जब उसकी प्राप्ती हो जाती है, तो हमारे मन में उसका प्रतिबिंब उतर आता है। जब मन में प्रतिबिंब उतर आया, तो ये व्रत पूरा हो गया। भगवान की प्राप्ती हो गई। फिर उसका सुहाग कभी समाप्त नहीं होता है, परमात्मा ही उसके सुहाग के रुप में आ जातें हैं। सुहाग सदा सदा के लिए अमर हो जाता हैं। तो इसलिए मीराबाई कहती है की मीरा अविनाशी बरु सुहाग अमर होई जाय। अविनाशी वरण करने का मतलब है कि अविनाशी तत्त्व को, परमात्मा को हमने स्वीकार किया, चयन किया। हमने उनको अपना स्वामी माना। जब वरण कर ही लिया तो उसकी प्राप्ति के भजन करो, नाम जपो,ध्यान करो। ये जो भजन करने की प्रक्रिया है, यही व्रत है करवा चौथ का। और जब ये प्रक्रिया पूरी हो जाती है, व्रत पूर्ण हो गया।, चंद्रमा को देख लिया, व्रत पूर्ण हो गया। मतलब जो क्षीण प्रकाश था, वो धीरे धीरे पूरे प्रकाश के रुप मे बदल जाता हैं। तो ऐसे ये व्रत पूर्ण होता हैं। जब माता अनुसुइया के पास सीता जी गई। वनवास काल में, तो वहां पर..
अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
बहुत प्रकार से पतिव्रत धर्म के बारे में बताया अनुसुइया ने।
उसके बाद सीता जी से कहा, कि
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं॥
संसार में चार प्रकार की पतिव्रता स्त्रियां होती हैं, फिर उनके नाम बताएं, कि,
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं
उत्तम श्रेणी की जो पतिव्रता होती हैं, उसकी दृष्टी में स्वप्न में भी दूसरा पुरूष संसार मे नही हैं, पति के अलावा।
मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥

चार भाग किए, उत्तम श्रेणी की पतिव्रता, अपने पुरुष का चिंतन, मध्यम श्रेणी की पतिव्रता, जो परपुरुष होता हैं, उसको भाई, पिता और पुत्र की तरह समझ कर भाव बदल देती है। और
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।
और जो पर,धर्म पर विचार करके रहती है, पड़ी रहतीं है, किसी भी तरह,वो निकृष्ट श्रेणी की हैं। और,
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥
अवसर नहीं मिल रहा है, भागने का इसलिए पड़ीं हुई है। ये अधम श्रेणी की पतिव्रता हैं। तो ये चार ऐसी पतिव्रता स्त्री बाहर कोई नही होती हैं। पति कौन है? परमात्मा। और संसार में पति हैं, कौन हैं? परमात्म स्थित जो महापुरुष हैं, सदगुरु हैं, वो पति है। इसलिए उनका एक नाम क्या हैं? स्वामी हैं।
परमात्मा जो कण कण में व्याप्त है, सबके हृदय में है,वो पति है। लेकिन हमारे देखने के लिए प्रत्येक जीव की जो वृत्ति है,इष्टोन्मुखी लगन है, पत्नी है, उसका पति कौन हैं? परमात्म स्थित जो महापुरुष हैं, सदगुरू है, वह हमारा सबका पति है। जो सत्य के परायण वृत्ति है, वही सती है। परम सत्य परमात्मा है, हृदय में रहता है उसके समर्पित जो सत्य के परायण जो वृत्ति है, वह सती हैं। नारी संज्ञा है, वृत्ति। इसलिए वो पतिव्रता हैं। पति कौन है? परमात्मा। लेकीन देखने के लिए पति कौन है? परमात्म स्थित जो सदगुरु हैं, वे ही हमारे पति है। उनके प्रति समर्पित रहने वाले जो साधक है, धरती पर चाहें वो पुरूष है या स्त्री, वो चार प्रकार के होते हैं।
जग पतिव्रता चार विधि अहहि। चार प्रकार के साधक होते हैं।
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥
उत्तम श्रेणी का जो साधक है, उसको ब्राह्मण श्रेणी का साधक भी कहते है। इसकी दृष्टी में, सपने आन पुरूष, परमात्मा के अलावा और किसी का संकल्प आता ही नहीं। चौबीस घंटे नाम जप और ध्यान, दुसरा विचार मन में नहीं आता। दूसरा विचार आ गया तो वो परपति है, तो दूसरा पति हो गया। तो जो परमात्मा के चिंतन में निमग्न रहता है, अन्य विचार मन में नहीं आता वो उत्तम श्रेणी का साधक है, वही ब्राह्मण श्रेणी का साधक है। उसकी जो, वृत्ति, हैं, नारी हैं, पत्नी है, उसकी दृष्टी में सिर्फ नाम का जप, परमात्मा का चिंतन करना, दूसरा विचार नहीं आयेगा इसलिए वो उत्तम श्रेणी की पतिव्रता है। अर्थात् वो साधक, कौन सा है? ब्राह्मण श्रेणी का साधक है। इसके बाद मध्यम परपती देखै कैसे, भ्राता, पिता, पुत्र निज जैसे। मध्यम श्रेणी का जो साधक है, वो क्षत्रिय श्रेणी का साधक है।उसके सामने दुसरे चिंतन आते हैं। जो ब्राह्मण श्रेणी का साधक है, वो तो उस स्थिति में है कि वहां दूसरा विचार आता ही नही, ध्यान में स्थित है, अन्य संकल्प आते ही नहीं,वहां दूसरा पति है ही नही।लेकिन जो मध्यम श्रेणी का,क्षत्रिय श्रेणी का पतिव्रत धर्म का पालन करनेवाला जो साधक है,
उसके सामने दूसरे विचार आते है, लेकिन वह उनको किस तरह से समझता है, पतिव्रता इसलिए कहा गया कि जो हमारी इष्टोन्मुखी वृत्ति हैं , नारी हैं, साधना करनेवाली वृत्ति, नाम जपनेवाली वृत्ति भजन करने वाली वृत्ति उसका पति कौन है? परमात्मा है,परमात्म स्थित सदगुरु ही पति हैं। तो वृत्ति भ्राता,पिता पुत्र निज जैसे। भ्राता माने भाई अध्यात्मिक शब्द है जिसको भाव कहते हैं। जो हमारा श्रद्धा,भाव रहता है, उसको भाई कहते हैं। तो जब कोई विकार आया तो उसका भाव क्या हैं? संसार में पटकनेवाला है, तो उसका रुप बदल दो। भ्राता मतलब,भगवान में जोड़नेवाले भाव, में उसमें बदल दो। जैसे ही विचार आए, उसका आशय बदलके उसको मनन करके भगवान में जोड़नेवाले भाव बना लो। पिता मतलब ज्ञान। और जो विचार आयेगा तो कुछ न कुछ ज्ञान देगा। संसार में फसाने वाला ज्ञान दे रहा है, तो उसको बदलकर के परमात्मा में लगाने वाले ज्ञान में उसको परिवर्तित कर लो। पुत्र मतलब लक्ष्य, पुत्र बड़ा हो गया, तो पिता घर कि जिम्मेदारी सौंप देता हैं, तो आनेवाले समय में घर का मालिक वही होगा। ऐसे ही कोई न कोई विचार जब आता हैं, तो कोई न कोई लक्ष्य निश्चित करता हैं, हम भजन कर रहें हैं, नाम जप रहें हैं, हमारी वृत्ति भजन कर रही हैं, पतिव्रत धर्म का पालन कर रही हैं । लेकिन कोई विचार मिल गया, जैसा मनन करेगा उस विचार का, तो हमारे लक्ष्य से भटकाकर, दुसरा लक्ष्य खड़ा कर देगा कि ये नही ये काम करवाओ, मन में चलने लगेगा। तो उसको बदलकर के वापस परमात्मा के प्राप्ति वाले लक्ष्य में उसको बदल लो। मन को लक्ष्य के खिलाफ न जानें देना। ये क्षत्रिय श्रेणी का साधक हैं, मध्यम श्रेणी की पतिव्रता है, आशय को बदल देना।
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई।
धर्म पर विचार करता है कि मैं किस कुल का हु। मेरे गुरु महाराज कैसे है, वो किस परम्परा से हैं। कितना बड़ा पुण्य हैं। उसपार विचार करता है, मन भाग रहा है संसार में, जी विचार आता है, उसके अनुसार करने का मन करता है, लेकिन शरीर से पड़ा हुआ है।, विचार बहुत आता हैं, लेकिन जाता नही है। आधा मन भजन में रहेगा, आधा मन संसार में। सीमा पार नहीं करता। ये साधक जो हैं, निकृष्ट श्रेणी का पतिव्रता हैं। ये वैश्य श्रेणी का साधक है। धर्म पर विचार करता है, कि मैं आ गया, घर छोड़ दिया, गीता में कहा गया, माननीय पुरुषों के लिए अपकीर्ति,ऐसा सोचकर के सदगुरू दरबार में या भगवतपथ में लगा हुआ हैं, छोड़कर नहीं भागता। ये निकृष्ट श्रेणी का पतिव्रता हैं। इसका भी एक ही परमात्मा है, उसी के प्रती समर्पित हैं , परमात्म प्राप्ति के लिए यत्न कर रहा है। और,
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥
अधम श्रेणी की पतिव्रता, इसको भी पतिव्रता कहा गया। क्योंकि इसका पति एक ही हैं, परमात्मा छोड़ कर भाग नहीं रहा है, इधर उधर डटा हुआ हैं। मन बिल्कुल नहीं लग रहा हैं, अब तब लगा हुआ है, भाग सकता हैं, फिर भी अपने शरीर बच के पड़ा हुआ है। ये क्या है? अधम श्रेणी की पतिव्रता।
ये चार प्रकार की पतिव्रता हैं।
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥
जहां वो पति के प्रतिकूल हुई, जो परमतत्व परमात्मा है, जो पति हैं, सदगुरू है, नाम का जप, ध्यान, ए सब पति है, जहां प्रतिकूल हुआ, विषयों का चिंतन चालू किया, तो पति प्रतिकूल जन्म जह जाई, जन्म मतलब परिवर्तन, पहले भजन कर रहा था, तो जहां विषयों के चिंतन में परवर्तित हुआ, तहां विधवा हो गया। जहां परमात्मा पति था, नाम जप और ध्यान चल रहा था, उससे रहित हो जाना। जो भगवान बता रहें थे, अनुभव मिल रहा था, उससे रहित हो जाना, विधवा हो जाना है,वो मर गया। भगवान तो अविनाशी हैं, मरते नही हैं। लेकिन भजन साधना की प्रक्रिया बंद हो गईं , तो पति मर गया। उस पति की लंबी आयु कैसे हो? जो भगवान बता रहे हैं, मार्गदर्शन कर रहें हैं, भले ही शुद्र श्रेणी का साधक है, निकृष्ट ही है, लेकिन उसके अनुसार वी लगा हुआ है, नाम जप रहा है, भले ही क्षीण प्रकाश है, चंद्रमा चतुर्थी का हैं,क्षीण प्रकाश के रुप में , लेकिन उसकी आयु को बढ़ाना हैं , घटाना नहीं हैं। पति मतलब नाम जप, ध्यान जो पति है, उसके द्वारा भजन करना, आयु बढ़ना मतलब भजन करना। भजन छूट गया, मतलब पत्नी बिधवा ही गई। परमात्मा से रहित हो गई। बाहर ऐसा कुछ नही हैं कि परमात्मा,मर गया, आप भजन छोड़ दीए नाम जप ध्यान तो अनुभव आना बंद हो गया तो विधवा हो गई। तो इसकी आयु लम्बी हो, उसके लिए पतिव्रत धर्म शुद्र श्रेणी का साधक हैं क्षीण प्रकाश हैं, उस पति को देखकर के भगवान को देखकर,क्षीण प्रकाश देखते हुए मन में क्षीण प्रकाश जो भगवान बता रहे हैं उसको देखते हुए आगे बढना। पूर्ण प्रकाश की प्राप्ति के लिए पालन करना । जब तक पूर्ण प्रकाश पूर्ण चंद्रमा नही मिल जाता तब तक लगे रहना। इसीलिए चतुर्थी का चंद्रमा जो क्षीण प्रकाश के रुप में रहता है, उसको देखा जाता हैं। तो भगवान जिसका भजन कर रहा है भगवान की प्राप्ति तक हम ऐसे ही लगे रहे। ये है आयु का बढ़ना। कहीं बीच में भटक न जाय, छूट न जाए। छूट गया तो वृत्ति (पत्नी )विधवा हो गई। अनुभव से रहित, भगवान के मार्गदर्शन से रहित हो गई तो विधवा हो गई। मार्गदर्शन मिलता रहें तो वो सुहागिन हैं। आगे बढ़ती रहेगी वृत्ति। इसलिए आयु लम्बी हो मतलब अनुभव मिलता रहें, भगवान बताते रहें , हम ऐसे ही भजन करते रहें,आगे बढ़ते रहें। जव तक प्राप्ती न ही जाय। तो सुहाग के अमर होने के लिए ये व्रत है। दृढ़ संकल्प होकर भजन करे। सुहाग कौन है? भगवान हैं। भगवान जब मार्गदर्शन दे रहें है, तो हमारी जो इष्टोन्मुखी वृत्ति हैं, वो सुहागिन हैं। और इसकी आयु बढ़े मतलब बताते रहें तब तक जब तक मुक्ती न हो जाय तब तक। तो हम बढ़ेंगे। और जहां अनुभव से रहित हो गई विधवा हो गई। बंद हो गया सब कुछ। शुद्र श्रेणी का साधक है, चतुर्थी का चंद्रमा है, क्षीण प्रकाश हैं । और ब्राह्मण श्रेणी का साधक है, पूर्ण चंद्रमा हैं पूर्णमासी का। पूर्ण प्रकाश है। तो इसलिए चंद्रमा को देखना है, कि चन्द्रमा, माने हमारे मन में, भगवान क्या बात रहें है? उस मन में विचार करना है कि भगवान ने क्या स्वप्न में बताया। क्या अंग फड़कन में बताया? अंग फड़कन भी वही प्रकाश हैं, वही मन के अंतराल में बता रहे हैं, उसको देखते हुए आगे बढना। क्यों आगे बढ़ना हैं? क्योंकि इस क्षीण प्रकाश को इस ज्ञान को पूर्ण ज्ञान मे परिवर्तित करना हैं। अभी आरम्भिक ज्ञान है, शूद्र अवस्था हैं। शुरुआत हैं, इसको बढाना है, और बीच मे कहीं भटक गया तो विधवा हो जायेगी वृत्ति। फिर इस जन्म में नही पाएगा अगले जन्म में पायेगा। अनुभव से रहित हो गई, इष्टोन्मुखी वृत्ति। भगवान बताना बंद कर देंगे तो विधवा हो गई। भगवान बताते रहें, ये सुहाग की पति की लंबी आयु हैं, भगवान मरते नही हैं। वो तो जन्म मृत्यु से परे हैं। लेकिन जब भगवान हमसे अलग हो गए बताना बंद कर दिए तो वृत्ति विधवा हो गई। तो इस तरह से सुहाग को बढ़ाना। शुद्र श्रेणी में चतुर्थी का चंद्रमा , करवा चौथ का व्रत दृढ़ संकल्प होकर सेवा कर रहा है, भजन कर रहा है यहां से व्रत शुरु होता हैं। धीरे धीरे वैश्य श्रेणी आ गई। निकृष्ट श्रेणी का साधक ही गया। फिर वहा भी अपने सुहाग की रक्षा करेगा, जो भगवान बता रहे हैं, उसके अनुरूप चलता रहेगा। तो उसके पति की आयु लंबी होगी। फिर क्षत्रीय श्रेणी का हो गया, यहां पर भी भटक सकता हैं। यहां भी अनुभव के अनुसर ही चलना हैं। अगर बात नही मानेगा फिर विधवा। तो आगे विधवा न हो जाय, सुहाग लम्बी हो , तो भजन करते रहना हैं, लगन लगाए रखना है। ब्राह्मण श्रेणी का साधक है, वहां मौका नहीं हैं , भटकने का लेकिन वहां पर भी,है खतरा, क्योंकि क्लेश तो विद्यमान हैं। थोड़ा सा भी दूरी है भगवान से तो भी विधवा हो सकती हैं। अनुभव से रहित हो सकती हैं। प्रताप भानु का को सिर्फ़ एक इच्छा हो गईं। “जरा मरण दुःख रहित तन.. होनेवाला था, बिना मांगे हो सकता था, मांग लिया भटक गया। वे ब्रह्मण श्रेणी के साधक थे। तो इस तरह से विधवा होने का मतलब है, पति परमात्मा है, उसकी आयु लंबी होने का मतलब, हम भजन करते रहेंगे, व्रत करते रहेंगे तो आयु लम्बी होगी। इसलिए करवां चौथ का व्रत करते हैं, ताकि पति की आयु लंबी हो। भगवान हमको हर जन्म में बताएं, हमारी साधना चलती रहें। इसका मतलब हम भजन करे, व्रत करे, तव भगवान बताते रहेंगे। और हर श्रेणी में हमारा साथ देंगे। सुहाग बना रहेगा। वृत्ति विधवा नहीं होगी। लेकिन जिस श्रेणी में साधक भटक गया, अनुभव से रहित हो गईं, तो वृत्ति विधवा हो गई। भगवान बताते रहें, अनुभव मिलता रहें, तो आयु लम्बी होती रहेगी। कब? जब हम भजन करते रहेंगे नाम जपते रहेंगे । किससे मन बुद्धी चित्त अहंकार , चतुष्ट अन्तःकरण से। भजन करते रहेंगे तो पति की आयु लम्बी होगी, परमात्मा जब तक हम मुक्त नहीं होंगे, तब तक बताते रहेंगे। तो इस तरह से वे चार अवस्थाये है।

ये चार अवस्थाएं क्या हैं?

यही करवां चौथा का व्रत हैं। वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती,परा,शुद्र, वैश्य, क्षत्रीय, ब्राह्मण यही चारों अवस्थाएं ही करवा चौथ व्रत हैं। ब्राह्मण श्रेणी में साधक का व्रत पूर्ण हो जाता हैं। भगवान को पा लिया, फिर स्त्री के विधवा होने का कोई प्रश्न ही नहीं। भगवान को पा लिया, तो जानत तुमहि,तुमहि होई जाई। सदा सदा के लिए उसका सुहाग अमर हो गया। वहा पर आयु घटने बढने की कोई बात नही। लेकिन शुद्र श्रेणी का साधक हैं, वहां पर पति की आयु घटेगी बढ़ेगी। जब तक भगवान की प्राप्ति नहीं होगी तब तक तो इसलिए वे करवा चौथ का व्रत शुरु कहा से होता हैं? शुद्र श्रेणी का साधक हो , अधम श्रेणी का पतिव्रता हो, यहां से वे व्रत शुरु होता हैं , और जब ब्राह्मण श्रेणी आ जाती हैं, पूर्ण प्रकाश आ जाता है, मन मे । मन पूर्णत्व को प्राप्त हो जाता हैं, चंद्रमा सम्पूर्ण कलाओं से युक्त हो जाता हैं, तो ये व्रत पूर्ण हो जाता हैं,तो इस तरह से ये पतिव्रत धर्म का व्रत हैं, करवा चौथ का व्रत । पति है परमात्मा उसके प्राप्ती के लिए निरन्तर भजन करना हैं, यहीं व्रत की शुरुआत हैं, और जहां छूट गया भजन, वृत्ति विधवा हो गई। उसकी आयु कम हो गईं। और भजन करते रहेंगे, भगवान बताते रहेंगे आयु बढ़ती रहेगी। जब तक भगवान न मिल जाय, तब तक भजन करना है, व्रत करना हैं। ताकि भगवान मार्ग दर्शन देते रहें। यही पति की आयु का बढ़ना हैं। क्योंकि जहां भगवान के मार्गदर्शन से रहित हुई वृत्ति तो विधवा हो जाती हैं। तो ये आध्यात्मिक दृष्टिकोण है इस व्रत का। और बाहर तो जब नाम जप रहें हैं भजन कर रहें है एक परमात्मा के प्रति समर्पित होकर तो बाहर के जो पति हैं, उसकी भी रक्षा भगवान करते हे। और अगर पति भजन कर रहा है, तो पत्नी की भी भगवान रक्षा करते हैं। तो एक ही बात हैं। अंदर भजन कर रहें हैं तो बाहर के पतियों की रक्षा भगवान करते हैं। इसके बाहर कोई और रक्षा करनेवाला नही हैं।

स्वामी श्री राजेश्वरानंद जी महाराज।
श्री परमहंस आश्रम राजकोट गुजरात।

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