नरक चतुर्दशी क्या हैं?

नरक चतुर्दशी पांच पर्वों की श्रृंखला के मध्य में रहने वाला त्यौहार है। दीपावली से दो दिन पहले धन-त्रयोदशी (धनतेरस) फिर नरक चतुर्दशी (नरक चौदस) व छोटी दीपावली फिर दीपावली और गोवर्धन पूजा व बलि प्रतिपदा, भ्रातृ-द्वितीया (भाईदूज) आता हैं। आध्यात्मिक दृष्टी से इस पर्व का विशेष महत्व हैं। जिसकी विस्तृत व्याख्या परमपूज्य स्वामी श्री राजेश्वरानंद जी महाराज के ही शब्दों में आप सभी के समक्ष प्रस्तुत हैं।
नरक चतुर्दशी

आज के दिन लोग यमराज के लिए दिया जलाते हैं,शाम को दक्षिण दिशा में, इसलिए की यमराज खुश रहें, और वे जल्दी न मरें। यमराज के प्रसन्नता के लिए दिया जलाते है, दूसरी दो तीन कहानियां हैं, एक कहानी है, एक क्रांतिदेव नाम के राजा थे, बहुत दानी थे।पिछले जन्म में भी धर्मात्मा और, दानी थे, और वे बहुत दान पुण्य किया करते थे लेकिन जब राजा के मरने का समय आया तब यम के दूतो ने आ कर उनको घेर लिया।दरवाजा देखकर राजा घबरा गया, उसने पूछा की ये यमराज के दूत क्यों आए हैं , मुझे लेने के लिए इतना दान पुण्य किया है मैंने,फिर मुझे तो स्वर्ग जाना चाहिए, तो इसके बाद फिर यमराज ने कारण बताया, कि तुमने जो पुण्य किया है, उनको सब जानते हैं लेकिन जो पाप किया है उसको कोई नहीं जानता है। तो राजा ने,पूछा कि क्या पाप हुआ है, क्या गलती हुई है? तो फिर यमराज बोले कि एक ब्राह्मण भूख से व्याकुल होकर तुम्हारे दरवाजे पर आया, और इसके बाद भी तुमने उसे भोजन नहीं कराया और वह भूखा चला गया, यही पाप हुआ है।यमराज ने बोला कि इसी लिए तुमको नरक में तो जाना ही पड़ेगा। धर्मात्मा था राजा, उसने विनती किया की मुझे एक साल का मौका दे दो,एक साल बाद मैं अपनी भूल सुधार लूंगा। और पूछा कि क्या करूं? तो यमराज ने बोला कि एक साल बाद फिर इसी चतुर्दशी को जो ये आती है कार्तिक मास मे, इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराना दान पुण्य करना, तो फिर राजा ने एक साल बाद ब्राह्मणों को दान दिया, भोजन कराया। तो फिर वह राजा चला गया स्वर्ग में इसके पहले वह जा रहा था नरक में।एक तो यह कहानी है, और दूसरी कहानी इसी से जुड़ी हुई है की भगवान श्री कृष्ण को जब नरकासुर का वध करना हुआ, तो ये हुआ कि नरकासुर का वध किसी स्त्री के द्वारा होगा, तो उन्होंने अपनी जो रानी थी सत्यभामा, उसको सारथी बनाया और गए तो नरकासुर का वध किया सत्यभामा ने। नरकासुर सोलह हजार कन्याओं को बंदी बना रखा था, वह उन सभी को अपनी रानी बनाना चाहता था । लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने जब नरकासुर का वध किया । तो फिर सोलह हजार कन्याओं ने कहा की अब हमको कौन सम्मान देगा? तो भगवान श्री कृष्ण ने उनसे विवाह किया, और सबको अपनी रानी बनाया। इस तरह से एक कहानी यह है।
इसके बाद एक कहानी और है, कि एक महात्मा थे,भजन कर रहे थे, हिरण गर्भ नामक स्थान पर।भजन करते-करते क्या हुआ उनके शरीर में कीड़े पड़ने लगे, और शिर के बालों में जुआं पड़ने लगे, तो फिर उन्होंने विचार किया कि ऐसा क्यों हो रहा हैं, तो फिर नारद जी प्रकट हुए उन्होंने बताया कि तुमने ठीक-ठीक से आचरण नहीं किया, इसलिए ऐसा हुआ, तो महात्मा ने कहा अभी करू? तो नारद जी ने कहा अभी नही एक साल बाद करना । तो एक साल बाद जब महात्मा ने यह व्रत किया,आज के दिन इसके बाद फिर वह वापस सुंदर हो गए, उनका रूप बिगड़ गया था कीड़े पड़ने के कारण,तो फिर से सुंदर हो गए। फिर से उसी स्वरूप में आ गए।इसलिए इसको रूप चतुर्दशी भी कहते हैं। और बंगाल के लोग इसको मनाते हैं, काली चौदस, मतलब काली मां का अवतरण दिवस ये चार कहानियां जु़ड़ी हूई हैं।
आज के दिन लोग दिया जलाते हैं, घर के बाहर , इसलिए कि यमराज खुश हो जाएं, कोई अकाल मृत्यु न मरें। ऐसी कामना करते हैं।
तो ये कहानियां हैं, कहानियां इसलिए लिखी जाती हैं, कि भविष्य में ये जो समाज है, कभी न कभी इसका अध्यात्म समझें और फिर अपना आचरण करें ।वास्तविकता को समझे वास्तविक यमराज क्या हैं, वो खुश कैसे होते हैं, वास्तविक नरक क्या है, उससे मुक्ति कैसे मिलती है इन बातों को समझने के लिए, आज का दिन नरक चतुर्दशी मनाते हैं, कि हमको नरक में न जाना पड़े। यमराज उठाकर न लें जाय।
जब कोई सत्कर्म करता है तो, उसके लिए देवदूत आते हैं,धर्मराज के दूत आते हैं, और जब कोई सत्कर्म नहीं करता, और उसको नरक में जाना होता है, तो यमराज के दूत आते है। तो यमराज और धर्मराज दोनों अलग-अलग नहीं एक ही है, वही यमराज बन जाते हैं वही धर्मराज बन जाते हैं, जैसी परिस्थिति जैसा व्यक्ति वैसा ही रूप उनका हो जाता है। तो ये दोनों एक ही हैं, अलग अलग नहीं हैं। तो इस तरह से हमको नरक में न जाना पड़े , और यमराज हमको उठाकर न लें जाय तो इसके लिए हमें क्या करना चाहिए । तो दीया जलाओ, दीया एक प्रतीक हैं, बहुत बड़ा रहस्य है।
दिए का जो है शास्त्रों में वर्णन आया है। जैसे रामचरितमानस में है कि “राम नाम मनदीप धरू, राम नाम का दीया।फिर भक्ति रूपी मनी उसी को कहा गया। ज्ञान दीपक कहा गया, ज्ञान का दीया।अलग-अलग प्रकार के नाम है। और वे सब इसी ज्ञान का दीया हो या जो सब नाम के जप से ही जलता है।
चतुर्दशी, ये नरक चतुर्दशी इसका मतलब होता है, दस इंद्रियां और मन , बुद्धि, चित्त, अहंकार ये चौदह हैं। इन्ही को चतुर्दशी कहा जाता है, चौदस कहा जाता हैं। इन्हीं को चौदह भुवन कहा गया।
चौदह भुवन लोक पति होई, और भूत द्रोह तिष्टै नहि सोई।
इन्ही को चौदह भुवन कहा गया, ये चौदह में जो कुछ होना है, इसी में होना हैं। और इन्ही में जब तक नरक के कारण हैं, तबतक ये नरक चतुर्दशी है। इससे मुक्ति कैसे मिले, जब ये नरक के कारण समाप्त हो जाए, तभी इससे मुक्ति मिलेगी। तो सबसे पहले क्या है? चौदह अधिभूत हैं। दस इंद्रियां, मन,बुद्धि चित्त,अहंकार, ये चतुर्दस हैं। इसमें अधीभूत मतलब, जब तक हमको भोग्य पदार्थ दिखाई दे रहा है, तब तक ये जन्म मृत्यु के कारण हैं। ये नरक के कारण हैं, ये यमराज हमको ले जाएगा, जब तक इसमें भोग्य पदार्थ भरा हुआ है।भगवान राम जब युद्ध कर रहे थे, दंडक बन में।सुपर्णखा के नाक कान करने के बाद खरदूषण आए। तो खर दूषण ने युद्ध किया। इसके बाद उन्होंने अपना रूप लिया। प्रभु डरत चौदह सास त्रे। चौदह हज़ार भूत भगवन राम से युद्ध करने लगें। लक्ष्मण जी देखकर घबरा गए, कि इनसे कैसे युद्ध करेंगे। लेकिन भगवान राम ने क्या किया, ऐसा बाण छोड़ा कि वे सब आपस में ही एक दूसरे में राम राम देखने लगें। जो राक्षस थे चौदह हज़ार प्रेत आपस में देखे सामने खड़े हैं राम, और वे उसको देखे राम, आपस में ही लड़कर मर गए।ऐसा भगवान ने कौतुक किया। तो ये चौदह हजार भूत क्या हैं? वास्तव में दस इंद्रियां हैं और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ये चार अंतःकरण हैं। ये चौदह हैं,इन चौदह में जबतक हमारी दृष्टी भोगों मे हैं , भोग्य पदार्थ में पदार्थ में दृष्टि हैं,उनकी कामना हैं। तबतक क्या हैं? चौदह अधिभूत है, भूतों के अधिष्ठाता हैं ,भूतों के अधिष्ठान हैं।बार-बार जन्म लेना और मरना इसके ये स्थान बने हुए हैं, ये चौदह अधिभूत। अब धीरे-धीरे इसमें क्या होता है, फिर ये चौदह अधिदैव बनते हैं। अधिदैव का मतलब होता हैं, दैवी संपद का स्थान बन जाय।

तो ये चौदह अधिदैव कैसे बनेंगे?
दैवी संपद जागृत हो जाय तब। सद्गुण जागृत हो जाए तब, ये चौदह अधिदैव बनेंगे। तो ये दैवी संपद कब जागृत होती हैं ? तो वही नाम के जप का दिया जलाना आज के दिन। दीया कल भी जला आज भी जला, ओ एक ही है,वही नाम के जप का दीया। सबसे पहले कैसे नाम का जप हैं? तो सबका मूल क्या है? परमात्मा! परमात्मा का निवास कहाँ है? तो “व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी, सत चेतन घन आनंद राशि, वह परमात्मा कण कण में व्याप्त है,लेकिन कहां पर रहता है ? सबके हृदय में रहता है।
अस प्रभु हृदय अक्षत अविकारी, सकल जीव जग दीन दुखारी
परमात्मा सबके हृदय में रहता है, लेकिन सब जीव दुखी हैं। हृदय में परमात्मा रहता है, सर्वज्ञ है त्रिकालज्ञ है,लेकिन हम लोग त्रिकालज्ञ नहीं हैं,दुखी हैं। तो वो परमात्मा हृदय का कैसे प्रकट हो कैसे जागृत हो, कैसे हमारा मार्गदर्शन करें? तो कहते हैं,
नाम निरूपण नाम जतन से, सो प्रकटत जिमि मोल रतन ते
नाम का जप करो,वो प्रकट हो जाएगा। तो कौन सा नाम का जप करें? नाम का जप, तो सभी करतें हैं। कोई न कोई मंत्र देते रहतें है, लोग माला जपते रहतें हैं। कोई हरे राम, हरे कृष्ण, तो कोई ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
ये सब नाम मंत्र नहीं हैं। तो वह मंत्र क्या होता है?
मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व
मंत्र बहुत छोटा सा होता हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश और परमात्मा सब उसके वस में हैं। तो वो मंत्र क्या हैं?तो वो छोटा सा मंत्र है। “राम नाम जेई जपे महेशु” शंकर जी जपते थे, क्या जपते थे शंकर जी?
तुम पुनि राम राम दिन राति” राम राम। तो रामचरित मानस में जिसको राम कहा गया, उसी को गीता में, उपनिषद में योगदर्शन में प्रणव कहा गया है। ॐ कहा गया है। पहले ॐ का जप वेदों में, उपनिषदों में है, वहां राम शब्द का जप नहीं है, तो फिर क्या इसका मतलब अलग अलग है?नहीं एक ही हैं।”राम ब्रह्म व्यापक जेहि जाना। जो कण कण में व्याप्त है, उस तत्त्व का संबोधन क्या है? राम है।
सबके हृदय में रमण करता है, इसलिए उसी का नाम राम है।
ॐ क्या है?
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।” उसी ब्रह्म का सम्बोधन ॐ है। “ओ” मतलब वह परमात्मा “अहम” मतलब आप स्वयं जिसका निवास आपके हृदय में है, इसलिए उनका नाम ॐ है। तो हमको दिया जलाना हैं। “राम नाम मणि दीप धरू जीह देहरी द्वार”। जीभ पर रखना है राम, क्षण में राम क्षण में ॐ ऐसे नहीं। किसी एक नाम को चुन लो, चाहें ॐ चाहें राम, फिर जिंदगी भर उसको जपते रहो। तो “नाम जिह जपि जागै जोगी”तो नाम का जप जब जीभ से जपने लगते है, तो यहाँ से दीया जलाना शुरू होता हैं। फिर मध्यमा से करना है,कंठ से करना है धीरे-धीरे, फिर श्वास को देखना है। श्वास अंदर गई तो ॐ, बाहर आई तो ॐ । ये श्वास तीनों लोक का मूल है, कीमती है। अगर श्वास चली गई तो संसार भी नहीं परमात्मा भी नहीं। श्वास भीतर परमात्मा से जुड़ी है, बाहर संसार से जुड़ी है। बाहर जबतक जीवित हो तभी तक आप कमा खा सकते हो और स्वास निकल गई तो बाहर भी कुछ नही ओर भीतर भी कुछ नही इसलिए ये श्वास क्या है?एक मणि है ।
लेकिन ये श्वास कब मणि है, जब जीभ से जपने वाला नाम, धीरे धीर श्वास मे आ गया।स्वांस अंदर आई तो ॐ और बाहर गईं तो ॐ ,या राम जपते हो तो अन्दर आई तो राम, बाहर गईं तो राम। तब ये मणी हो जाता है ,कीमती हो जाता है। दीया जलने लगता है, तो ये नरक चतुर्दशी है आज। जब ये नाम जप होने लगे स्वांस में तो जिसका नाम जप कर रहे हो, वो परमात्मा भी हमारी ह्रदय से जागृत हो जाता है। भगवान प्रकट होकर के मार्गदर्शन करने लगते हैं। कि ये करो ,ये मत करो , ये सही है और ये गलत है। इस तरह से बताने लगते हैं,इस जागृति का नाम अनुभव है।
यद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनंता, अनुभवगम्य भजहि जेहि संता
ब्रह्म अखण्ड एवं अनंत हैं। लेकिन वहां तक पहुंचने का रास्ता क्या है? अनुभव। भव माने संसार, अन माने अतीत। संसार क्या है,और उससे मुक्ती क्या है। इस बात को भगवान बताने लगे, इस जागृति का नाम अनुभव है। इसी जागृती को कहते है, भगवान राम का अवतार। राम जन्म लेंगे, तो रावण मारा जायेगा। तो दीपावली, नरक चतुर्दशी, उसी सबका नाम है। तो जब ये जागृति हो गई तो पहले चौदह अधिभूत थे, भोगों के तरफ दृष्टी थीं। भोगों के अनुष्ठान बने हुए थे, नरक में ले जाने के कारण। और जैसे ही देवी संपद जागृत हो गई, तो ये चौदह अधिदैव हो गए। मतलब दैवी सम्पद जागृत हो गए, सद् विचार आने लग गए। देवी संपद का मतलब है, आश्रम चलो, नाम जपो, भजन करो, विवेक वैराग्य यह जो देवी संपद है इसके लक्षण जागृत हो गए।सत्य, अहिंसा अक्रोध है, त्याग है, शांति है,ध्यान करने की वृत्ति है, यह सब बातें जागृत हो गई,स्वप्न,अनुभव। तो ये क्या हो जाते हैं, अधिदैव हो जाते हैं।और फिर जब यज्ञ करने लग गए, चौदहो मिलकर के नाम का जप,ध्यान ये यज्ञ हैं। जब यज्ञ करने लग गए तो यही क्या हो जातें है, अधियज्ञहो जातें हैं।
और यज्ञ करते-करते,
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्
नाम का जप रूपी यज्ञ इसी को करते करते,कहां पहुंच गए,कामनाओं एवं संकल्प से ऊपर उठ गईं प्रक्रिया, कामना और संकल्प, जो कामना थी वही नरक में ले जान के करण थे, वही अधिभूत थीं।कामनाओं की पूर्ति के लिए भोग्य पदार्थ में जो हमारी दृष्टि थी, तो अधिभूत थे, भोगों में दृष्टि, नरक में जाना, यमराज का उठाना, एक ही बात है।नाम जपते जपते जब कामना एवं संकल्प से ऊपर उठ गए।
तो, ज्ञानाग्नि दग्ध कर्मणाम” अध्यात्म हो गया,ये चौदहों जो हैं आत्मा के आधिपत्य में हो गए। ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित हो गई,जिसको जानना था, जिस परमात्मा का नाम जप रहे थे, वो जानने में आ गया, प्रत्यक्ष हो गए,तो क्या हो गए आध्यात्म हो गए। आत्मा के आधिपत्य में। पहले ये चौदह किसके आधिपत्य में थे, भोगों के आधिपत्य में, भूतों के आधिपत्य में। यही चौदह हजार भूत थे, जो भगवान राम से लड़ रहे थे।
और जब अभ्यास किया नाम के जप का ध्यान का। तब अभ्यास करता है।”राम राम कही तन तजई पावही पद निर्वाण“राम राम कहकर,आपस में एक दूसरे को मार के मर गए।
तो यह क्या है? ये चौदह अधिभूत से चौदह अध्यात्म तक की यात्रा है। जब हमारी दृष्टि भोगो में होती है, तो नाम जपोगे तो दृष्टि बाहर जाएगी, तो फिर क्या कहा जाता है, कि नाम जपो, जब दूसरे विचार आए तो वहां पर गुरु महाराज का स्वरूप देखो ,नाम के जप को देखो, जितनी बार मन जाए,उतनी बार वहां पर उनको देखो, तो धीरे-धीरे जो चौदह अधिभूत हैं,वो पहले अधिदैव बनेंगें, दैवी सम्पद आयेगी। फिर यज्ञ करने लगेंगे तो अधियज्ञ बनेंगे। और फिर जिस नाम का जप कर रहे हो, जिस स्वरूप का ध्यान कर रहे हो,जब वही दिखाई देने लग गया दूसरे विचार शांत हो गए, तो यह चौदह अध्यात्म हो जाते हैं। यहां पर जाकर के नरक से मुक्ति मिल जाती है। यमराज का पीछा छूट जाता है। यमराज खुश हो जाते हैं, तो यह दीया कहां जलता है?यही मन ,बुद्धि, चित्त अहंकार,दसों इंद्रियां,इसी के अंतराल में नाम के जप रूपी दीया जलाया जाता है।धीरे-धीरे अधिभूत हुआ अधिदैव हुआ, अधियज्ञ हुआ, और फिर आत्मा का आधिपत्य प्राप्त हो गया।ज्ञान की प्राप्ति हो गईं।तब यह दीपक पूर्ण रूप से जल गया, इसी को कहा गया, “सोऽहमस्मि” अहम् ब्रह्मास्मि” मतलब वह परमात्मा मेरे अंदर, है तो ये ज्ञान का स्वरूप प्रकट हो गया, नाम जपते-जपते स्वयं ज्ञान का स्वरूप बन गया,आत्मा की प्राप्ति हो गई,तो आध्यात्म।
तो इस तरह से ये है नरक चतुर्दशी, यमराज खुश हुए, प्रसन्न हुए,अब उसकी मृत्यु नहीं हो सकती है। “अल्प मृत्यु नहि,कवनऊ पीरा, आत्मा की प्राप्ति हो गईं, आत्मिक सम्पत्ति आ गईं। जन्म मृत्यु से छूटकारा मिल गया। तो उसको यमराज नहीं ले जा सकते अब। इसी तरह से जो कहानी है, उसका भी अध्यात्म है। जैसे रंतीदेव की कहानी है, रंतीदेव जो राजा था,रंतीदेव का मतलब होता है। रति माने काम होता है,और देव माने दैवी संपद होता है। दैवी संपद हमारे अन्दर है, वो दान पुण्य करता था राजा, लेकिन वह ब्राह्मण को भोजन नहीं कराया, तो उसका सब कुछ व्यर्थ चला गया, यमराज लेने के लिए आ गए।फिर राजा को ब्राह्मणों को भोजन कराना पड़ा, तब जाकर वो बैकुंठ गया,इतना इसका मतलब है। तो हमारे अंदर रति माने कामना, जब कोई कामना आ जाती हैं। दैवी संपद है भजन कर रहे हैं, नाम का जप कर रहे हैं,लेकिन जब कोई कामना आ गई,तो देवी संपद से कामनाओं की पूर्ति ही रंतीदेव है। दैवी संपद है,पुण्य है लेकिन कामनाओं की पूर्ति करने लग गया। तो फिर उससे क्या हो गया,ब्राह्मण व्याकुल हो गया। ये ब्राह्मण क्या है? ब्रह्म चिंतन की प्रक्रिया। ब्रह्म में प्रवेश दिलाने वाली जो चिंतन की प्रक्रिया है, विधि है, ब्रह्मआचरण प्रवृत्ति है, यही ब्राह्मण है। जो हम नाम जपते हैं ध्यान करते हैं, यह भूखा रह जाएगा। जब आप भजन करोगे, और कामनाओं की पूर्ति करोगे तो ब्राह्मण व्याकुल हो गया,वो भूख रह गया। तब आपको यमराज लेने आएगा, जन्म मृत्यु के चक्कर में जाना पड़ेगा। भले ही देवी संपद है भजन कर रहे हैं, लेकिन जब कामनाओं की पूर्ति करने लग गए, तो नरक में।लेकिन जब वो ब्राह्मण की तृप्ति कर दिया, दान दे दिया ब्राह्मण को खिला दिया तो बैकुंठ।तो ब्राह्मण को खिलाने का मतलब है, नरक से पीछा छूटना। तो ब्राह्मण को तृप्त करने का मतलब है, ब्रह्म की प्राप्ती के लिए ब्रह्म चिन्तन में रत रहना। और जो कामना आए उसका त्याग करना। समर्पण के साथ ब्रह्म चिंतन में रहना, ब्रह्म चिंतन करने से क्या होता है? ब्राह्मण तृप्त होता है। ब्राह्मण भोजन, भजन ही भोजन है। भजन करने लगे तो ब्रह्मआचरण मयी वृत्ति तृप्त होती है। यही ब्राह्मण की तृप्ति है। और जब कामना करोगे तो व्याकुल हो जायेगी। तो रंतीदेव, दैवी संपद से कामना की पूर्ति काम की पूर्ति हुआ, तो व्याकुल हो गया,ब्राह्मण।लेकिन निष्काम भाव से भजन करने लग गया तो, ब्राह्मण तृप्त हो गया तो वह बैकुंठ चला गया। बैकुंठ का मतलब भजन सीमा रहित हो गया, भजन सीमा रहित हो गया। जो टूटता रहता था, विक्षेप उत्पन्न होता रहता था,समाप्त हो गया। जो नरक के मूल कारण थे, समाप्त हो गए।यमराज खुश हो गए,धर्मराज में बदल गए।भजन की वृत्ति जो नहीं हो रहा था,कामनाओं के कारण। कामनाओं का त्याग कर दिया।भजन धारावाही होने लग गया। ये इस कहानी का मतलब है। अब नरकासुर का वध सत्यभामा के द्वारा।
तो ये नरकासुर क्या है? तीन द्वार हैं नरक के, काम क्रोध लोभादी मद, नाथ नरक के पंथ ये तीन क्या है, नरक के पंथ है।कामना है, क्रोध है,लोभ है।
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्।।

ये तीन को नरकासुर कहा गया। रामायण में इन तीनों को नरक के पंथ कहे गए ,गीता में भी इसे नरक का द्वार कहा गया। ये आत्मा का नाश करने वाले हैं, उनको पतन में ले जाने वाले हैं। तो ये क्या है? ये नरकासुर है, उसने सोलह हज़ार कन्याओं को बंदी बना रखा था, सोलह हजार कन्याओं का मतलब होता है।दस इंद्रियां,मन बुद्धि, चित्त अहंकार तेज और परग। सोलह तत्वों का सूक्ष्म शरीर है, इनकी हजारों प्रवृत्तियां है। ये सोलह तत्वों का जो सूक्ष्म शरीर है, इसी से आप संसार में काम करते हो, दसों इंद्रियों से काम करते हो,मन,बुद्धि, चित्त अहंकार से काम करते हो, अनेक अनेक प्रकार से मन सोचता है, अनेक अनेक प्रकार से बुद्धि निर्णय लेती है। अनेकों निर्णय लेकर छोड़ दिए, पूरे ही नहीं हुए। अनेकों विचार मन ने किए पूरे ही नहीं हुए। तो ये सोलह हज़ार मतलब ये सोलह तत्वों का सूक्ष्म शरीर, इसकी हजारों प्रवृत्तियां, यही सोलह हजार कन्याएं हैं। और ये बंदीगृह में पड़ी हैं, किसके? नरकासुर के। आसुरी संपद टिकी हैं किस पर? काम, क्रोध और लोभ ,ये क्या है?आसुरी संपद। ये तीनों काम कर रहे हैं तो वो नरकासुर है। असुर मतलब आसुरी वृत्ती। कामना की पूर्ति नहीं हुई तो, क्रोध आता है, छटपटाहट बढ़ेगी,अविवेक बढ़ेगा, मूढ़ता बढ़ेगी और कामना की पूर्ति हो गई तो और चाहिए और चाहिए,लोभ बढ़ेगा, तो ये काम,क्रोध लोभ ऐसे काम करते हैं। ये क्या है , ये नरकासुर हैं। तो काम के केवल नारि, काम का बल क्या होता है,स्त्री का चिंतन,क्रोध के पुरुष वचन बल,क्रोध का बल क्या है, कड़वा बोलना कठोर बोलना, अपशब्द कहना यह सब क्रोध का बल है। और लोभ के इच्छा दंभ बल। लोभ का बल क्या है? इच्छाओं का बढ़ना। लोभ का मतलब है”इच्छा पूरी हो गईं तो अब दुसरा काम कर लो, ये पूरा हुआ तो और आगे बढ़ गया,बढ़ता ही जायेगा। जैसे आदमी खाता है तो उसका पेट बढ़ता है। तृष्णा उदर वृद्धि अति भारी। जब आपके अन्दर तृष्णा बढ़ रही है, इच्छाएं बढ़ रही हैं।
तो आपको स्वप्न में दिखाई देगा कि आपका पेट बढ़ रहा है।बाहर नहीं अन्दर, इसका मतलब हैं,इच्छाएं बढ़ रही हैं, लालच बढ़ रहा है। ये तीनों क्या हैं? नरकासुर।
तो मंदोदरी ने रावण से कहा की,नाथ नरक के पंथ हैं , काम, क्रोध, लोभ ये नरक के रास्ते हैं तीनों “भजो भजही जे संत”आप भजन करो जाकर जिसका संत लोग भजन करते हैं, उस भगवान का । नरक से छुटने के लिए तो ये नरकासुर है। आसुरी संपद इन्ही तीनों आधार पर काम करती हैं। नरकासुर ने जो सोलह हजार कन्याओं को बंदी बना रखा था, तो ये जो सोलह तत्व हैं, दस इंद्रियां, मन, बुद्धि, चित्त,अहंकार,तेज और पराग। तेज मतलब ईश्वर का तेज किस रूप में है? पराग के रुप में,जैसे फूल मैं पराग होता है, जिससे दूसरा पेड़ बनता है। ऐसे ही हम सब के अंदर परमात्मा का तेज बीज के रूप में हैं। “ईश्वर अंश जीव अविनाशी “परमात्मा बनने वाला बीज हम सबके अन्दर है, उसी का नाम पराग है। तो ये सोलह तत्वों का जो सूक्ष्म शरीर है, दस इंद्रियां, मन बुद्धि चित्त अहंकार तेज प्रज्ञा इनकी हजारों प्रवृत्तियां है। हजारों प्रवृत्तियां मतलब कितनी बार सोचोगे उतनी प्रवृत्तियां अनंत है, यही सोलह हजार कन्याए हैं, जिसको नरकासुर ने बंदी बनाया था, भगवान ने मारा, सत्यभामा ने इसका वध किया । सत्यभामा का मतलब होता है सत्य का भान हो जाना, और कृष्ण क्या है? वास्तव में कृष्णा एक सद्गुरु है, महापुरुष हैं। भगवान कृष्ण पांच हजार वर्ष पहले हुए,और वर्तमान में जो सद्गुरु है, वो भी कृष्ण हैं, लेकिन वह आपके अंदर कैसे काम करते है। वह तो एक जगह पर बैठे हैं,तुम्हारे अंदर कृष्णा क्या है? वही सदगुरू, कृष्ण जब काया से संचालित हो जाते हैं, तो इस शरीर को संचालित करने लगते हैं, मार्गदर्शन करने लगते हैं। हमारे अन्दर ह्रदय में बैठकर चलाने लगते है। कया से संचालित हो जातें है,तो यही शरीर से जब संचालित हो जाते हैं, तो कृष्ण हमारे अन्दर आ गए हमारा मार्गदर्शन करने लगते है कि यह करो यह मत करो। तो चलने का उद्देश्य क्या है, हम चल रहें हैं, भजन कर रहें है। नाम जप कर रहें है, किसलिए कर रहें है? कि हमको सत्य का भान हो जाय, यही हैं सत्यभामा। हमको सत्य का भान नहीं हैं,सत्य हमारे सबके अन्दर है भगवान कृष्णा जिसको कहते हैं कि आत्मा ही सत्य है , शाश्वत है सनातन है। वे सत्य आत्मा को कहते हैं, और भगवान राम, “व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी सत चेतन घन आनंद राशि” वह भी परमात्मा है , उसी को सत्य कहते है, लेकिन उस सत्य का हमको भान नहीं हैं, वह सत्य हम सबके अन्दर है, लेकिन हमको वो याद नहीं है, हम परमात्मा को भूल गए हैं। परमात्मा कण कण में व्याप्त है, शरीर भी एक कण है, इसमें भी परमात्मा है, लेकिन हमे होश नही है। हम कथाएं भी सुनते हैं,प्रवचन सुनते हैं, इसके बाद सब सुनने के बाद भी भूल जाते हैं। तो वो याद नहीं हैं, सुनने के बाद हम अपने काम में व्यस्त हो जातें हैं। तो यह भगवान कृष्ण जो संचालित हो जाते हैं शरीर से, काया से।सद्गुरु हृदय से रथी हो जाते हैं। तो इसी का नाम हमारे अन्दर का कृष्ण हैं।भगवान कृष्ण कहते है, कहते हैं कि,
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि
यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूँ। अक्षराणामकारोस्मि सभी अक्षरों में ओंकार मैं हूं , अर्थात जब ॐ का जप कर रहे हो तो कृष्ण आपके अंदर है, बाहर कृष्ण हुए वह अलग बात हैं,सद्गुरु भी कृष्ण हैं वो भी अलग बात हैं।आप के अंदर वो कृष्ण कैसे आएंगे? तो ॐ का जप करोगे तो आपके अंदर कृष्ण है। किस रूप में हैं? काया से संचालित,इस शरीर इस मन को संचालित, करने लगे तो कृष्णा हैं? क्यों संचालित कर रहे हैं?
असुर मारि थापही सुरही
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

दुष्कृतियों को जिनसे दोष उत्पन्न होते हैं, उनको नष्ट करने के लिए, संचालित कर रहे है। साध्य वस्तु, जो परम साध्य हैं परमात्मा उसमें प्रवेश दिलाने के लिए, विवेक, वैराग्य, जो दैवी सम्पद है, उसको निर्विघ्न प्रवाहित करने के लिए वह मार्गदर्शन कर रहे हैं। ह्रदय से रथी होकर। तो इस तरह भगवान कृष्ण काया से संचालित हो गए, साधक चलने लग गया, नाम जपने लग गया। नाम जपते जपते ऐसी अवस्था आ गईं कि, जो तीन नरक के द्वार थे, नरकासुर ,काम क्रोध, लोभ इन तीनो का नाश हो गया। दग्ध हो गए। हुआ कैसे,ये तीनो कब पिण्ड छोड़ते हैं? “सत्यभामा” सत्य का भान होने से।
सत्य जो विस्मृत था,वह स्मृति में आ गया। नाम जपते जपते परम सत्य, परमात्मा में सूरत स्थिर हो गई, सूरत स्थिर हो गई मतलब? स्मरण करते-करते, वह परमात्मा उस स्मृति में आ गया। कबीर कहते हैं, जप मरे अजपा मरे, अनहदहु मरि जाय, सुरत समानी शब्द में, ताहि काल न खाय। नाम जपते जपते जप मर गया, फिर अजपा आ गई, अजपा मतलब जप न करो तो भी जप चलता रहे। जैसे, रैदास जी कहते हैं, अब कैसे छूटे राम रट लागी। इसका नाम अजपा हैं, नाम नही जप रहे है फिर भी नाम जप अपने आप हो रहा हैं। अजपाहु मरी जाय, कब? जब अनहद आ गईं। हद मतलब एक सीमा होती है, अनहद मतलब सीमा से परे। जब आपका भजन सीमा से परे हो गया। सोते जागते, उठते बैठते चौबीस घंटे नाम का जप चल रहा है। इसको अनहद कहते है, फिर ये भी मरती है, कब? सूरत समानी शब्द में ताहि काल न खाय। सूरत शब्द में समाहित हो गईं। तो ऐसे ही सूरत,स्मृती नाम जपते जपते परमात्मा में समाहित हो गईं । तो काम क्रोध लोभ तीनों का नाश हो जता है। और स्मृती में वो परमात्मा प्रकट हो जाता है। सूरत, स्मृति ख्याल में वो परमात्मा आ जाता है। जब सर्वत्र परमात्मा ख्याल में आ गया। तो स्मृति में आ गया उसका भान हो गया। अंदर और बाहर सर्वत्र परमात्मा को देखने लग गया। तो सत्य का भान हो गया, इस अवस्था को सत्यभामा कहते हैं। ये भगवान की पत्नी है। ऐसा नहीं की भगवान श्री कृष्ण सोलह हजार रानी रखें थे। ये सब अंदर की बात है, कोइ भी महापुरुष द्वारा ऐसा कृत्य नहि हो सकता। जिसको सत्य का भान हों गया, सत्य जिसकी स्मृती में आ गया, वो सत्यभामा हो गया। वो कृष्ण की पत्नी हो गया, बाहर से कोइ इसका मतलब नहीं हैं। फिर क्या होगा, इस अवस्था में, काम क्रोध, लोभ जो नरक के द्वार है, इसका समूल नाश हों गया। नरकासुर का वध हों गया। अब जो सोलह हजार कन्याएं हैं कृष्ण की पत्नी हो गईं। तो ये सोलह हज़ार कन्याएं थी, ये क्या थी,मतलब? दस इंद्रियां,मन, बुद्धि, चित्त अहंकार तेज़ और पराग, ये सूक्ष्म शरीर हैं सोलह तत्वों का, इसकी हजारों प्रवृत्तियां हैं। अब सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर, कारण शरीर तीनों शरीर शांत हों गए। तीनों पर विजय प्राप्त हो गईं। तो ये सोलह तत्वों का सूक्ष्म शरीर भगवान का हो गया। ये भगवान की पत्नी हो गईं,भगवान इनके पति हों गए, स्वामी हो गए। फिर इसी को कहा गया सोलह हज़ार, सोलह कलाएं। हजारों प्रवृत्तियां अंतर्मुखी हो गईं। भगवान की प्राप्ती हो गईं, भगवान ही पति हों गए, सबकुछ हो गए। इसके बाद नरकासुर का अंत हों गया। ऐसी स्थिति आने पर क्या होता है, यमराज से पिण्ड छूट जाता हैं। ये कहानी है।यमराज लेने नही आयेगा। नरक का द्वार सदा सदा के लिए बंद हों जाता है। लेकिन यह सब अवस्था आई कैसे? दीया जलाने से। कौन सा दीया? वहीं नाम जप का दीया। बिना नाम जप के कुछ भी नहीं होनेवाला। भगवान का काया से संचालित होना, सत्य का भान होना, ये सब नाम जप से ही होता है। इसलिए दीया धनतेरस के दिन भी आज के दिन भी, कल के दिन भी, कल तो लाइन, लगेगी। तो ये दिया दीया क्या है,यही नाम का जाप दिया है।इसको ही जलाओ, जीभ से जपना शुरु करो, तब ये जलना शुरु होगा। और जलते जलते जब ध्यान पकड़ में आ जायेगा तो और, स्वास में आ जाएगा तो और गहरा जल गया। धीरे धीरे जब भगवान की प्राप्ती हों गईं नरक के कारण समाप्त हो गए। तो फिर हो गया भक्ति रूपी दीया, भक्ती रूपी मणी हों गया। मणी का दीया हो गया। पहले दीया, फिर मणी हों गया। फिर रामराज्य रूपी प्रकाश हो जाता है। प्रकाश ही प्रकाश हो जाता है, इसलिए इसे प्रकाश का पर्व कहते है। मतलब जहाँ अंधकार भरा हुआ था, वहां भगवान का प्रकाश आ जाता है। भगवान ही इस शरीर में विद्यमान होकर चलाने लगते हैं। इसलिए यहीं रामराज्य के रुप में हों जाता है। तो दस इंद्रियां मन बुद्धि चित्त अहंकार चौदहों में ईश्वरीय प्रकाश आ जाय। नाम का दीया जल जाय, ज्ञान की प्राप्ती हों जाय। तो ये नरक चतुर्दशी हैं, नरक से पिण्ड छूट जायेगा यमराज खुश हों जायेंगे, धर्मराज के रुप में। फिर कभी मृत्यु नहीं होंगी उसकी।
तीसरी कहानी है महात्मा की, महात्मा भजन कर रहे थे, इसके बाद उनके सर में जुआं पड़ गए,शरीर में कीडें पड़ गए। बाद में फिर जब उन्होंने ठीक से भजन किया तो फिर, उनका स्वरूप सुंदर हो गया।
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा।
भजन करने वाले महात्मा मतलब साधु, साधना करने वाली वृत्ती, योग का अभ्यास करने वाली वृत्ती, ये हर व्यक्ति के अंदर हैं। जब कोई योग के मार्ग पर चलता है, तो वो महात्मा हैं। तो जब योग के मार्ग पर कोई भी भक्त चलेगा, तो मनोरथ आयेंगें। भजन कर रहा है, नाम का जप कर रहा है, आश्रम जा रहा है। सब कर रहा है लेकिन, ये काम हो जाय,हमारा सब काम हो जाय, ये सब कीड़े हैं, मस्तिष्क में पड़ जातें हैं, इसी को जुआं कहते हैं। “कीट मनोरथ दारू शरीरा, जैसे लकड़ी में घुन लग जाता है, ऐसे ही ये शरीर में लग जातें है। घुन इसे कहा गया। जब कोई भजन करेंगा, महात्मा साधना में लगेगा, उसके पास ये आ जाते है। मतलब मनोरथ आने लगते हैं।तब उसके बाद नारद जी ने कहा की तुमने ठीक से आचरण नही किया, ठीक से आचरण करो, शरीर सुंदर था, सुंदर नही, रह गया,कुरूप हो गया, लेकीन जब ठीक से आचरण किए तो फ़िर से सुन्दर हो गए, इसलिए इसको रुप चतुर्दशी भी कहा गया, इसी कहानी के आधार पर।
तो जब साधक भजन करने लगता है, मनोरथों का त्याग करके।

मनोरथ क्या हैं?
जब हनुमान जी जा रहे थे,लंका में, सीता की खोज के लिए, तो एक पहाड़ था, सोने का वो निकल कर आ गया, उसने कहा, रुको यहां,विश्राम कर लो। तो हनुमान जी ने उसको छुआ और कहा नही, रामकाज किन्हें बिना मोहि कहां विश्राम। जब तक भगवान का कार्य नही होगा, मुझे विश्राम कहां। छुआ और आगे बढ़ गए। ये मन के मनोरथ ही सुंदर पर्वत हैं सोने का।
ये मनोरथ क्या है? कीड़ा है, घुन हैं । तो जब भजन करता है, साधु तो उसके मन में ये घुन लगने लगते हैं। ये बताया किसने? नारद जी ने। नारद जी हैं क्या ? नारद माने नाभि कमल की ध्वनि, जब नाम जप रहा है, स्वास पकड़ में आयेगी, भगवान अनुभव मे बताएंगे। कि ये मनोरथ आया, इसलिए आत्मा का स्वरूप कुरुप हो गया। बाहर शरीर के सुंदरता से इसका मतलब नही है। सब सुंदर सब बिरुज शरीरा, आत्मिक स्वरूप की तरफ अग्रसर है, इसलिए सुंदर है। और जब कोई मनोरथ आ गया, तो स्वरूप के विपरित चलने लगा, कुरुप हो गया, वो कीड़ा आ गया मनोरथ, कीड़े पड़ गए। तब बताया नारद ने, मतलब जब स्वास पकड़ में आई, अकाश का शब्द ही नारद है, अकाशवत हुआ चित्त, तो अनुभव मे दृश्य आ गया कि ये कमी आ गईं,जल्दी दूर करो। महात्मा जान लेता है, फिर ठीक सै भजन किया, संयम किया, और इसके बाद महात्मा सुंदर हो गए। रूप चतुर्दशी, मतलब आत्मस्वरुप की तरफ अग्रसर हो गया, तो सुंदर हो गया। इसलिए इसे रूप चतुर्दशी कहते हैं। दस इंद्रियां मन बुद्धि चित्त अहंकार चतुर्दस, इन्ही के द्वारा रूप बिगड़ता है,और सुंदर होता है। जब मनोरथ की पूर्ती में लग गए, चौदहों तो कुरुप हो गए, कीड़ा पड़ गया, जब संयमित होकर भजन में लग गए , सुंदर हो गए, आत्मस्वरुप के तरफ अग्रसर हो गए। फिर यमराज पीछा छोड़ देगा। खुश हो जायेगा, अर्थात् यमराज फिर धर्मराज हो जाएंगा ,वो बदल जाएंगा। लेकीन ये सारी प्रक्रिया सिर्फ दीया जलाना हैं। इसलिए दीपावली के ये चार पांच दिन सिर्फ दीया जलाओ, बस दीया जलाओ। सब लोग पूछते हैं कि ये दीया क्यों जलाते हैं। दीया जलाना इसलिए रक्खा गया। कि इस दिए को अपने अंदर जलाना हैं, और दीया जलाते जलाते खुद हि जल जाओ योग की अग्नि में। प्रज्वलित हो जाओ। नाम जपते जपते खुद ही दीपक बन जाओ। जब खुद दीपक बन जाओगे,तो यमराज भी खुश भगवान भी खुश, सब कुछ खुस ही खुश।
भगवान की प्राप्ती हों जाएगी, इसलिए बाहर दिए रखे जाते हैं।, ताकि भीतर वाला दीया जले। आत्मा की जागृति हो। ये सब नाम जप से ही संभव है, बिना नाम जपे सब कुछ भी नहीं होनेवाला। इसलिए ॐ चाहे राम किसी एक नाम को जीभ पर रखो। जपना शुरु करो पंद्रह मिनट रोज, दीया जलने लगेगा। फिर एक ऐसी स्थिति आ जायेगी, अप्प दीपो भव, जानत तुमहि, तुमहि होई जाई। खुद के दीपक हो जाओगे। ज्ञानस्वरूप हो जाओगे। शरीर, मन और इंद्रिय परमात्मा के तरफ प्रवाहित हो जायेगा। तब उसका नाम ज्ञान की ज्योति हैं।
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: ॥ १७ ॥

उस परमतत्व परमात्मा के अनुरूप प्रवाहित हमारी, इंद्रियां हो, उस परमतत्व परमात्मा के अनुरूप हमारी बुद्धी हो, उसी में हमारी निष्ठा हो उसी में प्रवाहित मन हो, और उसी में एक भाव से हमारी रहनी हो। इस अवस्था का नाम ज्ञान हैं। ज्ञान मतलब ईश्वर के निर्देशन में चलते चलते हमारा शरीर, दशो इंद्रियां मन बुद्धि चित्त अहंकार सब ईश्वर की ओर प्रवाहित हो जाए। लौ की तरह , जैसे दिए का लौ ऊपर की तरफ प्रवाहित रहती है। उसी तरह ये शरीर मन बुद्धी परमात्मा के तरफ ऊर्धमुखी प्रवाहित हो जाय। ज्ञान प्रज्वलित हो जाय। जिसको जानना चाहते हैं, उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाय। इसलिए इसे, ज्ञान का, दीया, लौ, ज्ञान का दीपक कहते हैं।”सोहमश्मी”वह ब्रह्म मैं हू, इस तरह की अनुभूति हो जाय। कहने की बात नहीं, उसकी अनुभूति हो जाय। तुम स्वयं दीपक बन गए। अब श्रृष्टि में जो कुछ भी हो वह तुम्हीं हों। इसका मतलब परमात्मा के स्वरूप बन गए। इसको कहा गया, दीया, यहां जाकर नरक के जो मूल कारण हैं, चतुर्दश दशो इंद्रियां, मन बुद्धि चित्त अहंकार समाप्त हो जातें हैं। यमराज सदा सदा के लिए पीछा छोड़ देता है। इसलिए नरक चतुर्दशी के दिन यमराज के लिए दीया रखो। दिए रखते हैं, चारो दिशाओं पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण में। अभी तो एक दिए में ही चार बत्ती रख दिए जाते हैं। पूरब का मतलब पूर्व के संस्कार काटो, पूरब दिशा। जब भगवान सुमेर पर्वत पर बैठे, सुमेर पर्वत की झांकी जो बताया गया, पूरब दिशी अवलोकी प्रभु बोले कृपा निधान, पूरब दिशा की तरफ देखते हैं। चंद्रमा दिखाई दे रहा है, जिसमे दाग दिखाई दे रहा है। फिर दक्षिण दिशा की तरफ़ देखते हैं, तो वहा रावण की सभा लगी हूई है। तहा दशकंधर देखि अखाड़ा, वहां रावण के दरबार में नाच गाना चल रहा है, दक्षिण दिशा में, ये दृश्य है। तो पूरब दिशा में उगे हुए चंद्रमा मे जो काले धब्बे है उसको देखकर भगवान पूछते हैं कि ये क्या है? तो दक्षिण दिशा और पूर्व दिशा का अवलोकन किया।
पूरब दिशा मतलब पूर्व के संस्कार, जो नरक के कारण हैं। उनको समाप्त करना। नाम जपते जपते पूर्व के संस्कार कटते हैं। तो एक दिया पूरब के तरफ रखते हैं, कि पूर्व के संस्कार कट जाय। एक दीया दक्षिण दिशा की तरफ।
दक्षिण मतलब भविष्य , जहां भगवान को रावण से युद्ध करना हैं। रावण क्या कर रहा है, भविष्य की गतिविधि की जानकारी ले रहे हैं।भविष्य के संस्कार भी कट जाय। नाम जपते जपते साधक को भविष्य की जानकारी मिले ताकि आनेवाले संस्कारो को भी काटा जा सके।अतीत के संस्कार कटते जा रहे है, उसकी भी जानकारी मिल रहे है। पश्चिम माने वर्तमान, इस समय की क्या परिस्थिती है, क्या आनेवाले हैं, उसको भी नाम जप से आप काटे। इस सबको भगवान बताते रहते हैं।इन तीनों से जब साधक ऊपर उठ जायेगा, तो चौथी अवस्था है उत्तर दिशा जिसको ऊर्ध्व रेता स्थिती कहते हैं, तुर्या अवस्था कहते हैं ।
ऊर्ध्व रेता मतलब “तन्निष्ठास्तत्परायणा, सभी इंद्रिया मन एक लौ की तरह उस परमतत्व परमात्मा की तरफ़ प्रवाहित हो गया। ये ऊर्ध्व रेता स्थिती है। चारो दिशाओं में यमराज से मुक्ती। इसलिए चार दिए जलाए जाते हैं। इसी को नरक चतुर्दशी कहा गया। लेकिन सबका संबंध भागवान से है, नाम जप से हैं।

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