विजय दशमी (दशहरा) क्या है


रामायण के अनुसार भगवान राम जब रावण पर विजय प्राप्त किए, उसके उपलक्ष्य में यह विजयदशमी त्यौहार मनाया गया, और तब से लेकर अभी तक लोग लगातार इस त्यौहार को मनाते आ रहे हैं, रावण दहन करते हैं। दशहरे के दिन देश में स्थान-स्थान पर रामलीलाएं होती हैं। त्योहार जब परंपरा बनती है,तो उसके पीछे की जो कहानी होती है, उसका उद्देश्य होता है, कि लोग अपने अंदर किस तरह से सुधार करें ? जैसे भगवान राम ने रावण पर विजय प्राप्त की। तो हम त्यौहार इसलिए मनाते हैं, कि हम कैसे,अपने अंदर के रावण को समाप्त करें?
भारत धार्मिक, आध्यात्मिक देश है। लोग जहां-तहां बोलते हैं कि अपने अंदर के रावण को मारो। लेकिन अपने अंदर के रावण को मारने के लिए,अंदर राम के जन्म की आवश्यकता होती है।
बिना राम के, अंदर का रावण समाप्त नहीं होगा। बाहर तो भगवान राम ने रावण का वध कर दिया, त्रेतायुग में। और तब से लेकर आज तक, हम लगातार हर साल, रावण को मारते हैं, पुतला दहन करते हैं। लेकिन रावण अभी तक मरा नहीं।उसका कारण यह है कि रावण बाहर नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति के अंदर है। और प्रत्येक व्यक्ति अपने अंदर के रावण को तभी समाप्त कर सकता है, जब उसके अंदर राम प्रकट हों । तो इसी से संबंधित है ,विजयदशमी (दशहरे) की कहानी ।

अब हम देखेंगे कि किस तरह से रावण का जन्म हुआ, कैसे रावण प्रकट हुआ , उसने क्या-क्या किया, और फिर कैसे भगवान ने उसको समाप्त किया? कहानी इस तरह से है, कि सबसे पहले ब्रह्मा के पुत्र हुए, पुलस्त्य मुनी। और पुलस्त्य मुनी के पुत्र हुए, विश्वश्रवा और विश्वश्रवा के पुत्र हुये कुबेर, कुबेर की माता का नाम था, (इडविला) और इसी क्रम में तीन भाई थे, माल्यवन्त, सुमाली और माली वे तीनों पहले लंका में ही रहते थे । लेकिन लंका से देवताओं ने इनको हटा दिया, और फिर वे पाताल में रहने लगे। और फिर ये तीनों विश्वश्रवा के पास आये। जिसमे से सुमाली के पास तीन लड़कियां कैकेशी, मालिन और राका थी । इन तीनों का विवाह विश्वश्रवा से कर दिया जिसमें से कैकेशी के हुए रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और सुपर्णखा।मालिन के हुये (त्रिजटा, खरदूषण और त्रिसरा) राका से हुए। इस तरह से इनका वंश चला। तो फिर इनसे लाखों राक्षस उत्पन्न हुए, इस तरह से इनका वंश चला । ये ब्रह्मा जी से ही चला। और और फिर उन्हीं ब्रह्मा जी के दूसरे पुत्र थे मरीचि। मरीचि से विवस्वान (सूर्य) हुए, फिर उसमे,इक्ष्वाकु हुए, मनु, हुए उसी में राजा रघु, हुए मांधाता हुए,अज हुए, सगर हुए फिर उसी में दशरथ हुए और दशरथ के पुत्र हुए राम। तो राम और रावण दोनों का जो मूल उत्पत्ति है, वह ब्रह्मा जी से ही हुआ। ब्रह्मा जी से ही ये दोनों वंश चले हैं। लोग कहते हैं कि, एक क्षत्रिय और एक ब्राह्मण हैं,तो इससे तो कुछ भी स्पष्ट नही होता, कि कौन क्षत्रिय है, और कौन ब्राह्मण है ? क्योंकि दोनों के मूल तो एक ब्रह्मा जी से ही उत्पन्न हुए हैं। मरीचि भी ब्रह्माजी के पुत्र थे, और पुलस्त्य भी ब्रह्मा जी के पुत्र थे । पुलस्त्य के नाती रावण हुए और मरीचि के वंश में आगे चलकर भगवान श्रीराम हुए। ये हैं, राम और रावण की वंश परंपरा ।
फिर रावण के बारें में रामचरितमानस में तीन-चार कथानक आते हैं। प्रताप भानु जो बहुत बड़े चक्रवर्ती सम्राट हुए। उन्होंने बहुत यज्ञ किए, बहुत सारे धार्मिक कार्य किए, तपस्या किये । उनके भाई थे, (अरिमर्दन) धर्मरुचि उनके मंत्री थे। प्रताप भानु का एक शत्रु राजा था, जो कपटी मुनि का भेष धारण करके रहता था, उससे प्रताप भानु का शत्रुता था। एक दिन प्रतापभानु शिकार के लिए निकले, और रास्ता भटक कर कपटी मुनी के आश्रम तक पहुंच गए। प्रताप भानु ने एक इच्छा प्रकट की।

जरा मरन दु:ख रहित तनु, समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि,राज कलप सत होउ॥

उसने प्रताप भानु को सलाह दिया कि, ब्राह्मणों को भोज के लिए निमंत्रण करो , तो सब तुम्हारे बस में हो जाएगा। फिर कपटी मुनि और प्रताप भानु का एक और शत्रु राजा कालकेतू था। जिसके दस भाई और सौ लड़के, थे । जिसको प्रतापभानु ने जीत लिया था। तो कालकेतु जंगल में जाकर रहता था। दोनों ने मिलकर ब्राह्मणों को जो रसोई परोसी ,उसमें मृगों का मांस मिला दिया, ब्राह्मणों का भी मांस मिला दिया। इसके बाद आकाशवाणी हुई, फिर ब्राह्मणों ने श्राप दिया, प्रतापभानु को। तो प्रताप भानु रावण हुए, और उनके भाई (अरिमर्दन) कुंभकर्ण हुए । और धर्मरूचि विभीषण हुए। एक कथा रावण के जन्म की ये है। रावण के जन्म की एक और कथा है, जय और विजय भगवान के द्वारपाल थे, सनकादि ऋषि भगवान् के दर्शन करना चाहते थे। जय और विजय ने उन्हे अंदर नही जाने दिया,तो सनकादि ऋषियों ने उन्हें घोर निशाचर होने का श्राप दे दिया । वे निशाचर हो गए, फिर वे दूसरे जन्म में रावण और कुंभकर्ण हो गए। एक कथा और है, जालंधर की, जालंधर से भगवान शंकर जी ने बहुत युद्ध किए, लेकिन जालंधर हार नहीं रहा था,उसकी जो पत्नी थी वह सती थी, फिर भगवान विष्णु ने राजा जालंधर का रूप धारण किया, उसका सत्य भंग किया,और इसके बाद जालंधर मारा गया। और फिर वही जालंधर रावण हुआ।
नारद मुनि ने रुद्र के दो गण थे, दोनों गणों को श्राप दिया, तो वो भी रावण और कुंभकर्ण हुए। इस तरह से रावण की यह चार कथाएं हैं । तो इससे लगता है कि, चार रावण हुए।लेकिन रावण चार नहीं है,
ये चारों , चार साधक की चार प्रकार की स्थितियां हैं। चार प्रकार के साधकों की कहानी है। यह रामचरितमानस है। केवल यही नहीं है कि इतिहास में कभी राम और रावण हुए। रामचरितमानस और रामायण । राम और अयन, अर्थात राम का अयन। तो कहां पर है राम का अयन? तो हमारा यह हृदय ही राम का अयन (घर) है । तो हमारे हृदय में जो राम प्रसुप्त हैं, वह राम कैसे जागृत होते हैं ? जागृत होकर के कैसे साधक से साधु से भजन कराते हैं? और कैसे उसके अंदर के रावण (मोह) को समाप्त करते हैं ? वहां तक की साधना का क्रम क्या हैं? रामायण । इसी तरह से रामचिरतमानस – मानस का मतलब होता है अंतःकरण राम के वे चरित्र जो हमारे अंतःकरण में प्रसुप्त है । जिस विधि से जागृत होते हैं ,राम पर्यंत दूरी तय करातें हैं।रावण का संहार होता है। वह आदर्श साधना क्रम रामचरितमानस है।

तो रामचरितमानस क्या है?
साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू॥

तो किसका चरित्र है रामचरित मानस?
साधू का चरित्र है। साधू के अंदर घटने वाली घटना है।

जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी।
तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥

ये राम और रावण की कहानी है । श्री राम ने रावण को मारा इसके लिए हम विजय दशमी मनातें हैं ।
तुलसीदास जी कहते हैं कि,
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी।
जिन्होंने परमात्मा के चरणों में प्रेम किया है, ह्रदय स्थित राम के,उनकी यह गति अभी और आज इसी समय प्रकट है।
पहले कभी यह घटना घटी थी, ऐसी बात नहीं, आज और अभी भी यह घटना घटती है, लेकिन किसके अंदर? साधक के अंदर ।
बालमीक नारद घटजोनी।
निज, निज मुखनि कही निज होनी॥

जो रामचरितमानस है, इसमें
नारद, वाल्मिकी और अगत्स्य ने अपने अपने हृदय की घटना को व्यक्त किया।
उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ ,जे हरि बिमुख न धर्म रति॥

राम का गुण अत्यंत गूढ़ है । इसमें जो मनन करने वाले हैं पंडित हैं, वह वैराग्य को प्राप्त होते हैं । और जो संसार में फंसे हुए हैं विमूढ़ हैं, वह और भी,मोह को प्राप्त होते हैं,इसी कथा को पढ़कर के ।
तो इसलिए
जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥

जिनके अंदर श्रद्धा नहीं हैं, एक परमात्मा के प्रति, ह्रदय स्थित राम के प्रति । सन्त नहीं हैं, समझने के लिए , उनके लिए रामचरित मानस अगम है। और किसके लिए? जिनही न प्रिय रघुनाथ, जिनको भगवान् से प्रेम नहीं है, जिसको हृदय स्थित राम से प्रेम नहीं है। उनके लिए मानस समझना कठिन है। तो तुलसी दास कौन सी कथा लिख रहें है?
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा।।
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई।।
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें।।

जो मेरे गुरू ने मुझको बताई, ब्रह्मविद्या, उसी को मैने लिखा है। इसी को भाषा बद्ध कर रहा हूं। इसलिए रामचरित मानस साधु का चरित्र है, उसके अन्तःकरण की घटना है। और ये प्रत्येक व्यक्ती के अन्दर प्रसुप्त है। पूरा रामचरित मानस। जब रामायण, रामचरित मानस प्रत्येक व्यक्ती के अन्दर प्रसुप्त है, तो इसका मतलब हर व्यक्ती के अन्दर राम हैं,और हर व्यक्ती के अन्दर रावण है। तो हम हर साल रावण के पुतले को क्यों जलातें हैं? अगर त्रेता युग में ही राम रावण हुए, तब तो रावण त्रेता युग में ही समाप्त हो गया। तो आज रावण को जलाने की क्या आवश्यकता हैं? लेकिन भारत आध्यात्मिक देश है, सब लोग जानतें हैं कि रावण समाप्त नहीं होता है। जैसे राम अविनाशी हैं, सदा रहतें हैं, वैसे रावण भी सदा रहता है। लोग अनेक प्रकार की बातें बोलते हैं। जैसे, बुराई पर अच्छाई की विजय, अधर्म पर धर्म की विजय, का दिन है। असत्य पर सत्य की विजय, बहुत सारे ज्ञान की बातें सर्वत्र मिल जायेगा। लोग बोलते है, अपने अंदर के रावण को मारो, बाहर के रावण को मत जलाओं।
तो रावण बाहर होता ही नहीं है। कोई कागज का पुतला बनाकर जला दिया वो रावण नही हैं। रावण अंदर ही होता है, राम भी अन्दर हैं। इसलिए बाहर का रावण तो त्रेता युग में, भगवान राम के द्वारा मारा गया। लेकिन अन्दर का रावण तब से लेकर अब तक, और अनंत काल तक जब तक श्रृष्टि रहेगी तब तक ये रावण रहेगा। क्योंकि ये प्रत्येक व्यक्ती के अन्तःकरण की घटना है। और जिस व्यक्ति ने अपने अन्तःकरण के रावण को मार दिया, जिसने अपने अन्तःकरण में राम को प्रकट कर लिया, उसने अपने अन्तःकरण के रावण को समाप्त कर दिया। लेकिन यह एक व्यक्ती के अन्दर घटी। दूसरे व्यक्ती के अन्दर तो रावण मौजूद है। दुसरा व्यक्ती रावण से तभी मुक्त होंगा, जब उसके अन्दर भी राम प्रकट होगा। तो ये मानस है, मनुष्य के अन्तःकरण की घटना। तो इसलिए रावण चार नहीं है, जैसा लगता है चार कहानियों से। कि प्रतापभानु, भी रावण हुए, जय विजय भी रावण हुए, नारद के शाप से रुद्र गण भी रावण, कुंभकर्ण हुए, जालंधर भी रावण हुआ। ये चार रावण हुए। लेकिन रामचरित मानस में एक ही रावण की कहानी है। लंका में एक ही रावण दिखाई दे रहा है। और राम भी एक ही हैं, जो रावण को मारते हैं। तो मानस मतलब अन्तःकरण , इसका मतलब साधक के अन्तःकरण की घटना। तो ये जो चारों कहानियां हैं, प्रतापभानु की, रुद्र गणों की, जय विजय की, जालंधर की। ये चार स्तर के अलग अलग साधक हैं। चार भिन्न भिन्न साधक हैं। साधक के अन्तःकरण की बात है। तो कैसे अंतः करण की बात है? आप देखेंगे कि जब रावण का जन्म हुआ, तो रावण ने तपस्या की, दस हजार वर्ष तक। रावण जब तपस्या कर रहा था, ब्रह्मा जी की, दस हजार वर्ष तक तपस्या किया, एक हजार साल तपस्या के बाद एक सर काट देता था। दस हजार साल में उसने दसों सिर काटे। जब अंतिम सिर काटकर चढ़ाना चाहा तो ब्रह्मा जी खुश हो गए। ब्रह्मा जी ने कहा बरदान मांगों। तो रावण ने कहा, हम काहू के मरे न मारे। तो बिधाता ने कहा ये मृत्युलोक है, ऐसा तो हो ही नहीं सकता, कि तुम्हे कोई मार न सके। इसलिए लो मै तुमको ये वाण दे देता हूं , जिस वाण से तुम मरोगे। एक वाण ब्रह्मा जी ने दिया, जिसको रावण ने एक खंभे में चुनवा दिया। इसलिए कहा जाता है कि काल रावण की पार्टी से बधा था। पार्टी मतलब खंभे से। इसके बाद भी वो शांत नहीं हुआ। फिर आया उसने देखा कि कुबेर लंका के राजा थे, उस समय, तो उसने अपनी माता से पुछा कि ये जो मेरा भाई है कुबेर,ये इतना बड़ा राजा कैसे बन गया? उसकी मां ने कहा कि तपस्या से। तो फिर तपस्या करने लगा, बीस हज़ार वर्ष तक तपस्या किया भगवान शंकर की। तो भगवान शंकर खुश हुए , तो फिर उनसे भी वही वरदान मांगा। कि हमको कोई मार न सके। भगवान शंकर ने कहा ये मृत्यू लोक है, मृत्यु जरूर होगी, लेकिन तुमने जो सिर काट काटकर हमे चढ़ाया है, एक एक सिर के बदले तुम्हे एक एक करोड़ सिर मिलेंगे। वरदान देकर शंकर जी चले गए। लेकिन अमर होने का वरदान रावण को नहीं दिए। इसके बाद रावण जब अपने राज्य का विस्तार करना चाहा तो चढ़ाई कर दिया, लंका पर, उस समय कुबेर लंका के राजा थे। कुबेर ने सोचा अपने भाई से लड़ना उचित नहीं है, लंका को कुबेर ने रावण को दे दिया, और फ़िर अलकापुरी
बसा लिया अलग से। तो इस तरह से रावण लंका के अधिपति हुए। तो तुलसीदास जी लिखतें हैं कि लंका का राजा होता कौन है? सब नही हो सकते। कहते हैं,
हरि प्रेरित तेहि अवसर जातु धानि पति होई, सुर प्रतापी अतुल बल, राज करई ता सोई।।
लंका का राजा, भगवान की प्रेरणा से ही कोई निश्चरो का स्वामी, होता है, सब नही हो सकते। तो रावण होने के लिए रावण ने तपस्या की, तब जाकर इतना प्रभावशाली हुआ। क्योंकि जब जब जब राम का नाम लिया जाता है, तो रावण का भी नाम लिया जाता है। फिर उसने देवताओं को जीता।
देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥
पूरे देवताओं को जीता, देवताओं की जो देव कन्याए थी, सबको छीन कर लाया, और निसाचरो में वितरित कर दिया। देवताओं को जीत लिया, सारे देवता रावण के यहां सेवा करते थे।
वरुण कुबेर पवन धनु धारी, अग्निकाल जम सब अधिकारी।।
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।

सब सेवा करते थे, अग्नि भोजन बनाता था, वरुण जल बरसाता था, जो वायु के देवता थे, वो हवा करते थे, रावण को बोलना नहीं पड़ता था। केवल ताक (देख) देता था, उसके बाद उसका काम हो जाता था, सुखी सकल राजनीचर किन्हें, सारे रजनीचरों को सुखी कर दिया। सब कुछ उनमें बांट दिया। उसके बाद रावण चल दिया,
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥
जिन ब्राह्मणों ने श्राप दिया था, प्रतापभानु को निसाचर होने का, उन्हीं ब्राह्मण की बस्तियां जलाता था गौशाला देखता था, जला देता था। सारा अत्याचार ब्राह्मणों पर और साधुओं पर करता था।
साधुओं से खून टैक्स लेता था, और खून लेते लेते जब घड़ा खून से भर गया, तो गाड़ दिया जनकपुर में, फिर उस घड़े से ही सीता जी का जन्म हुआ। तो इस तरह से रावण का आतंक था, बहत्तर चौकड़ी राज्य किया। चार युग बहत्तर बार निकल जाय। इतने दिन तक राज्य किया।
ब्रह्म सृष्टि जह लग तनु धारी , दशमुख वस बरतही नर नारी।।
जहां तक ब्रह्मा की सृष्टि थी, सब रावण के वश में थे। इतना आतंक था रावण का। भगवान राम को जन्म लेना पड़ा, भगवान राम का अवतार हुआ। जब रावण के भय से व्याकुल होकर सभी देवता भगवान के पास पहुंचे, तो भगवान ने कहा स्तुति करो, पहले ब्रह्मा के पास गए, फिर ब्रह्मा जी ने शंकर जी के पास भेजा, वहां देवता लोग विचार करने लग गए
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।
कोई कहता है, वैकुंठ में रहते हैं भगवान, कोई कहता था, क्षीरसागर में रहते हैं। तो भगवान शंकर ने कहा, हे पार्वती उस समाज में मै भी था।
तेहि समाज गिरिजा मैं रहहु ,अवसर पाई वचन एक कहहु।
लेकिन अवसर ही नही मिल रहा था। जब अवसर मिला तो मैंने भी एक बात कही। क्या कहा भगवान शंकर ने?
हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होई मैं जाना।
भगवान सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है। लेकिन कैसे प्रकट होता है?
प्रेम से प्रकट होता है। तुम यहीं प्रेम करो, प्रार्थना करो, और भगवान प्रकट हो जायेगा। जिस भगवान को प्रकट करना है, वो कहां रहता है?
व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी,सत चेतन घन आनंद राशी।
अस प्रभु हृदय अछत अविकारी,सकल जीव जग दीन दुखारी।
वो सबके ह्रदय में रहता है। देवताओं ने प्रार्थना किया, तो भगवान ने आकाशवाणी दिया।
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥
मै अवतार लूंगा, इस प्रकार से भगवान का अवतार हुआ। तो पहले रावण का जन्म हुआ, फिर भगवान का जन्म हुआ। ऐसा नहीं की पहली बार ऐसा हुआ। जैसे भगवान राम ह्रदय में रहते हैं, ऐसे ही रावण भी, मोह भी,सबके ह्रदय में रहता है। तो रावण और राम दोनो हमारे अन्दर हैं। दोनो अलग अलग, नही बल्कि एक ही व्यक्ति हैं। जिस व्यक्ति के अन्दर राम प्रसूप्त है, उसके अन्दर रावण जागृत है, हर व्यक्ति के अन्दर दुर्गुण और सद्गुण रहते हैं। अगर उसके दुर्गुण प्रकट हैं, तो उसके सद्गुण छिपें हैं, उसकी बुराई छिपी हैं, तो अच्छाई प्रकट है। उसकी आसुरी संपद प्रकट हैं, तो उसकी दैवी संपद छिपी है। तो इसलिए राम और रावण एक ही अस्तित्व के, एक ही आत्मा के दो छोर हैं। एक ही है, दोनो, नाम अलग अलग हैं। जब आत्मा की शक्ति का कोई व्यक्ति दुरुपयोग करने लगता है, तो उसको हम रावण कहते हैं। और जब सदुपयोग करने लगता है, तो वही व्यक्ति राम है। तो राम और रावण अलग अलग नहीं है, तो फिर क्या है?
तो रावण का मतलब होता है, रोना, जो स्वयं रोता है और दुसरो को रुलाता है, इसलिए इसका एक नाम क्या ?रावण। हर व्यक्ति रोता है, किसलिये? कामनाओं की पूर्ती के लिए।हर व्यक्ती अपना दुःख रो रहा हैं, इसलिए हर व्यक्ति रावण है। खुद ही नही रोता दूसरो को भी रुलाता है। जब कोई व्यक्ति मर जाता है, तो पीछे वाले नही रोते उसके लिए ? पिता है, पुत्र है, पिता के लिए पुत्र रोता है,पुत्र के लिए पिता रोता है। पति के लिए पत्नी रोती है, पत्नी के लिए पति रोता है। तो जो ख़ुद रोता है और दुसरो को रुलाता है, इसका नाम क्या हैं? रावण। इसी का एक नाम और है दशानन। दशानन क्यों है? क्योंकि इसके दस शिर हैं। तो वास्तव मे जो कुछ है, हमारे इसी शरीर में हैं ।

हमारा शरीर क्या हैं?
मायिक प्रवृत्ति ही लंका है। शरीर ही सुव्यवस्थित ब्रह्माण्ड हैं। और इसको मन रुपी मय दानव ने बनाया है। लंका का निमार्ण मय दानव ने किया था। तो मायिक प्रवृत्ति ही लंका है,आशक्ति रुपी लंका ।
और रावण क्या है? मोह रुपी रावण , मोह कहता है, सब मेरा हैं। मैं ये प्राप्त करूंगा, मुझे ये प्राप्त होगा, मुझे ये चाहिए। व्यक्ति के अन्दर जबतक मै और मेरापन रहता है। मोह का मतलब संसार के प्रति आकर्षण। मोह का रूप क्या हैं? दस इन्द्रिय, दस सिर हैं। दस सिर का मतलब होता है, दसों इन्द्रियों की विषयोन्मुखी प्रवृत्ति । पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, पांच कर्मेंद्रियां हैं। इन दस इन्द्रियों का जो लगाव है, जब तक इन दसों इन्द्रियों की दिशा संसार की तरफ़ है, भोगों की तरफ़ हैं, तब तक ये क्या हैं? दशानन हैं। तो इसलिए रावण के दस सिर थे। रावण का एक सिर गधे का था। गधा मतलब,जड़ता। तो दसों इन्द्रियों की भोगमयी प्रवृत्ति, विषयोन्मुख प्रवृत्ति क्या हैं? यहीं रावण है। जैसे आंखे रूप देखती हैं, लेकिन रूप देखकर कभी तृप्त नहीं होती। एक प्रकार की जड़ता पकड़ लेती है। बदल बदल कर रूप देखने की आदत है। तो आंखों का काम हैं,रूप देखना। देखते ही क्या हो जाता हैं? आकर्षण हो जाता हैं, लगाव हो जाता है। इसी का नाम रावण हैं। कान शब्द सुनते हैं, जिन शब्दो में रूचि हो गई, अच्छा लगने लगा, तो उसको और सुनेंगे, फ़िर उन शब्दो से लगाव हो गया। ये विषय हैं कान का, ये जो लगाव हो जाता है, आकर्षण हो जाता हैं, आसक्ति हो जाती है, इसी का नाम रावण हैं। ऐसे ही जीभ स्वाद लेती है, तो स्वाद में भी लगाव हो जाता है,तो स्वाद के प्रति जो आकर्षण हैं , वो भी रावण का एक सिर हैं। ऐसे ही नाक गन्ध लेती है, सुगन्ध मिली, अच्छी लगीं तो, उससे भी आकर्षित हो जाते है, तो वो भी रावण का एक सिर है। ऐसे ही पांच ज्ञानेंद्रियां है , और पांच कर्मेंद्रियां हैं। हाथ है, पैर है, उपस्थ हैं मुख हैं। ये पांचों कर्मेंद्रियां द्वारा जिन जिन विषयों का हम ध्यान करते हैं, जैसे रूप देखते हैं, तो उस रूप को प्राप्त करने के लिए कर्मेंद्रिया प्रयास करती हैं। शरीर से आदमी प्रयत्न करता हैं, इसको पाने के लिए। इसलिए दसों इंद्रियां जबतक संसार में प्रवृत्त हैं, तबतक हर व्यक्ति दशानन हैं। लोग कहते हैं कि अपने अन्दर के रावण को मारो, सामाजिक मंच पर पोस्ट करते है, बाते करते हैं कि अपने अन्दर के रावण को मारो। बाहर के पुतले को मत जलाओ, तो बाहर का पुतला है, ही नही रावण। लेकिन जो बोलता है, जो लिखता हैं , उसके अन्दर भी ये रावण हैं। जो लिख रहा है, या पोस्ट कर रहा है, उसके अन्दर भी ये रावण हैं।ये न समझे कि मैंने पोस्ट डालके उपदेश दे दिया, दूसरे को कि अपने अन्दर के रावण को मारे। दूसरा कोई है ही नहीं,हर व्यक्ती के अन्दर ये रावण हैं। दसों इन्द्रियों की विषयोन्मुखी प्रवृत्ति ही रावण हैं। तो रावण को मारने का मतलब ये नही की बुराई पर अच्छाई की विजय हो गई। दुर्गुणों पर सद्गुणों की विजय हो गई, रावण मर गया,इतने से रावण नही मरता है। अच्छाई की विजय हो गई, बुराई पर, तो अच्छाई भी रावण हैं, ये अच्छाई भी रावण का एक रूप है। उसको भी समाप्त करना पड़ेगा। लोगों को भ्रम हैं कि बुराइयों को खत्म करो समाज से, रावण खत्म हो जायेगा। इसलिए जब से सृष्टि है, तब से लोग बुराइयों को खत्म करने में लगे हुए हैं। दुर्गुणों को खत्म करने में लगे हुए हैं, लेकिन आज तक ये कभी खत्म नहीं हुए।

क्यों खत्म नहीं हुए?
क्योंकि बाहर सृष्टि में अच्छाई और बुराई मौजूद रहेगी, कभी खत्म नहीं हो सकती। अच्छाई और बुराई का जो श्रोत है, वो हमारे अन्दर हैं। ये अच्छाई और बुराई अलग अलग टुकड़े मे नहीं है। जैसे नदी है, नदी के दो किनारें है, नदी लबालब बहकर चल रहीं है। दोनों किनारों के बीच में पानी चल रहा है। लेकिन दोनों किनारे भीतर भीतर एक दूसरे से मिले हुए हैं। वे अलग अलग नहीं है, ऐसे ही अच्छाई और बुराई अलग, अलग टुकड़े मे नहीं है, ऐसे ही राम और रावण अलग अलग व्यक्ति नहीं है। आत्मा का एक छोर राम है, और दुसरा छोर रावण है। इसलिए रावण जब मरा तो आप देखेंगे,
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं असंभव माना।
रावण का तेज निकलकर भगवान् राम के अन्दर समा गया।
इसका मतलब क्या था? रावण जिस तेज से, जिस बल से युद्ध कर रहा था, रावण के अन्दर कौन था? राम ही थे, राम ही राम से लड़ रहे थे , रावण नाम के लिए था, शरीर थोड़े ही रावण था।
जब रावण मर गया, उसका तेज निकलकर राम में आ गया,तो रावण के अन्दर कौन लड़ रहा था? राम ही लड़ रहे थे। आप देखे प्रमाण रामचरित मानस में, जब हनुमान जी, जाते हैं लंका में , तो रावण पूछता है, किसके बल से तुमने,अशोक वाटिका उजारी, अक्षयकुमार को मारा ? किसके बल के द्वारा,मेरे ही नगर में आकर लंका को उजाड़ा? हे बंदर मैं तुमको इतना असंक देख रहां हूं, कोई डर नहीं है तुम्हारे अन्दर?
तब हनुमान जी ने रावण को बताया,
सुन रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥
हे रावण जिसका थोड़ा सा बल पाकर ये माया, अनंत ब्रह्मांडो की रचना करती है, एक ही ब्रह्माण्ड की नहीं अनंत ब्रह्मांडो की।
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
और जिसका बल पाकर के ब्रह्मा सृष्टि की रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं, और शंकर जी संहार करते हैं।
और जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥
हे रावण, जिस परमात्मा का थोड़ा सा बल पाकर , तूने चराचर विश्व को जीत लिया है, और जिनकी प्रिय स्त्री का तू हरण करके ले आया है, मैं उसी परमात्मा का दूत हूं।
रावण उत्पात मचा रहा था, पुरी श्रृष्टि में। सारी सृष्टि पर बहत्तर,चौकड़ी राज्य किया, देवताओं के देव कन्या को हर लाया। साधु महात्मा का खून टैक्स ले रहा था, ब्राह्मणों की हत्या कर रहा था।
ये किसका बल पाकर कर रहा था? परमात्मा राम का बल पाकर। अर्थात रावण के अन्दर भी राम ही कार्य कर रहे थे। वो राम की शक्ती का दुरुपयोग कर रहा था। इसलिए भगवान को मारना पड़ा, अपनी शक्ति का जब कोई दुरुपयोग करता है, तो भगवान उसको समाप्त कर देते है। अपनी शक्ति वापस ले लेते हैं। तो रावण का तेज राम के अन्दर आ गया, मरने के पश्चात। तो इसलिए ऐसा मत समझो कि रावण का मतलब बुराई, और राम का मतलब अच्छाई, बुराई और अच्छाई दोनो एक ही अस्तित्व के दो पहलू है। जिस व्यक्ति के अन्दर तुम देख रहे हो बुराई काम कर रहीं है, उसी के अन्दर अच्छाई काम करने लगती है। शास्त्रों में इसके बहुत उदाहरण है। बाल्मिकी एक समय हत्या करते थे, डाका डालते थे, कौन थे? रावण थे। और जब तपस्या में लग गए, वही बाल्मिकी राम हो गए, ब्रह्म के स्वरूप हो गए।
उल्टा नाम जपत जग जाना, बाल्मीकि भए ब्रह्म समाना। तो राम अगर उनके अन्दर नहीं थे, तो वे राम के स्वरूप कैसे हो गए? तो समाज से बुराई कभी खत्म नहीं होती । क्योंकि ऐसा हम देखते हैं, जहां लोग बोलते हैं ऐसा समाज बनाओ , कि एक तरफ से सारे बुराई समाप्त कर दे। केवल अच्छाई, अच्छाई बच जाय। तो अगर अच्छाई बचेगी, तो बुराई भी बची रहेगी। क्योंकि ए दोनो एक ही है। बाहर समाज में इन दोनों को अलग अलग नहीं किया जा सकता है । भीतर भी अगर आप भजन करोगे, ध्यान करोगे, तो ऐसी बात नहि है की आपने रावण को समाप्त कर दिया, बुराई, एवं विकारों को समाप्त कर दिया। तो क्या अच्छाई लेकर आप जीते रहोगे?अच्छाई का भी त्याग करना पड़ेगा। इसलिए संसार में लोग निरन्तर प्रयास कर रहें हैं, रावण को जलाने का मारने का लेकिन रावण अभी तक समाप्त नहीं हुआ, और कभी समाप्त होगा भी नही। क्योंकि बाहर द्वैत है ,दो से दुनिया बनी है। अच्छाई और बुराई में से कोई एक नही रह सकता। जब रावण प्रकट होता है, तभी उसको समाप्त करने के लिए राम का जन्म होता है। जब रावण नही है, तो समाप्त करने के लिए राम की भी आवश्यकता नहीं है। लोग रामलीला देखते हैं, यदि उसमे रावण नहीं है, तो कोई रामलीला देखेगा, रामलीला अच्छी लगेगी ? नही लगेगी। केवल राम ही राम, अच्छे नहीं लगेगे, रावण जरूरी है।
बुराई है, अज्ञानता है, रावण कहो या दुर्गुण कहो, ये सब समाज में रहते हैं, और रहेगें और रहना भी चाहिए। इसलिए हमलोग राम के जन्म के लिए आशा करते हैं, भजन करते हैं , राम को प्राप्त करने की चेष्टा करते है। रावण का आतंक हुआ, तभी तो देवताओं ने भगवान से प्रार्थना की। तभी भगवान ने अवतार लिया। अगर रावण आतंक नहीं करता, देवताओं को मारकर नहीं भगाता, सबको प्रताड़ित नही करता, अत्याचार नहीं करता , तो भगवान प्रकट होते ही क्यों?
तस्य हेतुर-अविद्या ॥
अविद्या विद्या के जन्म का कारण है। दुर्गुण सद्गुणों के जन्म के कारण हैं। ऐसे ही रावण राम के जन्म का कारण है। अगर रावण नही है, तो राम की कोई अवश्यकता नही हैं। अब भीतर के रावण का वध कैसे होता हैं? भीतर के रावण को राम मारते कैसे है। उसके बारे में हम बताते हैं। जब रावण लड़ने के लिए आया, भगवान राम वहा पर पैदल खड़े थे, विभीषण उनके पास थे। यह देखकर विभीषण अधीर हो गए,
रावनु रथी बिरथ रघुबीरा।
देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥

रावण रथी है, और भगवान बिरथ हैं।
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना।
केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥

आपके पास रथ नही, है, पैरों में जूते नही हैं, आप रावण को कैसे जीतोगे?वो तो रथ पर सवार है। जब विभीषण ने ये बात पूछी राम से, तो भगवान राम ने विभीषण को बताया, की रावण कौन है? और वो कौन सा रथ है, जिसके द्वारा उस रावण पर विजय प्राप्त करनी है ,भीतर का रावण क्या हैं? तो उस रथ के बारे में भगवान ने वर्णन किया। हमे जब अपने अन्दर के रावण को समाप्त करना है, तो हमारे अन्दर का राम किन सद्गुणों से संयुक्त होना चाहिए? उनका रथ कौन कौन से सद्गुणों से युक्त होना चाहिए? भगवान राम ने उन सद्गुणों के बारे में विभीषण जी को बताया,इस प्रसंग को विभीषण गीता भी कहते है l, जिस ज्ञान को भगवान राम ने विभीषण जी को दिया।
वो रथ कौन सा है, जिससे रावण को जीता जाता है? इस रथ के बारे में भगवान बताते हैं, जिससे रावण जीता जाता है।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ॥
ये जो रथ है, जिसके बारे में भगवान बता रहें हैं, ये क्या है? ये हमारे अन्तःकरण के सद्गुण है, ईश्वरीय गुण हैं । उनको कैसे हमे प्रकट करना हैं? ये सब ईश्वरीय गुण जब हमारे अंदर आ जाते हैं, तब हम अपने अंदर के रावण को समाप्त कर पाते हैं। तो ये ईश्वरीय गुण क्या हैं, सद्गुण क्या हैं? सौरज, धीरज, तेहि रथ चाका।
सुरवीरता का मतलब होता है, पीछे न हटना। प्रकृति और पुरूष के संघर्ष में पीछे न हटना । महान विघ्न आने पर भी पीछे न हटना। इसको कहते हैं सुर वीरता, और धीरज किसको कहते है? किसी भी परिस्थिती में धैर्य न छूटे। महान विघ्न आने पर भी साधक अपने धैर्य को न छोड़े। इसको कहते हैं धीरज । ये दो पहिए हैं। तो वास्तव में अन्दर भगवान इसी रथ पर विराजमान होते हैं। भगवान हमारे अंदर कब विराजमान होते हैं? कब हमारे अंदर के रावण को समाप्त करते हैं? जब हमारे अन्दर सद्गुण आने लगते हैं। कौन से सद्गुण ? सुर वीरता के साथ लगे रहना, भजन में लगे रहना, और महान विघ्न आने पर भी पीछे न हटना, तो,सौरज धिरज तेहि रथ चाका.. और कौन सा सद्गुण?
सत्य शील दृढ़ ध्वजा पताका।
सत्य का मतलब होता है, वह परमात्मा, “सत चेतन घन आनन्द राशि” और शील का मतलब होता हैं, साधुता के गुण धर्म का उतर आना। जिस सत्य के प्राप्ती के लिए हम साधना, भजन कर रहें हैं , साधना भजन करते, करते जव साधूता के गुण धर्म जो उतर आते हैं उसे हम शील कहते हैं। ये क्या है? ये रथ के ध्वजा हैं। ध्वजा, राष्ट्र ध्वज के खिलाफ कुछ भी नहीं किया जा सकता। ऐसे ही सत्य के खिलाफ कुछ भी नहीं किया जा सकता। तो सत्य हमारे आचरण में आ गया। इसी को ध्वजा कहते है, इसी को शील कहते हैं। साधुता के गुण धर्म का उतर आना, अर्थात वो परमात्मा जो परम् सत्य है, वो हमारे आचरण में आ जाय।
फिर कहते हैं।
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे

रथ में क्या होते हैं? घोड़े होते हैं। कौन कौन से घोड़े होते है? बल, विवेक, दम और परहित। तो वास्तव में बल क्या हैं? आत्मबल ही एकमात्र बल है, भगवान का बल, परमात्मा का बल ही बल हैं। और कौन सा घोड़ा है? विवेक । विवेक का मतलब है, सत्य क्या है, ओर असत्य क्या है, इन दोनो को समझना और सत्य पर आरूढ़ रहना, ये है विवेक। और कौन सा घोड़ा है? दम और परहित।
दम का मतलब होता है, इन्द्रियों का दमन,जब भगवान की शक्ति को समझ गया साधक, इंद्रियों का संयम करे, इन्द्रियों का ज्यों ज्यों संयम करेगा, त्यों त्यों ये रथ विजय की तरफ़ आगे बढ़ेगा। तो इंद्रियों का दमन भी घोड़ा है। बाहर की गति चलकर होती है,जब घोड़ा दौड़ता है,तब होती है। लेकिन यहां अंदर गति तब होती है, जो इंद्रियां दौड़ रही है, उनका संयम करों, दमन करो, रोको, तब गति होगी । ये रथ तब चलेगा। इसके बाद कौन सा घोड़ा है? परहित।
परहित का मतलब है, प्रकृति पार प्रभु सब उरवाशी। परहित का मतलब ये नही है, किसी को कुछ दे दिया, कपड़े दे दिए, घर बनवा दिए या उपकार कर दिया। “परहित सरिस धर्म नहि भाई।
परहित का मतलब है, प्रकृति से परे जो हमारी आत्मा है, उसका हित। और उसका हित कब होता हैं? जब हम परमात्मा के चिंतन में लगते हैं, तब। तो यही तीनों घोड़े हैं।
छ्मा, कृपा , समता रज जोरे।

रस्सी क्या हैं? छमा, कृपा, और समता। क्षमा का मतलब होता है, जब साधक, साधना कर रहा है, क्रोध आ गया, कुछ अपशब्द बोल दिया, खुद की साधना बिगड़ जाती है, दिनभर उसी का चिंतन चलता रहेगा। छमा का मतलब है, क्रोध मत करो, क्षमा कर दो। जैसे विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे, सौ लड़के थे उनके, कुछ बात नही माने। उनको क्रोध आ गया, श्राप दे दिया, सौ लड़के भस्म हो गए। उसके बाद उनकी तपस्या भी नष्ट हो गई। क्रोध से क्या होता है? तपस्या नष्ट हो जाती हैं। इसलिए क्षमा करो, कोई भी बात, आ जाय कोई कुछ भी बोले प्रतिक्रिया मत करो। क्षमा कर दो, तो आप आगे बढ़ोगे। ये रस्सी हैं घोड़ों की। कृपा” का मतलब ये नही होता कि आप आशीर्वाद दो। कृपा का मतलब होता है, कर के पाना। जब तक तुम खुद भगवान को प्राप्त न कर लो, तब तक कर्तव्य में लगे रहना ही कृपा है। पहले अपने ऊपर कृपा करो अपनी आत्मा का उद्धार करो, तब दूसरे के ऊपर कृपा करो। इसके बाद समता। समता का मतलब होता है, समानता समत्व की स्थिती। समानता तब आती है, जब भगवान भीतर से प्रेरणा करने लगते हैं, सब कुछ बताने लगते हैं, तभी समानता की स्थिती आती है। “ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥ ईश्वर का भजन ही सारथी है, सारथी रथ को लेकर आगे बढता है। तो ये जो सद्गुण हैं, इनके द्वारा मोह पर विजय, संसार पर विजय के लिए आगे बढ़ते हैं। तो इसमें सारथी कौन है? इस रथ को चलाता कौन है? ईश्वरीय गुणों का बढ़ना होता कैसे हैं? भगवान की तरफ हम बढ़ते कैसे हैं? ईस भजनईश्वर का भजन ही सारथी है। भजन का मतलब होता हैं, मन को एकाग्र करना। नाम जप में, गुरू महाराज के स्वरूप स्मरण में । जब हम एकाग्र करते जाएंगे , त्यों त्यों ये सद्गुण हमारे अंदर बढ़ते जाएंगे।

बिरति, चर्म.. ढाल क्या है ?
वैराग्य (बिरति) । दिखाई दे रहा है, सुनाई दे रहा है, लेकिन बेकार का विचार मन में प्रवेश न कर पाए। दिखाई दे सुनाई दे लेकिन मन में कल्पना न हो। जब मन में कल्पना नहीं होगी, तो ये क्या है?वैराग्य। ढाल क्या करती हैं? जो तलवार का वार होती है, उसको रोक लेती है। इसी तरह से ये जो वैराग्य की ढाल है, ये जो बाहर के विकार का वार, तृष्णा का वार होता है, इसको रोक लेती है।
संतोष कृपाना.. कृपाण (तलवार)क्या हैं? संतोष। संतोष का मतलब होता हैं, सम और तोष। तोष मतलब तृप्ति, भगवान हमको संतुष्ट करने लगे। जिस परिस्थिती में भगवान रखना चाहें, साधक उसी परिस्थिति में जब रहने लगता है, तो उसको संतोष कहते हैं। भगवान तृप्त करने लगते हैं, उसको संतोष प्रदान करने लगते हैं। यहीं तलवार (कृपान) है।
और दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥
फरसा क्या है? दान । फरसे से काटा जाता है। तो दान का मतलब होता है, मन क्रम वचन से समर्पण । शरीर से,मन से वाणी से भगवान के प्रति समर्पित हो जाना। ये फरसा है। समर्पण भी,एक सद्गुण है।
दान, परसु, बुधी. शक्ति प्रचंडा..
बुद्धी क्या हैं? बुद्धी प्रचंड शक्ती है। बुद्धी भजन का निर्णय ले लिया तो प्रचंड शक्ती हो गई। सारी शक्ति शरीर की, मन की भजन में लगी रहेगी। और अगर बुद्धी ने विषयोन्मुखी निर्णय ले लिया, तो विषय में प्रवृत्त हो जायेगी। इसलिए बुद्धी प्रचंड शक्ती होती हैं। बर, विज्ञान कठिन कोदंडा.. विज्ञान रुपी धनुष, विज्ञान माने अनुभव, जिस स्तर पर हम खड़े है, भगवान जागृत होकर हमारा मार्गदर्शन करने लगे। इसको हम अनुभव कहते हैं, इसी को विज्ञान भी कहते हैं। ध्यान ही धनुष हैं। भजन करते समय, हमारा रुख, हमारी सूरत हमारा ख्याल कहा रहना चाहिए ? कि भगवान क्या बता रहें हैं, उसको समझने में। भगवान के आदेशों को समझकर हम जब भजन करेगें , तो इसी को धनुष कहा गया। जैसे,जैसे भगवान कहे, वैसे वैसे भजन करते जाओ, वैसे वैसे सबकुछ करते जाओ,ईश्वरीय निर्देशन का पालन। ये है विज्ञान रूपी धनुष।
तरकश क्या हैं? अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥ मल से रहित जो स्थिर मन है, वही तरकश हैं। जब मन स्थिर होता है, तो किसमे स्थिर होता हैं? संयम और नियम सिलीमुख नाना..

संयम और नियम, (यम और नियम) ये क्या है? ये बाण हैं। इन्हीं के द्वारा शत्रु का विनाश होता हैं। यम और नियम परिपक्व हो गए, तो हम शत्रु का विनाश कर सकते है। और
कवच अभेद विप्र गुरू पूजा। तेहि सम विजय उपाय न दूजा।।
सबसे प्रमुख कवच है, ये कवच क्या हैं? सदगुरु जो विप्र है,परम्ब्रह्म के परायण है , ऐसे सदगुरु की महापुरुष की पूजा। उनका ध्यान स्मरण, यही साधक का कवच है। यही सम विजय उपाय न दूजा.. इसके समान विजय करने का दुसरा उपाय नहीं है। लेकिन विजय करना किसको है, जीतना किसको हैं? क्या कोई बाहर रावण खड़ा था, जिसको जीतना lथा? कहते है नही।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर। जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर।।
संसार ही शत्रु हैं, और महा अजय है,मतलब बहुत कठिनाई से जीतने में आनेवाला हैं। अजेय का मतलब ये नही कि इसको जीता ही नही जा सकता। संसार जीतने का मतलब ये नही कि जो अनेक देश हैं, रूस, जर्मनी, जापान , अमेरिका , चीन इनको जीतने के लिए चलना। ये नहीं तो संसार ही शत्रु है,।
कौन सा संसार? संसार क्या हैं? वास्तव में.. तुलसीदास कह चिद-विलास जग बूझत बूझत बूझै।।
चित्त का जो पट पसार है, यही संसार है। तो हमारा चित्त जहां तक फैला हुआ है, वहीं तक संसार है। बाहर के संसार से मतलब नहीं हैं। आपका संसार वही तक हैं, जहां तक आपका मन लगा हुआ है।, आपका घर है ,परिवार हैं, नात रिश्तेदार, हैं, नौकरी है , जहां आपका मन लगा है, वही आपकी दुनियां हैं। बगल वाले से कोई मतलब नहीं है । जो मतलब है,आपको अपने से मतलब है। इसलिए आपका संसार है, मन का प्रसार। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं। इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।
उन पुरुषों के द्वारा जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया गया।
किन पुरुषो द्वारा? जिनका मन समत्व में स्थित है। मन के समत्व में स्थित होने से, और संसार जीतने से क्या मतलब है ? संसार को जीत लिया, तो रहा कहां वो व्यक्ति? कहां पर खड़ा था? कहते है कि इधर ब्रह्म निर्दोष और सम है,निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।
उधर इसका मन भी निर्दोष और सम की स्थिती वाला हो गया। दोषों से मुक्त हो गया, सम हो गया । इसलिए. तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।
तत्काल ब्रह्म में स्थित हो जाता हैं। तो संसार जीतने का मतलब है, मन को निर्दोष, सम अचल स्थिती में ठहरा देना। मन को संयमित कर देना। ये है संसार को जीतना। तो इसलिए..
सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें।।
भगवान राम कहते है, हे सखा विभीषण जिसके पास ऐसा धर्ममय रथ हैं, उसको जीतने से कोई नहीं रोक सकता। धर्म का मतलब है,ये सारे सद्गुण जिस व्यक्ती के अन्दर आ गए जो बताएं गए है,इस रथ में इसको कहते है, धर्ममय रथ, इसी को गीता में धर्ममय अमृत, कहा गया।
ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः।।

भगवान कहते हैं मुझे कौन प्रिय है? जो ये उपर्युक्त बताए हुए जो धर्ममय अमृत अर्थात् भक्त के जो लक्षण बताए गए, जो इस रथ में बताए गए हैं, वहीं गीता के बारहवें अध्याय में बताए हैं। उन सबको धर्ममय अमृत बताया। जैसे गीता में बताया, वैसे भजन करते,करते साधक अपने आचरण में लाता हैं,इन सद्गुणों को, इनको धर्ममय अमृत कहा। और यहां इस रथ में बताए गए सारे सद्गुणों को, जो अपने आचरण में ढाल लेता है, उसको धर्ममय रथ कहा। जिसके धर्म के आचरण के द्वारा ये सारे सद्गुण आ गए , इश्वरीय गुण आ गए,तो उसके लिए संसार में कोई शत्रु है ही नहीं,जिसको वो जीते। उसने जीत लिया जो जीतना था,किसको जीत लिया? महा अजय संसार रिपु.. संसार ही शत्रु था।

संसार क्या था? हमारे मन का प्रसार । उस मन के प्रसार को जीतने मतलब है,मन को एकाग्र कर लिया। नाम जपते, जपते ध्यान करते, करते चित्त को अचल स्थिति ठहरा दिया। और जैसे ही चित्त स्थिर हो जाता है, वैसे ही ये सारे सद्गुण उसके अंदर आ जाते हैं। तो किसको जीत लेता है? संसार रूपी शत्रु को । जिसको संसार रूपी शत्रु कहा गया, उसी को मोहरूपी रावण कहा गया।
मोहरूपी रावण और संसार रूपी शत्रु एक ही बात है। इन सद्गुणों से युक्त हो जाता है, साधक । तब जाकर इस मोहरूपी रावण पर विजय प्राप्त करता है। संसार रूपी शत्रु को जीतता है।
अब देखते हैं, जब रावण लड़ने के लिए भगवान राम से आया, तो मारा कैसे गया? रावण के अन्दर चार विशेषताएं थी।
एक तो उसकी नाभि में अमृत थी, दुसरी विशेषता थी,जब रावण लड़ने के लिए आया तो अनंत राम बनकर आ गया। अब राम पहचान ही नहीं पा रहे हैं, कि किसको मारें। और एक बार लड़ने के लिए आया तो अनंत हनुमान बनकर आ गया, हनुमान ही हनुमान से लड़ने लगे, मारने लगे।और फिर जब एक बार लड़ने के लिए आया तो अनंत रावण बनकर आ गया। ये चार विशेषता रावण की थी। अनंत रावण बनके जब आया तो सब भ्रमित हो गए बंदर,भालू,कि
सब सुर जिते एक दसकंधर। अब बहु भए तकहु गिरि कंदर॥

सारे देवताओं को तो एक रावण ने जीत लिया, अब ये अनन्त रावण, चलो अपनी अपनी गुफाओं में भागो। अब नहीं जीत सकते।
और क्या विशेषता थी रावण में, कि, उसके सिर कटते थे, और बढ़ते जाते थे, इसलिए रावण मर नही रहा था।
अब इन पांचों विशेषताओं को हम बताते हैं। सबसे पहले हम बतायेंगे कि राम क्या है, हमारे अंदर? जो रावण को समाप्त करता हैं।राम का मतलब, है,
व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी सत चेतन घन आनन्द राशि।
अस प्रभु ह्रदय अक्षत अविकारी, सकल जीव जग दीन दुखारी। राम ब्रह्म व्यापक जग जाना।

वह परमात्मा वह ब्रह्म कौन हैं ? राम है। सबके ह्रदय में निवास करता हैं। लेकिन प्रकट कैसे होते हैं?
नाम निरूपण नाम जतन ते, सोई प्रकटत जिमी मोल रतन ते। नाम का जप करो प्रकट हो जायेगा। राम किसके पुत्र थे? दसरथ के पुत्र थे। तो दसरथ के पुत्र होने का मतलब क्या? वास्तव में इस शरीर में इस मन में ही राम हैं, और इसी में रावण है। तो शरीर ही अवध है, और शरीर ही लंका है। जब शरीर में,भोगों मे, अशक्ति हो जाती है, तो यही शरीर लंका हो जाता हैं। दशो इन्द्रियों की विषयोन्मुखी प्रवृत्ति क्या है? मोहरूपी रावण हैं। और जब दशों इन्द्रियों का संयम करने लगते है तो संयम करने वाली प्रवृत्ति ही दशरथ हैं। तो दसों इन्द्रियों की निरोधमयी वृत्ति दशरथ है। लेकिन निरोध तो होगा नही विषयों में।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई। तो संयम करने के लिए दशरथ जी वशिष्ठ जी के पास गए, वशिष्ठ जी ने यज्ञ कराया , तो राम की उत्पत्ति हुई। तो यज्ञ कौन सा कराया?
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि”नाम का जप रूपी यज्ञ मैं हू। तो दशो इन्द्रियों के संयम के साथ ज्ञान रूपी वशिष्ठ इष्ट जिनके बस में हैं, परमात्मा जिनके बस में हैं, परमात्मा की जिनको प्रत्यक्ष जानकारी है, ऐसे सदगुरु क्या है वशिष्ठ है। उनकी शरण में हम जब जाते हैं, तो वो बताते है, कि यज्ञ करो। कौन सा यज्ञ ? नाम का जप रूपी यज्ञ। तो नाम का जप कितने प्रकार से होता है?
वैखरी, मध्यमा पश्यन्ती और परा। बोल के करना, जैसे,राम राम राम.. फिर धीरे धीरे करना, और फिर श्वास से, फिर परा वाणी। श्वास प्रश्वास में नाम का जप करना ही यज्ञ है। जब नाम जपते जपते हम श्वास प्रश्वास से नाम जपने लगते हैं, श्वास अंदर आई तो राम, श्वास बाहर गई तो राम, तो जो ह्रदय में आत्मा प्रसुप्त है, वो राम, वो परमात्मा, जो बात नहीं करता, जैसे ही दशो इन्द्रियों का संयम सधा वह ह्रदय का राम प्रकट हो जाता है, जन्म ले लेता है। दशरथ आनंदित हो जातें हैं। बाद में राम को राज्य देने की बात करने लगे। कहने का मतलब जब दशो इंद्रियां संयमित हो गई, इन्द्रियों का निरोध हो गया, फिर अनुभव रूपी राम,अनुभव की जागृति हो गई। अन माने अतीत, भव माने संसार, तो संसार से अतीत कर देने वाली जागृति हो गई। भव माने संसार, भव माने रावण , तो इस रावण से मुक्त कर देने वाली जो जागृति है, वह है राम। जागृति क्या हैं? जिस स्तर पर हम खड़े हैं , हमारा प्रार्थना हमारे नाम का जप ऐसा हो, कि नाम जपते जपते श्वास में,जैसे ही हमारा मन स्थिर हुआ, तो जिसका नाम राम है, वो हमारे ही हृदय से प्रकट होकर , हमारा मार्गदर्शन करने लगते हैं। ये करो ये मत करो, सही क्या है, गलत क्या है, सब भगवान बताने लगते हैं। तो भगवान जब बताने लग गए इसी को हम कहते है, राम का अवतार, राम का जन्म। तो जब रावण मारा गया, किसने मारा? हृदय में जो परमात्मा प्रकट हुआ, जो मार्गदर्शन करने वाली शक्ति है अनुभव रूपी राम के द्वारा ही जो संसार के प्रति आकर्षण है मोह है , समाप्त होता हैं। जब रावण लड़ने के लिए आया, अनन्त रावण बन गया। अनन्त रावण बनने का मतलब, कौन सी है, ये छठवीं भूमिका है, लंका काण्ड।इसके बाद उत्तर काण्ड सातवीं भूमिका। तो ये कैसी स्थिती है, जहां रावण को मरना है। अर्थात जब मोह समूल नष्ट होने की स्थिती आ जाती है,
तो सारे निशाचर मारे गए, केवल रावण बचा। लेकिन जब रावण लड़ने के लिए आया तो अपार सेना अपार निशाचर लेकर । क्यों, कि “मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला, मोह क्या हैं? मोह संपूर्ण व्याधियों का मूल हैं। किसी भी पेड़ को आप जड़ से काट दो ऊपर तना से, इसके बाद साल भर में आप देखेंगे कि दस गुनी शाखाएं तैयार हो गई, लिपटस के पेड़ को काट दो, नया लिप्टस तैयार हो जायेगा। तो ऐसे ही मोह सम्पूर्ण व्याधियो का मूल हैं। ये जीवित है तो सारे विकार फिर से तैयार कर लेगा। इसलिए मोहरूपी रावण अनन्त सेना लेकर आया। तो ये मोह क्या क्या, छलावा दिखाता है, भगवान राम के सामने? अनेक रावण बनकर आ गया। तो ये किसकी कहानी है? साधु की कहानी है। ये साधक के अन्तःकरण की स्थिती है, जब साधक छठवीं भूमिका में पहुंचता है। जो मुक्त होने की स्थिती में है। ऐसी स्थिति वाला साधक है,जिसका चित्त ध्यान में स्थिर है। और उस स्थिती में जो मोह का रुप होता है, वो कैसा होता है?
जिमि,जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार।।

रावण के जो सिर थे, जितना राम काटते थे, उतना बढ़ते जाते थे। तो सर का मतलब होता है, मस्तिष्क। मस्तिष्क का मतलब होता है विचार। जैसे आप देखेंगे कि कोई भी जलाशय है, भरा हुआ है,शांत है, हवा नहीं चल रहीं है। छोटा सा कंकड़ उसमे डाल दो, उसके बाद उसके अन्दर, लहर के बाद लहर, लहर के बाद लहर,पैदा हो जायेगी। ये क्या है? ये भी ऐसी ही स्थिती है, सिर का बढ़ना मतलब मोह के विचारों का बढ़ना।
मोह के विचारों का बढ़ना, मतलब संसार के प्रति आकर्षण का बढ़ना। तो जो साधक का चित्त एकदम शांत हैं। और चित्त की इस शांत दसा में अगर एक बार भी देख लिया, किसी विषय के तरफ़ कि ये क्या हैं? आश्चर्य से देख लिया, विचार कर लिया इसके बाद वो साधक अपने मन को रोकना चाहता है।
एक तरफ से मन को रोकना,है तो दूसरी तरफ लगाव हो जता है, दूसरी तरफ़ विचार करने लगता है, मन। दूसरी तरफ़ रोकने का प्रयास करता है, तो फिर तिसरी तरफ़ विचार करने लगेगा। तो शांत अन्तःकरण में अगर कोई भी विषय मुखी तरंग उठ गई। तो एक बाद दूसरी, दूसरी के बाद तिसरी उठती ही जाती है।
जिमि,जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि तिमि होहिं अपार। एक विचार को काटता है साधक दूसरा विचार पैदा हो जाता है फिर दूसरे को काटा तो तीसरा विचार पैदा हो जाता हैं, साधक व्याकुल हो जाता हैं। भगवान ने इस माया को जाना कि रावण के सिर बढ़ रहें हैं। फिर ऐसा बाण चलाया कि शिरो का बढ़ना बंद हो गया। तो ध्यान ही धनुष हैं परावाणी ही बाण है। जो भगवान की प्रेरणा से साधक लगा रहता है, तो ये जो मोह की प्रवृत्ति है जगह, जगह आकर्षण की, एक तरफ से हटाया दूसरी तरफ हो गया, ये धीरे धीरे शांत हो जाती हैं। इसके बाद अनेक हनुमान बन के आ गया। हनुमान बन के आने का मतलब है , वैराग्य ही हनुमान है। जब साधक की ये स्थिती होती हैं छठवीं भुमिका में , ध्यान लग जाती है अच्छी अवस्था है, तो उनके पास वैराग्य लेनेवाले साधक, साधु बनने वाले साधक आ जाते है।अब अगर साधू बनाने लग गया तो जो थोड़ी सी स्थिती जो बाकी है, रावण अभी मरा नहीं है, मोह अभी जीवित है । तो अगर साधु बनाने में लग गया,भजन कराने में लग गया, दूसरो को,तो मोह जीवित रह जायेगा। रावण नही मारा जायेगा। इसलिए भगवान ने इस माया को भी खत्म किया। धीरे धीरे साधक के मन में भगवान ऐसी प्रेरणा कर देते है कि अभी तुमको आगे बढ़ना है । तो वैराग्यवान साधकों का आना भी बंद हो जाता हैं। इस माया से भी साधक मुक्त हो जाता हैं। फिर अनेक राम बनकर आ गया। अनेक राम बनकर आने का मतलब होता है, अनुभव में आसक्ति हो जाना। जैसे साधक के ध्यान में दृश्य आते हैं। दृश्य आते हैं तो, भूत, भविष्य, वर्तमान की जानकारी आती हैं, तो जो भी दृश्य आयेगा, बता देगा कि आज ऐसा होनेवाला है । तो धीरे, धीरे क्या होता हैं, कि जो दृश्य आने लगे तीनों कालों की, जानकारी आने लगे अनुभव में, जैसे अनेक राम बनकर आ गए। अर्थात् अनुभव में आसक्ति हो जाती है।इसको देखकर दूसरो का कल्याण करने लग जाता है, साधक। जब भगवान तीनों काल की बात बता रहें हैं, तो कोई आकर पुछेगा कि मेरे बारे में बताओ। तो उसके बारे में जानने लगता, है, दूसरो को बताने में लग जाता है, तो इसी में अटक जाता है।, अच्छी अवस्था है, लेकिन ये भी किसका रुप है? रावण का रुप है। अनुभव देखकर दूसरे को बताने में लगा गया, तो फिर खुद कब पहुंचेगा? मोह कैसे समाप्त होगा? तो फिर वो ये वृत्ति त्याग देता है, और इस माया से भी निकल जाता है। फिर क्या हुआ?

नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥

विभीषण ने कहा, इसकी नाभि में अमृत है, इसलिए सर कट रहे हैं, फिर नए सिर पैदा हो जा रहे हैं। मर नही रहा हैं। तब भगवान ने क्या किया अंतिम उपाय? इकतीस अग्निबाण बाण मारा, फिर एक बाण जाकर रावण के नाभि का अमृत कुण्ड सोख लिया। फिर रावण मारा गया। तो इकतीस का मतलब होता है, ये जो नाभि में अमृत है, नाभि माने केंद्र, केंद्र माने जो हमारा चित्त शांत है, एकाग्र है,केंद्र में।चित्तवृत्ति के अंतराल में, जो मोह के संस्कार है,जो मोहमयी वृत्ति है। इस मोहमयी वृत्ति में जो हमारे आत्मा की शक्ती है व्यय हैं , फसी हुई है। तो इकतीस का मतलब होता है, ध्यान ही धनुष हैं परावाणी ही बाण है। ध्यान करते करते ऐसी अवस्था आ गई कि एकत्व और ईश के साथ एक हो गया। भजन करते करते परावाणी की अवस्था आ गई। जो अन्तिम संस्कार था। आत्मा ही अमृतस्वरूप था, जो रावण के नाभि में था। रावण माने मोह। जो मोह का अंतिम संस्कार था, और उस संस्कार में क्या थी? उस संस्कार में हमारे आत्मा की शक्ती व्यय थी । अन्तिम संस्कार जहां समाप्त हुआ , तो ईस के साथ एकत्व भाव आ जाता हैं। फिर मोह रूपी रावण सदा सदा के लिए समाप्त हो जाता हैं। फिर सत्य रुपी सीता, ईश्वरीय शक्ति प्राप्त हो जाती है। इस तरह से दसों इंद्रियां सदा, सदा के लिए संयमित हो जाती हैं। वो जितेंद्रिय हो जाता हैं। विषय समाप्त हो जाता हैं उसके लिए। रावण मारा गया। इस तरह से दशहरा, विजय दशमी , अर्थात दसों इन्द्रियों की विषयोन्मुखी प्रवित्ति सदा, सदा के लिए समाप्त हो जाती है। ऐसे ही जब भगवान जब भीतर से प्रेरणा करते हैं,, तो जो मोह का अंतिम संस्कार है, वो भी सब कट जाता हैं। अंदर का रावण समाप्त हो जाता हैं। और बाहर का रावण, अच्छाई बुराई तो बना ही रहेगा। कितना भी जलाते रहें। ये अंदर की बुराई को समाप्त करने का ही विधान है। हर व्यक्ती अपने अन्दर का रावण समाप्त कर सकता है, बाहर की बुराई को समाप्त नहीं कर सकता।

– स्वामी श्री राजेश्वरानंद जी महाराज।
श्री परमहंस आश्रम राजकोट गुजरात।

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