नवरात्री, नौ दिन की पूजा है?

नवरात्री नौ दिन की पूजा है, लोग नौ दिन के लिए व्रत करते हैं, उपवास भी रखते हैं।और बहुत हर्षोल्लास के साथ इस त्यौहार को लोग मनाते हैं,पूरे देश के अंदर।इसके बाद फिर दशहरा आता बीवी है। लेकिन कहानी दोनों की अलग-अलग है। दशहरे की कहानी है, कि इस दिन भगवान राम ने रावण पर विजय प्राप्त की,और उसी ख़ुशी में अयोध्या वासियों ने इस त्योहार को मनाया। लेकिन नौ दुर्गे या देवी पूजा का शास्त्रों में कोई प्रमाण नहीं मिलता है, कि यह कब से, चली कैसे उत्पन्न हुई, किसने शुरुआत किया इसका। किसी शास्त्र में इसका कोई उल्लेख नहीं है। दीपावली और दशहरे का तो अयोध्या से संबंध है, लेकिन, नौ देवी का कोई प्रमाण नहीं है,लेकीन जब देवी, देवता भगवान का नाम आया, तो अवश्य कुछ न कुछ तो है।अब देखते हैं कि क्या है, देवी पूजा?
वास्तव में जो समग्र स्थित अस्तित्व है, जिसमे संपूर्ण ब्रह्मांड है। उसको परमतत्व कहते है, परमात्मा, ईश्वर कहते हैं, और उनकी जो शक्ति है, उसको देवी कहते हैं, ईश्वरीय शक्ति,अविनाशीनी एवं आदि शक्ति कहते है। उस देवी का जो प्रतीक है, स्त्री को माना गया। देवता, या भगवान का प्रतीक पुरुष को माना गया। भगवान या महावतार जो भी हुए पुरुष के रूप में हुए हैं। देवी अवतार हुईं तो स्री के रूप में। अर्थात् जो स्री महापुरुष हुई वो दैवी के रूप में पूज्यनीय हुई। और जो पुरुष महापुरुष हुए, वो देवता के रूप में पूज्यनीय हुए। पूरी सृष्टि में जो पूजा हुई, इन्ही दोनों की हुई, शक्ति और शक्तिमान के रूप में। स्त्रियां कम महापुरुष हुई इसलिए इनके बारे में शास्त्र कम लिखें गए।पुरुष महापुरुष ज्यादा हुए, उनमें भी क्षत्रिय महापुरुष अधिक हुए दुनियां में। सबसे ज्यादा इतिहास उन्ही का है।संसार में परमतत्व की खोज सबसे ज्यादा इन्होंने ही किया। इसके पश्चात अन्य जातियों के अंतर्गत भी परमात्मा की खोज हुई, लेकिन संख्या क्षत्रियों की ज्यादा रही। जो बड़े, बड़े महापुरुष हुए, जैसे भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध और ऐसे ही कुछ और ये सब क्षत्रिय वंश में हुए। शंकराचार्य और कुछ और ये सब ब्रह्मण और अन्य जातियों से भी हुए। महापुरुषों का जातियों से कोई संबंध नही है। एक प्रक्रिया रहती है, समाज की, चाहें किसी भी समाज में आप रहो, भावनाऐं ही उस तरह की हो जाती हैं। उसका भी असर होता हैं। क्योंकि क्षत्रिय राजा हुए अधिक, उन्होंने विषय भोग ज्यादा किया इसलिए उनका राज काज से मन ऊब गया। वैराग्य हो गया, चले गए तपस्या के लिए, इसलिए इनकी संख्या बढ़ गईं। दुसरे लोगों ने वो वस्तु देखी ही नही थी, जो राजाओं के पास थी। दूसरों के पास थी ही नहीं, विषय भोग की वस्तुएं इसलिए उनको यहां तक पहुंचने के लिए अधिक समय लगा।
ये सामाजिक रूपरेखा है, वास्तविकता नही है। पर इतिहास ऐसा ही है।अध्ययन करने पर पुराणों का महाभारत का तो ऐसा ही लगता है।पुरुष जो महापुरूष हुए वो देवता के रूप में प्रसिद्ध हुए, पूरे विश्व में। स्त्रियां महापुरूष हुई तो देवी के रूप में जानी गईं। परन्तु इन दोनों का जो ईश्वरत्व हैं या महानभाव, परमात्म भाव जो इनको उपलब्ध हुआ, वह परमात्मा ही है,एक हि तत्व है,जो परमतत्व है, और उसकी शक्ति एक दूसरे से अलग नहीं है। जैसे व्यक्ति होता है, उसकी वाणी होती है,सब कुछ उसी का है उसी के अंदर होता है। वैसे ही शरीर रूप में स्त्रियां और पुरूष अलग अलग है लेकिन आत्मतत्व ईश्वर का एक ही होता है। इसलिए जो देवी शक्ती है, आदि शक्ती हैं, अनादि शक्ती है, उसी को देवी कहा गया। और जो शक्तिमान है, उसी को परमदेव परमात्मा कहा गया। तो जिन स्त्रियों ने तपस्या करके परमात्मा को प्राप्त किया, उनकी प्रतिमा बनी उनकी पूजा हुईं देवी के रूप मे। जैसे पार्वती है, सीता है, इनका देवी के रूप में मान्यता है। पुरे देश में इनको देवी के रूप में माना जाता है। ठीक इसी, तरह, भगवान राम, है भगवान शंकर है, भगवान श्री कृष्ण हैं , ये सब एक देवता के रूप में है। जब तक ये शरीर रूप से थे,लोगो के बीच, जो जानते थे, वो मानते थे। कुछ दिन तक ऐसे ही पूजा हुई।बाद में इनकी प्रतिमा (मूर्ती) बनी। फिर मूर्तियों की पूजा होने लगीं। तो वातविकता यह थीं कि, इन महापुरुषों ने जिस नाम को पाया, जिस रूप में ईश्वर को पाया, जो एक निश्चित विधि थी, जिसके अनुसार चलकर इन्होंने ईश्वर को प्राप्त किया।
फिर उस विधि को,उन्होने अपने शिष्यों से बताया। और उन्होंने उनके शिष्यों को। ये शास्त्र के रूप में थीं। जिसको गीता कहते हैं।गीता जो सम्पूर्ण महापुरूषों की सम्मिलित वाणी, या यूं कहिए कि भगवान श्री कृष्ण ने सबकी बात को अपने भाषा में प्रस्तुत किया। को जो कह रहें हैं, इनके पहले जो महापुरूष हुए उन्होनें ने भी वहीं बात कही। शास्त्र को प्रमाणित महापुरूष करते हैं, और महापुरूष को प्रमाणित शास्त्र करते हैं।
और अगर महापुरूष जो बोल रहा है, शास्त्र उसे नही प्रमाणित कर रहा है। तो महापुरूष अभी पूर्ण महापुरूष नहीं हैं। पहुंचा हुआ साधु नहीं हैं।क्योंकि उनकी बात अभी पूर्व के पहुंचे हुए महापुरूष से नही मिल रहीं है। तो वो अभी उस स्थिति को उपलब्ध नहीं हुआ है कि किसके विषय में वो बात कर रहा है।इसलिए शास्त्र परीक्षण है।
अतीत में जितने महापुरूष हुए, उनकी वाणी गीता हैं। उन्होनें हमे प्रमाण दिया है कि हमने ईश्वर को देखा है, उसका ये मार्ग हैं। फिर इसके बाद भी जितने महापुरुष हुए सबने गीता का ही समर्थन किया । सभी महापुरुषो ने जिस एक सत्य को देखा, उसके विषय में जो जानकारी दी, ईश्वर प्राप्ती का जो उपाय बताया, वह गीता ही है। तो बाद का महापुरूष भी अगर उसी सत्य का समर्थन करता है,अपने अनुभव के आधार पर तो समझिए कि वह महापुरूष पूर्ण सत्य है, पहुंचा हुआ महापुरूष है। अगर पूर्व सत्य का जो शास्त्र लिखित सत्य हैं,उससे हटकर एक नया मार्ग चलाता है, तो वो महापुरूष नहीं हैं। लेकिन अगर भाषा का अन्तर हैं, प्रस्तुत करने की शैली का अन्तर है,तब वो गीता से अलग नहीं है। जैसे कबीर बीजक हुआ, महात्मा बुद्ध की वाणी हुई, भगवन महावीर की वाणी हुई ,और तुलसी दास जी का रामचरित मानस हुआ। रामकृष्ण परमहंस की वाणी हुईं, ये सब गीता से अलग नहीं है। इन लोगो ने गीता की ही बात को अपनी भाषा मे उस जगह उस स्थान के लोग जैसे समझ सकते थे, उसी भाषा में उसी सत्य को प्रस्तुत किया। ये लोग गीता के बाहर नहीं हैं।
परन्तु जिनकी बातें गीता से नही मेल खाती हैं। वो लोग गीता से बाहर हैं, और वे महापुरूष नहीं हैं। उनको महापुरूष नहीं माना जा सकता। इसलिए किसको माने, किसको न माने गुरू के विषय,में ईश्वर के विषय में शास्त्र ही हमारे सामने प्रमाण है। शास्त्र माने कुछ और नहीं केवल गीता। वेद व्यास जी ने चारों वेदों को लिपिबद्ध किया, हजारों साल से, वेद, उपनिषद ब्रह्मसूत्र जितना भी ज्ञान था , सब श्रुति स्मृति थी। सुनें स्मरण करें और स्मृती में धारण करें। इस तरह की प्रक्रिया लाखो साल से चली आ रही थी। कागज और कलम का अविष्कार नही था। लिखनेवाली कोई प्रक्रिया नहीं थी। गुरुकूलों में पढ़ाया जाता था। शिष्य लोग सुनते थे। जिनको ब्रह्मविद्या का आचरण करना होता था। वो संन्यास धारण कर लेते थे। जिनको घर में रहना था, उसी बात को याद करके गृहस्थ जीवन में रहते थे, फिर गृहस्थी का भार जब हल्का हो जाता था,चौथे पन में,जाकर के सन्यास लें लेते थे। राजाओं ने अधिकतर यहीं किया। उनके उत्तराधिकारी हो गए उनको राज्य का भार सौंपकर बन को चले गए। और इसलिए अधिक से अधिक राजा महापुरूष हुए। महाभारत और भागवत में राजाओं की लम्बी श्रृंखला हैं। जितने भी पुर्व में महापुरूष हुए, उस सत्य को पाया, उन्होनें जो कुछ भी बोला वो सब गीता ही हैं।
गीता का जो विस्तार था , वेद था।विस्तार का मतलब होता है, कि कोई भी महात्मा, बात तो एक हि बतायेगा, कि कैसे ईश्वर को प्राप्त करना है,नाम कैसे जपना है, इंद्रिय संयम कैसे करना है। बात तो इतनी सी ही है। लेकिन इसमें कई प्रकार की उस समय की जो स्थितियां थी,रूपरेखा थी, समाज की,इतने ज्यादा उदाहरण दे दिए कि यह बहुत बढ़ गया। कुछ लोकरीति भी इसमें भर दी गईं, कि कैसे जीना है,इस संसार में। क्योंकि जो लोग रहते थे संसार में वो लोग भी महात्मा के पास ही जाया करते थे,, उनसे अपनी समस्या के बारे में पूछा भी करें कि क्या करे, कैसे घर में रहें क्या व्यवहार करें, अपने बंधुओ के साथ? कैसे पास के राजा से दुसरा राजा व्यवहार करे। तो ये सब ज्ञान भी वेदों में था। उसको कर्मकांड कहा गया, जीविकोपार्जन का साधन। ईश्वर प्राप्ती का जो साधन था, उसको ज्ञानकांड कहा गया। इसको उपनिषद कहते हैं। और उपनिषदों का भी जो सार है, वह गीता हैं।उपनिषदों में भी मनुष्य के आचरण की वस्तु है, लेकिन बहुत कुछ पढ़ने की आवश्यकता नहीं है । सामान्य व्यक्ती इतना पढ़ भी नही सकता है। इतना समय भी उसके पास नही है। इसलिए भगवान श्री कृष्ण ने इसमें से भी जो केवल आचरण करने वाली बात है , जिसको मनुष्य थोड़ा करे और ज्यादा पा लें। उसको गीता के रूप में प्रस्तुत किया। आज से 5200 साल पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने गीता उपदेश के रूप में अर्जुन के प्रति कहा। और महर्षि वेदव्यास ने इसको महाभारत में एक अध्याय के रूप में अलग से लिखा। बाद में वो महाभारत से निकाल ली गईं। इसी को महर्षि वेद व्यास जी ने कहा कि मनुष्य के आचरण के लिए यहीं उसका धर्मशास्त्र हैं। किसको क्या करना है, क्या नही करना है, किस तरह किसको ईश्वर मानना है । कहा पर ईश्वर की पूजा करनी हैं, कहा नहीं करना है। कौन गुरू है कौन नही है। महापुरूषो के द्वारा जो बताई गईं, वही बात गीता में हैं। वही बात भगवान श्री कृष्ण ने बताई, उसी को महर्षि वेदव्यास ने
लीपिबद्ध किया। इसलिए गीता अपने में पूर्ण धर्मशास्त्र हैं। तो ये ज्ञान परंपरागत पुर्व से जबसे श्रृष्टि का आरंभ हुआ,तब से चला आ रहा है, मनुष्य के अंदर सभ्यता आई, सोचने समझने की शक्ती आई, बुद्धि काम करना शुरु किया, जब अपने शरीर से बाहर उसने सोचना शुरु किया, तो अध्यात्म की आवश्यकता पड़ी। जब तक वो शरीर की अवश्यकता की पूर्ति में लगा हुआ है। तब तक उसको धर्म के संबंध में ज्यादा विचार उत्पन्न नहीं होते। और जिसकी आवश्यकताएं पूरी हो गईं लगभग, तो उसके मन में फिर विचार उत्पन्न होता है कि ईश्वर भी है। ईश्वर के विषय में भी कुछ सोचना चाहिए, कुछ करना चाहिए। इसीलिए धर्मशास्त्र हैं,समाज के सामने। धर्मशास्त्र से ये पता चलता है,कि पूर्व के ऋषियों ने कैसे आचरण किया, कैसे ईश्वर को प्राप्त किया। अगर हमे ईश्वर की तरफ जाना है, तो इसका अध्ययन करना चाहिए उसको समझना चाहिए, उसको आचरण में ढालना चाहिए। और इसके बाहर कदम भी नहीं रखना चाहिए। शास्त्र को भली प्रकार समझकर फिर जैसे,जैसे गीता मे कहा है, वैसे, वैसे आचरण करना हमारा कर्त्तव्य हैं। क्योंकी ये शास्त्र हमारे ही पुर्व के ऋषियों द्वारा, हमारे ही पूर्वजों द्वारा अपनी तपस्या के परिणाम में प्राप्त किए गए । तपस्या के आरम्भ में नहीं, तपस्या पूरी हो गईं, ईश्वर को उपलब्ध हो गए,तब । उस ईश्वर ने जनकल्याण के लिए कुछ बाते उनको कहीं, और उन्होनें उसको संकलित रखा। स्मृती में रखा। श्रवण किया और याद रखा। महर्षि वेदव्यास ने उसे लिपिबद्ध किया। तो इसलिए शास्त्र प्रमाण होता है, मनुष्य के कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में। और आप पाएंगे,कि जिस प्रकार की पूजा पद्धति चल रहीं है, समाज में, शास्त्र गीता में कहीं भी इसका उल्लेख नहीं है।
क्योंकी जब गीता का ज्ञान प्रचारित रहता है पुरे समाज में, जब गीता छा जाती है, उसकी बाते जब लोगो की स्मृति में आ जाती हैं,तब तमाम प्रकार की पूजा पद्धतियों का कोई स्थान नहीं रह जाता। क्योंकी पूजा पद्धतियां तो उस ज्ञान का अभाव हैं। जो वास्तविक ज्ञान है, जब उसको लोग नही जानते हैं, तब परंपराएं, पूजा पाठ , फिर किसी की भी पूजा पाठ चल पड़ती हैं। जब ज्ञान से हमलोग दूर हों जाते हैं, जिसकी उपलब्धि पुर्व के महापुरुषो ने की थीं, उनके ज्ञान से वंचित हो जातें है। तब हम अपने मन से, या किसी और के मन से पूजा करने लगते हैं। जैसा जो बताता है उसके हिसाब से चलने लगते है। तो धीरे धीरे वो परम्परा और रूढ़ी हो जाती है।बाद में लोग इच्छाओं की पूर्ति तो करते हैं। लेकिन इच्छाओं की पूर्ति तो उसके श्रद्धा की देन है। किसी देवी या देवता की देन नहीं है। क्योंकी ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, और उसके अंदर भी है। और उसके श्रद्धा के अंदर भी है। क्योंकी ईश्वर की उपस्थिति के बिना कोई श्रद्धा कर ही नहीं सकता है। मूर्दे लोग श्रद्धा कर ही नही सकते, जीवित व्यक्ती ही श्रद्धा कर सकता है। और जीवित व्यक्ति का मतलब है, वो ईश्वर की उपस्थिति का ही प्रमाण है। जीवित व्यक्ती का तात्पर्य है, की उसके अंदर जो जीवन है, वो ईश्वर ही है।और जब तक वो सोचेगा,वह ईश्वर की ही शक्ती से सोचेगा। तो श्रद्धा जहां भी स्थिर करता है। श्रद्धा के अंदर जो शक्ती जाती है, वो ईश्वरीय शक्ती ही है। उसे ही देवी कहते हैं। तो जहां जहां मनुष्य की श्रद्धा टिकती है, वहां मैं ही हु । देवता नाम की कोई सत्ता है ही नही। उसकी श्रद्धा की पूर्ति मैं ही करता हूं। वो अविधिपूर्वक है, इसलिए श्रद्धा भी नष्ट होती है, भोगनेवाला भी नष्ट होता है, और देवता भी नष्ट होता है।
तो विधी क्या है? विधी गीता हैं। पूर्व के जितने भी महापुरूष हुए, जिनकी हम पूजा करते हैं, धर्म के नाम पर जिनका हम नाम लेते हैं, देश विदेश में जिनकी चर्चा हम सुनते हैं, जिनकी वाणी प्रमाण है , उनका हम जब नाम लेते हैं। तो उन्हीं के अनुसार बाहर कोई देवता नहीं हैं। जो कुछ भी है,अंदर है।
जैसा हमने बताया कि जिस महापुरूष ने ईश्वर को प्राप्त किए उनकी जो स्मृतियां है, वह देवता के रूप में हैं।और जो स्त्रियां ईश्वर को प्राप्त किया वो देवी के रूप में है। लेकिन जो उनकी महानता है, जो उनका ईश्वर भाव है, उनका देवता होना या देवी होना हैं यह उनकी तपस्या,भजन से सिद्ध हुआ। और उन्होेंने उपदेश के रूप में आपको शास्त्र दिया। कि आप पूजा करने में ही मत उलझ जाओ, जो आचरण हमने किया है, वह आचरण करों। इसके लिए ही हमने शास्त्र समाज को दिया है। तो लोगो ने शास्त्र सम्मत आचरण तो बंद कर दिया, उसका पूजा करने लगे। उनकी फोटो बनाई उनकी मूर्ति बनाई पूजा करने लगे,अब पूजा इतनी ज्यादा हो गईं कि अब भूल गए की कोई देवी किस तरह से तैयार होती है,या कोई देवता कैसे बनता है। मनुष्य ही बने न। पूजा जो हो रही है देवी की, वो स्त्री की ही प्रतिमा है, या जो देवता है, पुरूष की प्रतिमा है। वे ये भूल गए की वे स्थिती कैसे पाए। केवल पूजा हमारे हाथ में रह गईं। इसी को लोग भ्रान्ति कहते हैं,इसी को अज्ञान कहते हैं। भगवान कृष्ण ने गीता में इसी को अज्ञान कहा। अर्जुन ने जब कहा जाति धर्म सनातन है, कुल धर्म सनातन है, परंपराओं को जब सनातन मानने लगा। भगवान को कहना पड़ा कि ये अज्ञान है। जिसको अर्जुन धर्म मानता था, उसी को भगवान ने कहा कि ये अज्ञान है। तुम्हें ये अज्ञान कहा से उत्पन्न हो गया। फिर धर्म क्या है? तब उन्होंने बताया कि सत्य का अभाव नहीं है, और असत्य का अस्तित्व नहीं है। तो क्या है सत्य? तो बोले आत्मा ही सत्य है, शाश्वत है सनातन है। किसने देखा? तत्वदर्शियों ने देखा। हमने देखा और हमसे पूर्व महापुरुष हुए उन्होंने देखा। सत्य और असत्य का अन्तर, आत्मा और शरीर का अन्तर। और देखकर ही हम तत्वदर्शी हुए। पुर्व में जितने भी महापुरूष हुए सत्य और असत्य को जानकर ही तत्वदर्शी हुए,आत्मा एवं शरीर के अन्तर को जानकर ही तत्वदर्शी हुए। चाहें वो देवी हुए हो या देवता हुएं हो।
तो बात ये है कि जो देवी की पूजा है, ये किस तरह से है कहां है ? जैसा मैने बताया कि आदिशक्ति हैं,उसको देवी कहते हैं। और जो अदिपुरुष हैं, उसको देवता कहते हैं,परमात्मा कहते हैं।तो ये दोनों अलग अलग नहीं हैं। एक ही आत्मा के नाम हैं, आत्मा और उसकी शक्ती, परमात्मा और उसकी शक्ती। ये परमात्मा कहां रहता है ? हमारे आपके अंतःकरण में । जैसा गीता में बताया गया है कि..
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।18.61।।

ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियों के ह्रदय में अंतःकरण में रहता है।जब परमात्मा हमारे ह्रदय में रहता है, तो उसकी जो शक्ती है, आदिशक्ति हैं वो भी हमारे ह्रदय में होना चाहिए। क्योंकी शक्ती शक्तिमान से अलग नहीं हो सकती। हमारी शक्ती हमसे अलग नहीं हो सकती। मतलब तदात्म हैं, वे एक दूसरे से अभिन्न हैं। तो परमात्मा और उसकी शक्ती,जब परमात्मा हमारे अंदर हैं, तो उनकी शक्ती, देवी भी हमारे अंदर हैं। परन्तु वो किस परिस्थिती में है ? माना कि हमारे अंदर ईश्वरीय शक्ती है , माना कि हम ईश्वर के अंश हैं, जीव हैं। जीव और ईश्वर का मतलब आप समझ लीजिए। जीव मतलब अविकसित ईश्वर, जो विस्तार को प्राप्त नहीं हुआ है वो ईश्वर। और ईश्वर मतलब विकसित जीव। भगवान महावीर स्वामी ने कहा है, कि ईश्वर को न माने भी तो क्या फर्क पड़ता है? जब आत्मा ही परमात्मा है।
तपस्या करके जब वे परम भाव को उपलब्ध हुए।तो उन्होंने कहा कोई परमात्मा नहीं है। जो आत्मा है, जीव है, वही ईश्वर है। और अगर केवल जीव को ही ईश्वर मान लिया जाय तो कोई आपत्ति नहीं है। तो उनका जो सिद्धांत है , वो इस बात की तरफ इंगित करता है की जीव ही ईश्वर है,तपस्या के परिणाम में। जब तपस्या, भजन आरम्भ नहीं किए तो वही ईश्वर जीव के रूप में है। लेकिन वही जीव जब साधना करता है,तपस्या करता है,तो ईश्वर के रूप में हैं। उसी का जब विकास होता है, उसके अंदर जब दैवीय गुण,ईश्वरीय शक्ति, देवी शक्ती विकसित होती हैं, तो वह ईश्वर के रूप में है। परमात्मा के रूप में है। जब तपस्या नहीं कर रहा है, तो बेचारा वो जीव के रूप में है। तो हमारी जो दैवी शक्ती है,ईश्वरीय शक्ति है, आदि शक्ती है, इसकी क्या स्थिती है? रामचरित मानस में शक्ती और शक्तिमान तत्त्व को राम और सीता के रूप में तुलसीदास जी ने प्रस्तुत किया।सीता और राम के विषय में उन्होंने लिखा,राम ब्रह्म व्यापक अविनाशी”
राम कौन हैं? वह परमात्मा है, जो व्यापक है ब्रह्म है, जो आदितत्व है, उसको वो राम कहते हैं। और सीता कौन हैं? आदिशक्ति जेहि जग उपजाया, सोई अवतरही मोरि यह माया।
सीता कौन हैं ? वही आदिशक्ति।जिसने संसार की उत्पत्ति की है। वहीं आदिशक्ती सीता के रूप में हैं। तो ये प्रतीकात्मक रूप में रामचरित मानस में बताया। कि जो आदिशक्ति है, वे सीता के रूप में हैं। और जो परमपुरुष परमात्मा हैं वो राम के रूप में है। तो उसमे जो चरित्र चित्रण किया है कि, सीता हैं, जिनका जनक जी के यहां जन्म हुआ , उसके पश्चात राम से उनका विवाह होता है। फिर वनवास होता है, पंचवटी से उनका अपहरण होता है। फिर रावण के यहां लंका में अशोक वाटिका में उनका निवास होता है। फिर राम के द्वारा रावण पर विजय प्राप्त की जाती है। और इसके पश्चात पुनः सीता से राम का मिलन होता है। तो ये पूरा जो रामचरित मानस है,एक साधना है । इसको हम नौ देवी उपासना भी कह सकते हैं , ईश्वर प्राप्ती की साधना भी कह सकते हैं। और इसको देवी उपासना भी कह सकते हैं। क्योंकी अगर देवी ईश्वरीय शक्ति है, तब तो वो आध्यात्मिक उपासना हो गईं। और अगर आप देवी को बाहर मानते हो तो वो अलग प्रक्रिया हो गईं। ये फिर है ही नही सत्संग में,ये बनावटी चीज है, फिर उसका अनुष्ठान, उसकी परंपराएं उसका कर्मकांड बहुत प्रकार का है। वो कामानाओं की पूर्ती के लिए है, वो देवी की पूजा के लिए नहीं है। वास्तविक देवी, ईश्वरीय शक्ती है। जिसको सीता कहा गया, पार्वती भी कहा गया। सीता जी की जो दशाएं देखते हैं, कि राम के साथ हैं, फिर राम से अलग हैं, और फिर राम के साथ हैं। जब राम से अलग हैं तो रावण के पास हैं, और जब रावण मर गया, तो फिर राम के साथ हैं। तो इसी ईश्वरीय शक्ति को देवी कहते हैं। ईश्वरीय शक्ती किस तरह से है? तो वास्तव में हमारे शरीर में हमारे हृदय में ईश्वर का निवास है, जहां पर ईश्वर है वही पर ईश्वरीय शक्ती भी है। लेकिन ये ईश्वरीय शक्ती संसार में व्यय है, क्षीण हो रही है। किस तरह क्षीण हो रही है? जैसे हमारे शरीर में नौ इन्द्रियां हैं, आंख देखती हैं, कान सुनते है, त्वचा स्पर्श करती है। जीभ से स्वाद लेते हैं,हम। ऐसे ही शरीर में जो दूसरे कार्य करने के लिए अंग हैं, उससे कार्य करते है। किसी ने इसे दस इंद्रियां कहा है, तो किसी ने इसी को नौ इन्द्रियां कहा है। गीता में इसी को नौ द्वारों वाला शरीर कहा है। इन इन्द्रियों का बाहर संसार से संबंध हैऔर भीतर हमारे आत्मा से सम्बंध है। आत्मा कहिए परमात्मा कहिए, इससे सम्बंध हैं। बाहर की सूचना अंदर आत्मा को मिलती है। और फिर उस विषय में हम प्रवृत्त होतें हैं। तो जिस विषय के बारे में हम सोचते हैं , हमारी इंद्रियां देखती हैं, हमने विचार किया । विचार करते करते उसकी उपलब्धि के लिए हम कार्य में प्रवृत्त हुए। तो इसमें हमारी शक्ती व्यय हो जाती हैं। किसी भी सोच में किसी भी विचार में आप पड़ेंगे, तोआपकी शक्ति क्षीण होती रहती है। अब वो शक्ती जो क्षीण हो जाती है। तो एक एक इच्छा एक एक विचार क्या है ? एक एक शरीर है। इसके कारण ही हमे जन्म पर जन्म लेने पड़ते हैं। किसी कार्य के विषय में हमने सोचा, कोई पूरा हुआ कोई पूरा नहीं हुआ। तो जो नहीं पूरा हुआ उसको सोचते सोचते हमारा शरीर छूटा। फिर जन्म हुआ फिर उस कार्य में लग गए। तो अनन्त जन्मों से यही प्रक्रियां चली आ रही हैं। हमारी जो शक्ती हैं, संसारिक विषयों में क्षीण हो रही है, व्यय हो रही है। किसके माध्यम से ? इन्हीं नौ इन्द्रियों के माध्यम से। आंख के माध्यम से, कान के माध्यम से। जो कुछ हम सोचते है, जिस वस्तु को हम प्राप्त करना चाहते हैं, प्राप्त नहीं होती, बल्कि हम खुद ही खो जातें हैं। संसार में प्राप्त करते, करते प्राप्त करने वाला ही खो जाता हैं। फिर मर जाता है, फिर जन्म लेता है। फिर वही प्राप्त करने की प्रक्रिया चालू हो जाती हैं। तो ये जो अनन्त शक्ती का भण्डार है, जो परमात्मा की अनन्त शक्ती हैं, जीव की अनन्त शक्ती है,वो संसार के विषयों में क्षीण हो रही है, उसी में व्यय हो रही है। इसलिए हमारा चित्त अशांत रहता है। उसका माध्यम क्या है? यहीं नौ इंद्रियां है। तो ये नौ देवी की पूजा करने का तात्पर्य है, कि इन नौ इन्द्रियों को पूरा करो। इनकी इच्छाओं की पूर्ति करो। तो इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो सकती।इच्छाओं का त्याग करना पड़ेगा, तब पूरा होगा। पूरा होने के लिए तो इच्छाओं का त्याग करना पड़ेगा। इसलिए नौ इन्द्रियों का संयम करो। शक्ति को पूर्ण करने का मतलब है, देवी की पूजा। ईश्वरीय शक्ति है वो अपूर्ण है। हम इच्छा करते है, पूरी हो जाती है, फिर इच्छा करते हैं। हमारी शक्ती इच्छा करती है, इच्छा पूरी हो गई, फिर इच्छा करते हैं, तो शक्ती अपूर्ण है, हम अपूर्ण हैं, हमारा शरीर अतृप्त है। इच्छा करते हैं, वस्तु मिलती है, फिर भी इच्छा उत्पन्न हो रही है। कभी ऐसा समय नहीं आता कि इच्छाएं पूरी हो गई। तो ये क्या है?
ये अपूर्णता है। ये शक्ति की अपूर्णता है, ये हमारी अपूर्णता हैं, ये जीव की अपूर्णता है। तो इसी शक्ति को पूर्ण करने का नाम हैं, देवी की उपासना। देवी की पूजा। ये जो आदिशक्ति है हमारे अन्तःकरण में इसको जो पूर्ण करने का जो कार्य हैं, वो है देवी की उपासना। इस देवी शक्ति को पूर्ण करो। ये नौ इन्द्रियों के माध्यम से बाहर विकृत हैं, फैली हुई हैं। इंद्रियों का संयम करोगे, तो देवी की उपासना आरंभ हो जायेगी। इंद्रिय संयम किसके द्वारा होता है? जिसने इंद्रिय संयम कर लिया है, जो जितेंद्रिय महापुरूष हैं,जिनकी शक्ति उनके पास है। इसलिए लोग उनकी पूजा करते हैं। महापुरूष के स्वरूप को आप देख लेंगे उनका दर्शन कर लेंगे, तो आपके इच्छाओं की पूर्ति होने लगती है। हम देवी के मन्दिर में जाते हैं, इच्छाएं लेकर, तो पूरी होती भी है, नहीं भी होती। ऐसा क्यूं? शक्ती महापुरूष के पास हैं, तो उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो गई। जो श्रद्धा से उनका स्मरण करते हैं, उनकी भी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। अथवा स्मरण करता है, तो इच्छाओं का त्याग हो जाता हैं। या तो उसकी इच्छा पूरी हो जाएंगी या फिर इच्छाओं का त्याग करना पड़ेगा। ये दो ही प्रकार के लोग होते हैं न,महापुरूष से जुड़े हुए? या तो गृहस्थ हो,जो इच्छाओं की पूर्ती चाहते हैं, या फिर विरक्त,जो इच्छाओं का त्याग करना चाहते हैं। हर परिस्थीती में इच्छाओं से मुक्त होना हैं। इसलिए हम,महापुरूष से, सदगुरु से जुड़ते हैं। क्योंकी वे जितेंद्रिय हैं, उन्होंने अपने शक्ति को प्राप्त कर लिया है। उनकी शक्ती पूर्ण हो गई है, और हमारी शक्ति अपूर्ण है। उसी शक्ती को प्राप्त करने के लिए ही तो हम इच्छा करते हैं। हम कहीं मन्दिर में जाते हैं, देवी के यहां, या साईबाबा के यहां, तो हम मांगते है कि हमारे पास बहुत शक्ति हो जाय। शक्ती का मतलब होता है,धन हो जाय। शक्ति का मतलब समृद्धि का होना।
समृद्धि किसी की बढ़ती है,किसी की नही भी बढ़ती । लेकिन जिसकी समृध्दि बढ़ने लगती है, वो भी बेचारा अधूरा रह जाता है। उसको बढ़ने के बाद भी शक्तिहीनता महसूस होती है। उसको लगता है कुछ नही मिला। क्योंकी सब कुछ इकठ्ठा करने के बाद भी उसको जाना पड़ता है, बहुत बड़े सम्राट हुए, सिकंदर महान, वो जब मरने लगे तो उन्होनें कहा मेरा दोनो हाथ बाहर रखना, अर्थी से लटका कर रखना। पूरे विश्व में केवल उन्हीं की ऐसी अर्थी निकली, जिनके हाथ लटका कर रखे गए थे । जो उनका संदूक होता है,उससे बाहर। तो लोग आश्चर्य से देखने लगे कि ये क्या है? सिकंदर ने यह कह रखा था, कि मेरा हाथ जनाजे से बाहर रखना, ताकि जनता ये जान ले कि मैंने पुरे विश्व को जीता लेकिन मैने कुछ नही पाया। तो जो इच्छाओं की पूर्ती कर लेते हैं, मंदिरों में जाकर या कही अन्यत्र जाकर। वे भी तो अपूर्ण ही रहते हैं। उनकी इच्छाएं और भी बढ़ जाती हैं। तो इच्छा पूर्ण करना, शक्ति को प्राप्त करना नहीं है, बल्कि शक्ती को खोना हुआ। जब हम देवी की पूजा करते हैं,और कामना करते हैं,तो हम पूजा नहींं कर रहें हैं, हम अपने आप को ही समाप्त कर रहे है, अपनी शक्ती को क्षीण कर रहे हैं। क्योंकी बिना कामना के पूजा नहीं हो सकती। बिना कामना के कोई अनुष्ठान हो ही नही सकता। और जो कामना करके हमने प्राप्त की है, वो भी एक न एक दिन हमसे छूटेगी। या तो वस्तु हमसे छूटेगी या तो हम उससे अलग हो जाएंगे। जिस उपलब्धि के लिए हम पूजा कर रहे हैं। जो वस्तु हमे मिलने वाली हैं, वो कैसी हैं? वो छूटने वाली है,उसका छूटना निश्चित है। इसके लिए हमने कामना भी किया, श्रम भी किया, समय भी दिया। तो कामना करने से क्या होता हैं? तो भगवान कहते है, जो कामना करते जाते हैं,उनकी भगवान से दूरी बढ़ती जाती हैं। क्योंकी एक, एक कामना एक, एक शरीर है। चाहे पूरी हुई तो भी,चाहे नहीं पूरी हुई तो भी। कामना करने का मतलब, है,हमारी शक्ती उसी में अटक गई। आप आइसक्रीम खरीद लो बाजार से, तो चाहे खाओ चाहें न खाओ,पैसा आपका लग चुका। वैसे ही कामना आपने कर लिया तो आपकी शक्ती तो उसमे चली गई। आपने सोचा नहीं कि शक्ति गई। तो व्यक्ति जब अशांत होता है, अगर आप उसका अध्ययन करों कि क्यों है, अशांत?
जब आप विचार करोगे, एक विचार कर रहें है,तो इतने अशांति नही हैं, दुसरा विचार आ गया किसी प्रकार का, उसी में फिर तीसरा विचार आ गया। किसी ने तुम्हारी जमीन हड़प ली,या किसी वस्तु पर कब्जा कर लिया, कोई पैसा अपना नही दे रहा है। तो एक के बाद एक विचार आते ही रहते हैं, तो व्यक्ती अशांत होने लगता है। शक्ती क्षीण होने लगी उसी में। तो ऐसे ही हम नई, नई कामना करते जाते हैं, तो हमारी शक्ती अपूर्ण होने लगती है। अपव्यय होने लगता है, शक्ती का। कामना करके अगर किसी की पूजा कर रहें हैं, तो हम पूजा कर ही, नही रहें हैं। बल्कि अपने को भी नष्ट कर रहें हैं, देवी तो हैं ही नहीं। खुद भी नष्ट हो रहा है, व्यक्ती कामना करके। और इसलिए साधक या भक्त की दूरी बढ़ जाती हैं, ईश्वर से कामना करके । दूसरी बात जो कामना की पूर्ती होती है, उसको कौन पूरा करता है?
जब आपने कामना किया, तो जो आपके अंदर अविनाशी तत्व है आत्मा, जिसको परमात्मा कहतें हैं। जैसे ही आप सोचतें हैं, वैसे ही आत्मा की शक्ती उसमें चली जाती है। जैसे ही आप विचार करते हैं, वैसे ही जो आत्मतत्व है, वो उसमे चला जाता है, उस विचार के माध्यम से, वो शक्ती आ जाती है। वो देवी उस कामना में पहले से ही आ गई। नकी बाहर किसी मूर्ती में वो देवी बैठी है, जो आपकी कामना पूरी करेगी। आपकी श्रद्धा हुई जिस कामना को लेकर के, अंदर जो आत्मतत्व है, वो आपके श्रद्धा की पूर्ती की व्यवस्था करने लगती हैं। फिर आप जहां पर आप जाते हो, जिसको आप मानते हो, वहा जाकर आपको लगता है, कि यहां से आपकी ईच्छा की पूर्ती हुई ,अगर वहां से इच्छा पुरी हुई, तो जो दूसरे लोग जातें हैं, उनकी कामना की पूर्ती क्यों नहीं हुई। और अगर आप नही गए थे,घर पर थे,तो क्यों पुरी नही हुई। जब आपने इनके विषय में सोचा नही था, मन्नत नही मांगा था, तब क्यों नही पुरी हुई। कुछ न कुछ आपने सोचा, मन्नत मांगी, विचार किया ढेर सारा,उस समय आपने, अपने मन को अपने आत्मा की शक्ती को उनके प्रति खर्च किया। तो इसका मतलब है कि जो आपके आत्मा की शक्ती खर्च हुआ विचार करने में, वही शक्ति इच्छा पूर्ति के रुप में आपको वापस मिली। न कि किसी देवी या देवता ने कुछ दिया आपको,वास्तविकता यही है। गीता में भगवान कहते हैं, कि कण, कण में मैं ही व्याप्त हूं। देवता नाम की कोई सत्ता नहीं हैं। जहां भी श्रद्धा झुकती है, जड़ चेतन में, मैं ही खड़ा होकर फल देता हूं । फल पाता है,फल मिलता है,फल भी नष्ट हो जाता है। भोगने वाला भी नष्ट हो जाता है, और जिसकी पूजा करता है, वो तो वहां पर है ही नही । क्योंकि कोई भी देवी या देवता किसी मूर्ती के रुप में या मंदिर के रुप में कभी होता ही नही हैं। जिस समय वो था, वो एक शरीर में था, तो शरीर देवता नहीं था। शरीर के द्वारा तपस्या करके जिस तत्त्व को उसने पाया वो देवता था। जिन गुणों को तपस्या के द्वारा उसने विकसित किया, वो गुण देवता थे। जैसे दैवी गुणों को गीता में बताया है। अहिंसा है, सत्य है,अक्रोध , करूणा है दूसरो को निंदा न करना है, ऐसे 26 लक्षण बताया। यहीं 26 लक्षण जिनके अंदर विकसित हो जाते हैं, वो महापुरूष होता है, भगवान हो जाता हैं। जिनको देवी लक्षण कहा गया, देवी गुण कहा गया , इनकी ही शक्ती को देवी शक्ति कहा गया। जैसे अहिंसा है, तो अहिंसा बहुत बड़ा देवी गुण है। ये गुण भगवान महावीर में विकसित हुआ तो पुरा जैन धर्म अहिंसा के रास्ते पर। पुरे जैन धर्म का सिद्धांत ही अहिंसा है। करूणा भगवान बुद्ध में विकसित हुआ जो कि एक देवी गुण है, तो इनका जितना सिद्धांत हैं, धर्म के उपदेश है, सब करुणा से जुड़े हुए है। करूणा माने दया, जीव के उद्धार के लिए दया की भावना। तो ये गुण तब नही था,जब वे राजा थे । जब तपस्या किए , पूर्ण अहिंसक हुए, करुणावान हुए, दयावान हुए। तो ये जो देवी गुण है,तेज का होना, सरलता का होना, क्रोध का न होना, विकसित हो गया। जैसे अंगुलिमाल क्रोधित होकर आया, वो खड़े रह गए। तो उनके खड़े रहने से उसका स्वभाव बदल गया। तो ये देवी गुण था जो उनको क्रोध नहीं आया। तो ये जो गुण हैं, क्रोध का न होना, भगवान का बात करना, इन्द्रियों की जितेंद्रीयता, आत्मा का उद्धार सरलता,इंद्रियों का संयम ये सब देवी संपद है। तो ये देवीय संपद किसी के अंदर बढ़ने लग जाती है, या दैवी संपद किसी, किसी के अंदर जब विकसित हो जाते हैं। तो इनका विकसित होना ही, देवी पूजा है । तो ये दैवी गुण कब विकसित होते हैं? जैसे जितेंद्रीयता एक दैवीय गुण हैं, दैवीय संपद, है,दैवीय लक्षण हैं। जो महापुरूष में होती है, जिनकी हम पूजा करते हैं। तो इंद्रियों का जब संयम ही नही करेगें, तो कोई जितेंद्रिय होगा कैसे? तो इसलिए जब देवी की उपासना आरंभ होती है, तो इन्हीं नौ देवी,नौ इन्द्रियों के संयम से। जब इन्द्रियों का आप संयम करेंगें, तो हमको व्रत लेना होता है। व्रत क्या है? व्रत लेने का तात्पर्य है, की चाहें जो हो जाय, हमे ये कार्य करना है।ये कार्य हम करके ही रहेंगे। बहुत लोग अपने बालों को बढ़ा लेते है, बहुत लोग कहते हैं, कि मै गांव नही जाऊंगा ,जबतक मेरा कार्य नहीं हो जाता। दृढ़ संकल्प करते हैं। तो यह एक व्रत है । भले ही वे खाना खा रहें हैं, पानी पी रहें हैं , लेकिन ये भी एक व्रत है। ऐसे ही हमारे अंदर एक दृढ़ संकल्प होता है, कि हमें इंद्रिय संयम करना है, हमे ईश्वर की प्राप्ती करना है। इसलिए इंद्रिय संयम करनेवाले के अंदर एक व्रत होना चाहिए। व्रत नहीं होगा तो,इंद्रिय संयम कर ही नही पाएगा। तो संयम करना है इन्द्रियों का तो कैसे करना है? तुलसीदास जी कहते हैं। “श्रवननि और कथा नही सुनिहौ, रसना और न गैहौ। रोकिहौ नयन बिलोकत औरही, शिश ईश ही नैहौ “जानकी जीवन की बलि जैहौ।। जो नयन दूसरी वस्तु को देखकर जो मन विचलित हो जाता हैं, बाहर संसार की विषयों में भटक जाता हैं, उस वस्तु को हम नही देखेंगे। जिससे मेरा मन भटक जाय। कानों से वो शब्द नही सुनेंगे,जिससे हमारा मन भटक जाय। मन के भटकने का तात्पर्य है, कि शक्ती क्षीण हो जाती हैं। जैसे ही मन बाहर गया, वैसे ही आपके प्राण आपसे बाहर चले गए। शक्ति जब तक नाम और रुप में है, तभी तक आप अपने पास है,जैसे ही मन बाहर गया, भले ही शरीर बैठा हैं, लेकिन आप वहां पर नहीं हैं। तो इस बात के कई प्रकार के दृष्टांत आते हैं। जैसे शंकर जी के बारे में आता है,कि पहले शंकर जी शव के रूप में थे। तो पार्वती ने उनको जागृत किया। लेकिन जब जागृत हो गए,तो जब पार्वती भजन मे बैठती थी। तो शंकर जी भजन में न बैठकर बाहर चले जाय, मृत्युलोक में चले जाए, वहां की स्त्रियां थी, उनके साथ चले जाय। तो पार्वती सबको काट कूट कर फिर भजन में बैठाती थी। तो इसी तरह से हमारे मन का भी वही हाल हैं। मन एक जगह पर नहीं रहता। जैसे नाम जपना हैं,ध्यान करना हैं, जहां पर शक्ती केंद्रित होगी। जो कि शक्ती (देवी) की पूजा हैं। ईश्वरीय शक्ती जहां इकट्ठी होती हैं। ध्यान के द्वारा, नाम जप के द्वारा। जब हम नाम जप रहें हैं, तो मन चला जायेगा दूसरी दूसरी जगह कल्पना करने लगेगा। तो 10 मिनिट बाद समझ में आयेगा कि हम क्या कर रहे हैं, केवल शरीर ही बैठा है। तो लोग कहते हैं कि प्राण निकल गया। प्राण तो हमेशा बाहर ही रहता है, प्राण कभी शरीर के अन्दर नहीं रहता है। वो तो केवल ये समझो कि जिस दिन से जन्म हुआ हैं, उसी दिन से हमारी मृत्यु शुरु है। उसी दिन से प्राण बाहर जा रहा हैं, जाते जाते 80 साल की उम्र में पुरी तरह चला जाता है। प्राण जिस दिन से हमने जन्म लिया उसी दिन से निकलने लगता है। एक समय आता है कि उसका निकलना हमे आभाष होता हैं।मृत्य माने केवल 80साल में घटने वाली घटना नहीं हैं, जैसे ही बच्चा ही जन्म लेता है, तभी उसकी मृत्यु शुरु हो जाती हैं, इसलिए हम अपने शरीरों में परिवर्तन देखतें हैं। परिवर्तन कैसे हो रहा है? इसको हम लोग किसी यंत्र से नही देख पाए। लेकिन परिवर्तन हो रहा है, इसको हम जानते हैं। इसको हम अपने चेहरे को देखकर समझ सकते हैं कि हम कहां थे कहां पहुंच गए। शरीर किस स्थिती में था, किस स्थिती में चला गया। तो इसका तात्पर्य हैं की प्राण तो निकल ही रहा है। प्राण कभी शरीर के अन्दर नहीं रहता, तो फिर रहता कहां है। जैसे सीताजी का उदाहरण देखेंगे, जब हनुमान जी लंका गए और फिर वापस भगवान राम के पास लौटे, तब भगवान ने पूछा ,कहौ तात केही भाति जानकी, करत रहत रक्षा सो प्रान की”सीता अपने प्राण की रक्षा कैसे करती है लंका में? पहले सीता के विषय में हनुमान ने बताया कि भगवान सीता बहुत दुखी है। राम ने कहा हनुमान जी कोई दुःख नहीं है, कोई विपत्ति नही है। “कह हनुमंत बिपती प्रभु सोई, जब तव सुमिरन भजन न होई”जब सुमिरन और भजन नही होता है, तभी बिपत्ती है, तभी दुख हैं। अगर सुमिरन और भजन में लगा है,साधक तो उसके लिए कोई विपत्ती नही है, कोई दुःख नहीं है। फिर हनुमान जी ने कहा किस तरह से सीता जी,अपने प्राण की रक्षा करती है,वो मैं आपको बताता हूं। “नाम पहारू दिवस निसी, ध्यान तुम्हार कपाट, लोचन निज पद जंत्रित, प्राण जाहि केही बाट ” जो प्राण है, उसमे नाम का पहरा लगा हुआ है। जब श्वास आई तो ॐ गई तो ॐ एक दिशा से प्राण नाम जप में लगा हुआ है। दूसरी दिशा से प्राण लगा हुआ है,ध्यान तुम्हार कपाट। आपके ध्यान में,गुरू महाराज के स्वरूप के ध्यान में लगा हुआ हैं। तीसरा जो प्राण का छोर है, लगा हुआ है,लोचन निज पद जंत्रित, तीसरा छोर बुद्धि है। तो निर्णय क्या लिया है,कि इस नम जप से, सेवा से हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं? ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं। शांति प्राप्त करना चाहते हैं।परम पद प्राप्त करना चाहते हैं। तो वही हमरा पद है जिसको हमे पाना हैं। तो दृष्टी जो विचार पर हैं, वो वहां केंद्रित है, भजन हम यहां कर रहे हैं, नाम जप कर रहें है, ध्यान कर रहे हैं इंद्रिय संयम कर रहें हैं। लेकिन किसलिए ? ईश्वर प्राप्ती के लिए। दृष्टी वहां लक्ष्य पर केंद्रित है। तो लोचन निज पद जंत्रित प्राण जाहि केही बाट , प्राणों को जाने का कोई रास्ता नही है।
ये जो प्राण है, शरीर के अन्दर कहा गया है। जब प्राण आप के अन्दर है, तो शक्ति भी आपके अन्दर है , तो प्राण और सीता में कोई अन्तर नहीं है। उसी को सीता कहते हैं, उसी को प्राण कहते हैं।
हमारा जो प्राण है उसी का नाम सीता है। तो इसलिए भगवान ने पूछा की प्राणों की रक्षा कैसे करती है। यहीं प्राण जो निकलता है, 80 वर्ष की उम्र में। ये प्राण बचपन से ही निकलने लगता है। जितने, जितने हमारे अंदर विचार आते हैं, प्राण बाहर ही है। बच्चो में बच्चो जैसा, जवान हो गया तो उसके दूसरे तरह के विचार, फिर भी प्राण बाहर ही रहता है। शरीर के अन्दर कहां रहता है, बहुत कम रहता है। तो महात्मा बुद्ध ने कहा भिक्षुओं वर्तमान में रहो। वर्तमान में कोई व्यक्ती रह ही नहीं सकता। वर्तमान मे, रहने का मतलब, जो विधि दी गई है, जैसे नाम का जप, स्वरूप का ध्यान, ये वर्तमान है। महापुरूष क्या हैं,वे वर्तमान में रहते हैं। इसलिए वे त्रिकालज्ञ होते है। अतीत का और भविष्य,दोनो का उन्हें ज्ञान रहता है। क्योंकी वे वर्तमान में हैं। शरीर जहां पर है वहीं पर हैं वो। ऐसा नहीं है कि वे बैठे कही और पर है , मन कही और पर चला गया। महापुरूष सदैव एक ही स्थान पर रहते हैं। वर्तमान में रहते है? कहां रहते हैं ? परमात्मा में सदैव लीन रहते हैं। कैसे? नाम जप के द्वारा ध्यान के द्वारा। नाम जप में मन एकाग्र हैं, ध्यान में डूब गया। तो शरीर संयमित होता है इन्द्रियों में, इन्द्रियां संयमित हो जाती है मन में, मन संयमित होता है बुद्धि में, और बुद्धी संयमित हो जाती है ॐ (प्रणव) में। और ॐ परमात्मा में विलीन हो जाता है। इस तरह से पूरा शरीर जीवित रहते हुए भी महापुरुष परमात्मा में लीन रहते हैं। शरीर उनका चलता फिरता सब दिखता है । लेकिन अन्दर क्या है? व गहरे डूबे हुए हैं। जो परम तत्व परमात्मा है, उसमे लीन हैं ।देखने के लिए उनका शरीर दिख रहा है, लेकिन हैं, परमात्मा उस स्थान पर । ये स्थिती है जीव की, शरीर के रहते रहते। एक समय था, कि वही मनुष्य था, एक समय ये है कि वही महापुरूष भगवान हैं।
क्या हुआ? यहीं परिवर्तन हुआ। उसने अपने इंद्रियों को संयमित किया। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जो ये नौ इन्द्रियां हैं , इनके अन्दर जो दैवीय सम्पंद हैं, उसी दैवीय संपद को बढ़ाया। उस ईश्वरीय शक्ती को बढ़ाया। इन्द्रियों का संयम करके। बढ़ाते बढ़ाते इतना बढाया कि जितेंद्रिय हो गया। जितेंद्रिय हो गया तो परमात्मा में लीन हो गया। इंद्रियां संयमित हो गई मन में , मन संयमित हो गया बुद्धी में। बुद्धि ओंकार में। और ॐ परमात्मा में विलीन हो गया। मन वहां समाधिस्थ हो गया, ध्यानस्थ हो गया। बाहर कुछ रहा ही नहीं। इसलिए संपूर्ण शक्ती उसकी, उनके पास होती है। तो इसलिए हम उनका दर्शन करते हैं,तो हमारी इच्छा की पूर्ती होती हैं। शांति मिलती हैं। इसलिए ऐसा होता है। तो जो,ईश्वरीय शक्ती है, बाहर हमारी कामना के कारण क्षीण होती रहती है। फिर हम उन्हीं,कामानाओ का त्याग करते हैं,इन्द्रियों का संयम करने लगते है तो दैविय संपद बढने लगती हैं। एक समय ऐसा आता है, जब दसों इन्द्रियों का पुरी तरह से निरोध हो गया, इंद्रिय संयम हो गया। तो शक्ती की उपासना पूरी हो गई। शक्ती पूर्ण हो गई।अब उसको किसी की पूजा नहीं करनी है, अब लोग उसकी पूजा करते हैं। जैसे सन्त कबीर कहते है, कि पीछे लागे हरि फिरे कहत कहत कबीर कबीर। एक समय ऐसा था की कबीर दास जी हरी का नाम जपते थे। और पीछे रहते थे, फिर भी मन हट जाता था। लेकिन एक समय ऐसा आ गया, कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर, पिछे लागे हरि फिरे कहत कबीर कबीर। जब महापुरूष हो जातें है, समाधिस्थ हो जाते हैं, भगवान ही उनको उठाते बैठाते चलाते है। उनका अपना शरीर भी नही रहता। शरीर अवस्य रहता है, देखने के लिए , लेकिन वहां पर परमतत्व परमात्मा ही प्रवाहित हो गया। वहां ईश्वरीय शक्ती प्रवाहित हो गई। तो जो शक्ती हमारी नाम जप में लगी है, श्वास में लगी हूई है ध्यान में लगी हुई हैं। तो प्राणों के भटकने का कोई रास्ता नही है,वे वर्तमान में है। तो साधक वर्तमान में है, उसको भूत और भविष्य का पूरी तरह ज्ञान होगा। कब चित्त ध्यान में स्थित है, और जब चित्त ध्यान में स्थित नही हैं, और जब नाम जप में केंद्रित नहीं है, तब फिर उसका प्राण बाहर है। उसी बीच रावण आता था, और सीता को डराता था। जब जब ध्यान हटता था तब तब रावण आकर खड़ा हो जाता था। एक समय ऐसा आया, रावण मारा गया । सीता, राम को प्राप्त हो गई। तो जब साधक की नौ इंद्रियां जब संयमित हो जाती हैं। तो जो, मोह का प्रवाह है, वह खत्म हो जाता है।
इंद्रियां क्यों बाहर देखती है? क्योंकी हमारा संसार के विषय वस्तुओं से लगाव है। हमारे अपने शरीर से आशक्ति है, शरीर में आसक्ति होने के कारण दूसरे शरीर से भी लगाव है। तो इंद्रियां देखती है, तो हमारा मोह प्रकट होता है। तो दसों इन्द्रियों के विषयो न्मुखी वृत्ति को दशानन कहा गया। दसों इंद्रियों के निरोधमयी वृत्ति को दसरथ कहा गया। दस इंद्रियां कहो या नौ इन्द्रियां। नौ इन्द्रियों को जब संयमित करने लगते हैं, तो वहा से देवी की पूजा आरंभ होती है। तो उसमें व्रत लेना पड़ता है, कि आंखे दूसरा दृष्य नही, देखेगी, अगर दूसरे दृश्य आएगी तो उसको हटा देंगे। कानों से शब्द नही सुनेगे। त्वचा से स्पर्श नहीं करेंगे। इसलिए सद्गृहस्थ भक्त जब आगे बढता है,तो धीरे धीरे वैराग्य हो जाता है। ताकि वो शरीर के संबंधों से अलग हो जाय।अपनी साधना, कर सकें। अपने शक्ति की उपासना कर सकें।अपनें देवी की उपासना कर सकें। दैवीय संपद को बढ़ा सकें। तो इन्द्रियों का संयम करना, ये देवी उपासना है। इसका संयम कैसे होगा? कामनाओं का त्याग करके नाम का जप करके। धीरे धीरे इंद्रियां संयमित होती जाती हैं, महापुरुष का ध्यान करते, करते। जो महापुरुष के अन्दर दैविय शक्ति है, ईश्वरीय शक्ती है,वो साधक के अन्दर भी, वही शक्ति प्रवाहित हो जाती हैं। जहां इंद्रियां संयमित हुई शक्ती की उपासना पूर्ण हो जाती हैं। अब उसको किसी की पूजा नहीं करनी है। ऐसे ही महापुरुषों को देवी कहा गया, देवता कहा गया। जिन स्त्रियो ने संयम किया उनको देवी कहा गया, जिन पुरुषों ने संयम किया उनको देवता कहा गया। उन्हीं की पूजा हुई। तो शक्ती की उपासना अर्थात् ईश्वरीय शक्ति को प्राप्त करना। जो शक्ति हमारी संसार में व्यय है , कामनाओं का त्याग करके, इंद्रियो का संयम करके, उसको उपलब्ध करो। यही देवी की पूजा हैं। तो दसों इंद्रियां जब संयमित हो गई, तो मोह रुपी रावण सदा, सदा के लिए समाप्त हो जता हैं। इस शरीर रुपी पृथ्वी पर सदा सदा के लिए राम का राज्य स्थापित हो जाता हैं। राम राजा हो जातें हैं। परमात्मा का राज्य स्थापित हो जाता हैं। शरीर रहने का मकान मात्र रह जाता हैं। शरीर से जो कार्य होता है भगवान ही किया करते हैं। शरीर जब तक पृथ्वी पर रहता है , भगवान ही उसके माध्यम से कार्य करते हैं। इसी को कहते हैं परमात्मा का राज्य , इसी को कहते हैं परमेश्वर का राज्य । शरीर रुपी पृथ्वी पर परमात्मा प्रवाहित हो गया। माया मोह समाप्त हो गया । तो भगवान वहा पर राजा हो जातें हैं। महापुरूष के माध्यम से भगवान ही राज्य करते हैं। कोई भी आता है, उसका क्या देखना है, भगवान ही देखते हैं।और उनकी सदा सदा के लिए इस शरीर में स्थिती रहती हैं प्रशुप्त हो जाती हैं । जैसे सीता इसी धरती में समा गई। तो शक्ती इसी शरीर रुपी पृथ्वी में रहती है, लेकिन उस महापुरुष के लिए उसका कोई उपयोग नही । जिसकी साधना पूर्ण हो गई अब वो क्या खोजेगा? लेकिन इस शरीर से दूसरो को साधना सीखनी हैं।महापुरुष के पास जाकर हमे साधना सीखनी हैं, तो हमारे लिए आवश्यक है ये शक्ती , इसलिए हम उनकी पूजा करते हैं। कि वो शक्ति हमारे काम आ सकती है। उनकी साधना पूर्ण हो गई, ये उनके किसी कम की नही, क्योंकि वो पूर्ण हो गए। लेकिन हमारे काम की है। वास्तव में देवी पूजा का तात्पर्य है, कि जो दैवीय संपद को प्राप्त महापुरुष हैं, वही देवी हैं, पुरी तरह से ईश्वरीय शक्ती उनके पास हैं। अगर हमें शक्ति चाहिए तो ध्यान करें, नाम का जप करें, इन्द्रिय का संयम करे। जिस दिन से हम इन्द्रिय संयम शुरु करेगें, नाम का जप शुरु करेगें , उसी दिन से शक्ति की उपासना नौ देवी व्रत आरंभ हो जायेगा। जब इन्द्रियां संयमित हो जायेगी, तो साधना पूर्ण हो जायेगा,अब आपको किसी की साधना नहीं करनी है। यही वास्तविक देवी पूजा है, और जो लोक प्रचलित है वो तो एक परंपरा है। इससे आप अपनी इच्छाओं की पूर्ती कर सकते हैं। इसके अलावा और कुछ नही मिलेगा। शांती नाम की कोई चीज नहीं है। क्योंकी कामनाओं की पूर्ती में शान्ति है ही नही। फिर नई कामना उत्पन होगी, फिर अशांति ही पैदा करेगी। बाहर की देवी शान्ति नहीं दे सकती। लोगो को भ्रम होता है कि इछाओ की पूर्ती हो जायेगी, कामना पूर्ण हो जाता है, तो मन खुश हो जाता है, चलो भाई देवी के पास जाओ। फिर नई कामना के लिए जाते है। जिन्दगी भर एक, एक कामना आती रहती है, अनुष्ठान होते रहता है। न कभी देवी आकर बात किया उससे , कि तुम्हारा कल्याण हो रहा है, कि नही। सालो गुजर जाते है देवी की उपासना करते, करते। तो ईश्वरीय शक्ती है वही देवी है, ये आपकी शक्ती का नाम है, न की किसी बाहर की देवी का। हम लोग ईश्वर को छोड़कर बाहर उस शक्ति की पूजा करने लग जाते है, इसलिए नाम का जप ध्यान इसके द्वारा दैविय शक्ति को बढ़ाओ, यही वास्तविक देवी पूजा है।

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