धनतेरस क्यों मनातें हैं?

धनतेरस (धनत्रयोदशी) के दिन का इतिहास ये है कि, आज ही के दिन भगवान का एक अवतार हुआ, धनवंतरी अवतार। धनवंतरी जी समुद्र मंथन के समय अमृत कलश लेकर सागर से प्रकट हुए। और फ़िर उस अमृत को देवताओं ने पीया। भगवान धनवंतरी के अवतरण के समय से ही ये त्यौहार धनतेरस मनाया जाता हैं।दीपावली के पांच दिन होते है, पहला धनतेरस, दुसरा नरक चतुर्दशी, तीसरा लक्ष्मी पूजन, चौथा गोवर्धन पूजा, पांचवा भाई दूज जिसको यम द्वितीया भी कहते हैं। ये पाच दिन होते हैं। इसमें से आज का जो दिन धनतेरस, का है। आज के दिन से हमारे भारत देश में, दिपावली शुरु होती है।लोग अपने घरों में नए, नए बर्तन खरीदते हैं, कोई झाड़ू खरीदता हैं, कोई सोना खरीदता हैं। उनका ये मानना है कि कुछ वस्तु खरीद कर लाते हैं,तो धन की प्राप्ती होती है,धन बढ़ता है। ऐसा मानकर के लोग इस त्यौहार को मनाते है। और शास्त्रों में प्रमाण हैं कि धनवंतरी भगवान हैं, अमृत कलश लिए हुए हैं। इस तरह से धनतेरस तभी से मनाई जा रही है। तो प्रश्न उठता है कि धनतेरस क्या है, धन क्या है, त्रयोदशी क्या है? कौन सा धन है जिसके आ जाने के पश्चात फिर कभी निर्धन नही होता ? और व्यक्ति सदा,सदा के लिए धनी हो जाता हैं। वो कौन सा धन हैं? बाहर लोग धन इकट्ठा करते ही रहते हैं। हर साल गरीब से गरीब व्यक्ति भी कुछ न कुछ खरीदता हैं, ऐसा सोचकर कि धन इकट्ठा हो जायेगा, अगली साल तक। लेकिन जो जैसा है, वैसा ही रहता हैं, किसी में कुछ फर्क पड़ता हैं, किसी में नहीं पड़ता है।और जो बहुत कुछ इकठ्ठा कर लिया, वह भी एक दिन खाली हाथ चला जाता हैं। तो धन क्या हैं? क्या व्यक्ती धन कमाने के बाद भी धनी हो पाता हैं? धन तो कमाता है, जीवन भर। साधन इकट्ठा करता है, सुख सुविधाएं इकट्ठा करता हैं। सोना, चांदी रूपया पैसा सब इकठ्ठा करता हैं। लेकिन अंत में सब धन यहीं रह जाता हैं। और अंत में उसका परिणाम क्या होता है? निधन होकर चला जाता हैं। निधन मतलब निर्धन, धन से रिक्त होना। जीवन भर धन कमाया और अंत में खाली हाथ गया । तो धन त्रयोदशी का जो शास्त्रों में प्रमाण है, और धन आता ही है, तो कौन सा धन आता है, जो समाप्त नहीं होता?
कबिरा सब जग निर्धना ,धनवंता न कोय , धनवंता सोइ जानिये ,राम नाम धन होय।
तो महात्मा कबीर की दृष्टी में धनवंता कौन हैं ? जिसके पास राम नाम का धन हैं। मीरा बाई जी कहती है, पायो जी मैने राम रतन धन पायो। वो उस समय जो हिंदुओं की सबसे बडी इस्टेट थी, राणा सांगा की,जिसमे महा राणा प्रताप भी हुए, उसकी पटरानी थी। और उस साम्राज्य को उन्होंने धन नहीं कहा। सोना, चांदी, सिंहासन सोने के थे, सब कुछ सोने का। राजा, रानी, राजकुमारी, महारानी हैं,इनके लिए सोने चांदी में उठना बैठना था, तो उसको मीराबाई ने नही कहा धन। उन्होंने कहा, पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। कौन सा धन पाया? नाम का रतन धन। इसी तरह से एक और व्याख्यान आता है। धन का देवता कौन हैं? कुबेर धन के देवता हैं। और जो धन का परम स्रोत हैं, वो हैं,लक्ष्मी जी। जिसके लिए दीपावली लक्ष्मी पूजन मनाई जाती है। ये कुबेर, धनवंतरी, लक्ष्मी के बाद आते हैं। लक्ष्मी प्रमुख हैं। तो ये सब धन के अलग, अलग रुप हैं। कुबेर का इतिहास भी हम जानेंगे कि कुबेर कौन हैं? तो सबसे पहले एक सुकेश नाम के राक्षस थे। उसने तपस्या किया, भगवान शिव की आराधना किया। भगवान खुश हुए, पूछे क्या चाहिए तुम्हे? तो सुकेश नाम के राक्षस ने कहा, हमे एक ऐसा महल चाहिए, जैसा किसी के पास न हो। इतना अच्छा महल हमको चाहिए। तपस्या किया महल के लिए। भगवान शंकर जी ने उसके लिए ऐसा महल प्रदान किया,विश्वकर्मा को बोलकर बनवा दिया लंका। और कहा कि ये है तुम्हारी लंका। सुकेश जब लंका में रहने लगे तो उनके सब राक्षस बढने लगे, लंका आने लगे । तो फिर राक्षसों का काम क्या हैं? देवताओं पर आक्रमण करना। श्रृष्टि में अत्याचार करना, वो सब करने लगे अपना काम। सब देवता त्रस्त होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान विष्णु ने चक्र सुदर्शन से राक्षसों को मारकर भगा दिया। राक्षस सब चले गए पाताल लोक। लंका खाली हो गई। इसके बाद बिश्वश्रवा एक ऋषि थे, भारद्वाज की पुत्री से बिश्वश्रवा का विवाह हुआ। उनसे उनको एक पुत्र हुए कुबेर। तो कुबेर ने तपस्या किया ब्रह्मा जी की। ब्रह्मा जी जब खुश हुए, पूछे क्या चाहिए? कुबेर ने कहा हम धनाध्यक्ष बनना चाहते हैं, दिकपाल बनना चाहते हैं। ब्रह्मा जी ने कुबेर को दिकपाल, बना दिया और धन का अध्यक्ष बना दिया। फिर कुबेर ने पूछा हम रहें कहां? ब्रह्मा जी ने कहा लंका खाली पड़ी है, जाकर वहीं रहो। कुबेर जाकर लंका में रहने लगे। और फिर कुबेर ने कहा हमको आने जाने के लिए साधन चाहिए। तो उस समय का हेलीकॉप्टर पुष्पक विमान कुबेर को ब्रह्मा जी से उपहार के रुप में मिला। और कुबेर रहने लगे लंका में। समय बीतता गया, फिर जो राक्षस पाताल लोक चले गए थे, सुकेश का परिवार लंबा चौड़ा बढ़ा। तो उसमें एक दैत्य था ,सुमाली। सुमालि की कन्या थी, कैकशी । कैकशी जब विवाह के योग्य हुई, तो सुमाली दैत्य ने सोचा कि लड़की है, तो किसी न किसी के आगे हाथ जोड़ना पड़ेगा, हम किसी के सामने हाथ नहीं जोड़ सकते,विवाह संबंध के लिए। कैकसी को कहा तुम जाओ, और अपने हिसाब से अपना वर चुन लो, फिर कैकसी को लेकर उसके वर की तलास में सुमाली चल दिए,कि जहां इसको अच्छा लगे, वहां विवाह करें। जब रास्ते में चले जा रहे थे, तो पुष्पक विमान से कुबेर अपने पिता विश्वश्रवा के दर्शन के के लिए चला जा रहा था। कैकशी ने देखा कि बहुत सुन्दर लड़का हैं, कैकशी ने अपने पिता से पूछा कि ये किसका लड़का हैं? तो सुमाली ने कहा ये विश्वश्रवा का पुत्र कुबेर हैं। फिर कैकशी ने कहा इतना ही सुन्दर पुत्र मुझे चाहिए। मुझे वहां भेज दो जहां ये जा रहा है। तो सुमाली दैत्य अपनी कन्या को, विश्वश्रवा के आश्रम में छोड़कर चला आया, विवाह नहीं किया छोड़ कर इसलिए चला आया कि जैसा वो चाहें अपने मन से विवाह करे। जब वो पहुंची आश्रम तो विश्वश्रवा ने पूछा क्या कारण है आने का? तो कैकसी ने कहा हमारे मन के भाव को समझ लो। तो विश्वश्रवा ने कहा तुम राक्षसी कन्या हो , इसलिए तुम्हारे पुत्र सब राक्षस होंगे। तो वो रोने लगी, उसने कहा यहां मैं इसलिए आई थी कि मुझे कुबेर जैसा पुत्र हो। तो बोले एक पुत्र हमारे जैसा होगा। इसके बाद उस कैकशी को चार पुत्र हुए। रावण, कुंभकरण और विभीषण जो विश्वश्रवा के तरह थे। और एक लड़की हुई सुपर्णखा हुई।
इस तरह का व्याख्यान हैं। इसके बाद रावण कुंभकरण तपस्या के लिए गए। तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्म जी आए । ब्रह्मा जी ने रावण से पूछा क्या चाहिए? रावण ने कहा हमको अमर कर दो। तो विधाता ने कहा अमर करने की शक्ति मुझमें नहीं है,कोई और वरदान मांगो। रावण ने दुसरा वरदान मांगा कि हम मनुष्य और बन्दर को छोड़कर और किसी के हाथों न मरे। विधाता ने ये वरदान रावण को दिया। इसके बाद विधाता ने कुंभकरण को देखा, तो सोचा कि,
जो एहिं खल नित करब अहारू । होइहि सब उजारि संसारू ॥
जो सरस्वती थी उसको बोले कि जाकर कुंभकरण के जीभ पर बैठ जाओ, जो मांगना चाहता है, न मांग पाए। सरस्वती जीभ पर बैठ गईं।
सारद प्रेरि तासु मति फेरी । मागेसि नीद मास षट केरी।
तो वो मांगना चाहता था इंद्रासन और मांग लिया निद्रासन। छः महीने मैं सोऊ और एक दिन जगु । विधाता तथात्सु, कह कर चल दिए। विभीषण भी तपस्या कर रहा था, फिर ब्रह्मा जी ने कहा, तुम भी मांगो। विभीषण ने कहा, मैं धर्म के रहस्य को जानना चाहता हूं। ब्रह्मा जी ने कहा तुम धर्म के रहस्य को जानोगे। अच्छी भक्ती करोगे भगवान को प्राप्त करोगे ओर अमर हो जाओगे। इसको कहा तुम अमर हो जाओगे, रावण ने मांगा फिर भी अमर होने का वरदान नही दिया। लेकिन विभीषण को अमर होने का वरदान मिला। क्यों? क्योंकि जो भगवान की भक्ती करता है, वो अमर हो जाता हैं। इस तरह से ब्रह्मा जी वरदान देकर चले गए। फिर सब राक्षस धीरे, धीरे आकर रहने लगे। जब रावण का राज्य आया, तो वह पुरी श्रृष्टि पर अत्याचार करने लगा। फिर सब राक्षस लोग आपस में विचार करने लगे, और फिर जब रावण तपस्या वरदान पाकर आया, तो सुमाली ने कहा ये लंका हम लोगों की है। इसमें तुम्हारा भी हिस्सा है, जिसमें कुबेर रहता हैं। जाओ अपना अधिकार मांगो। रावण ने कहा कुबेर मेरा बड़ा भाई हैं, लेकिन बहुत समझाने पर गया। कुबेर ने कहा तुम भी रहो। उसी लंका में कुबेर भी रहता था, रावण भी रहता था। जब रावण रहने लगा, तो पाताल लोक के जितने भी राक्षस थे सब भर गए आकर। इधर कुबेर की जो पार्टी थी उनको मानने वाले थे, वो लोग भी उसमे रहते थे। तो रावण जब वहां रहने लगा, तो उसको मानने वाले जो उसके अनुयायी थे, वो भी उसमे आकर बस गए। रावण के अनुयाइयो ने कहा ” वयम रक्षामि” हम रक्षा करेगें, इसलिए कि हम राक्षस हैं। कुबेर के अनुयाइयो ने कहा “वयम
यक्षामि” हम यश को प्राप्त करेंगे क्योंकि हम यक्ष हैं। फिर क्या हुआ? आपस मे झगड़ा होने लगा कुबेर और रावण में , कुबेर ने मार दिया फिर विश्वश्रवा के पास गए दोनों, और कुबेर ने कहा कि,ऐसी बात है, रावण झगड़ा बहुत करता हैं । तो विश्वश्रवा ने कहा कुबेर से कि तुम लंका छोड़ दो, तुम दूसरी जगह जाकर कहीं रहो। कुबेर लंका छोड़कर जाकर रहने लगे अलकापुरी में । और लंका रावण की हो गई। इसके बाद पूरी लंका राक्षसों से भर गई। इसके बाद फिर एक बार रावण ने आक्रमण किया,
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा।
तो जो पुष्पक विमान जो कुबेर के पास था, उसको जीत कर लें आया। इस तरह से रावण का राज्य स्थापित हुआ। और कुबेर अलकापुरी में रहने लगे।फिर भगवान को अवतार लेना पड़ा और रावण का बध हुआ। एक कहानी ये है और एक कहानी,धनवंतरी अमृत कलश लेकर जो अवतरित हुए वो हैं। इस तरह से ये कथानक है। तो वास्तव में धनतेरस,धनत्रयोदशी, सबसे प्रमुख धन क्या हैं? भगवान श्री कृष्ण कहते हैं।
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च।
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत

दो प्रकार की संपादाएं , हर व्यक्ति के अन्दर अनादि काल से हैं। दैवी संपद और आसुरी संपद। तो हर व्यक्ति धनी हैं, ये दो धन सबके अन्दर हैं।अब इनमे से एक धन हमेशा जागृत रहता हैं। जिसके पास आसुरी संपदा जागृत रहता है, तो दैवी सम्पदा प्रसुप्त रहती हैं। और जिसके अन्दर दैवी संपद जागृत रहता हैं, तो आसुरी संपद प्रसुप्त रहती हैं। तो भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कि दैवी संपद विमोक्षाय, दैवी संपद किसके लिए कही गई? मोक्ष के लिए कही गई। निबन्धायासुरी मता, आसुरी संपद किसके लिए कही गई? बन्धन के लिए। ये दोनो ही धन हैं, ये दोनो संपादाएं रहती कहां हैं?
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन् दैव आसुर एव च। भूतों के, प्राणियों के स्वभाव दो प्रकार के हैं। जिसके अन्दर दैविय संपद कार्य करती हैं, वो देवताओं जैसा है, वह देवता हैं। और जिसके अन्दर आसुरी संपद कार्य करती है,वह असुर है। तो ये संपदायें मनुष्य के स्वभाव के अन्तराल में रहती हैं। स्वभाव जिस समय में जिस व्यक्ती के अन्दर जैसा रहता हैं, उस समय वहीं संपद कार्य करती है। तो दैवी संपद का मतलब होता हैं, अहिंसा है, सत्य है,अक्रोध हैं, त्याग है,शांति है, दूसरे की निंदा न करना, प्राणियों के अन्दर दया की भावना, सरलता ये सब दैवी संपद है। और क्षमा, तेज ईश्वरीय तेज का मिलना, अनुभवी उपलब्धि, भगवान के आदेशों का मिलना, तत्वज्ञान के लिए निरन्तर ध्यान में स्थिती, ये सब दैवी संपद है।इसी को आत्मिक संपत्ति भी कहा गया। इसी को आत्मिक धन भी कहा गया। और ये सम्पत्ति कैसी हैं? स्थिर संपत्ति है। एक बार किसी के पास आ जाय,तो इसका नाश नहीं हैं। क्यों नाश नहीं होता? क्योंकि दैवी संपद विमोक्षाय”ये मुक्ती के लिए हैं। तो इसलिए वास्तविक धन क्या हैं? दैवीय संपद आत्मिक संपद।
आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर संपत्ति हैं। आत्मिक सम्पत्ति कहो, दैवी संपद कहो, एक ही बात है। ये हर व्यक्ति के अन्दर हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये दैवी संपद हमको कैसे प्राप्त होती है। हमे करना क्या हैं, इसके लिए? तो जैसे आज धनत्रयोदशी है, त्रयोदशी मतलब दस और तीन तेरह, त्रयोद्शी इसे कहते है। आज के दिन धन आता हैं। एक तो त्रयोदशी बाहर है, जिसको आप मना रहें हैं। और एक हमारे शरीर के भीतर हैं, दस इंद्रियां, मन, बुद्धी और चित्त । इनके अंतराल में जब तक आसुरी संपद कार्य कर रही हैं, तो हमारा स्वभाव असुरों की तरह रहेगा। और जब दैवी संपद कार्य करती हैं , तो स्वभाव देवताओं के जैसा रहेगा।तो इन तेरहों के अन्तराल में जब दैवी संपद आ जाती है, तो ये है धनत्रयोदशी। लेकिन ये दैवी संपद आती कैसे हैं? इसका श्रोत क्या है? तो उसके लिए सबसे पहले जो छब्बीसो लक्षण हैं,देवी संपद के, आत्मिक सम्पत्ति के, ऐसे कोई महापुरुष मिले, जिन्होंने तपस्या करके, भजन करके देवी संपद के, आत्मिक सम्पत्ति के छब्बीसो लक्षण जिनके अंदर आ गए हैं, अर्थात् आत्मा को,जिन्होंने प्राप्त कर लिया हैं।
आत्मिक सम्पत्ति के बाद क्या है? आत्मा की प्राप्ती है । सबसे परमधन क्या हैं? आत्मा।
उसी के लिए दैवी संपद है। दैवी संपद मतलब, भगवान ने कहा कि तू दैवी संपद को प्राप्त हुआ, इसलिए मुझे प्राप्त करेगा। तो ये आत्मा की प्राप्ती कराती है। तो सबसे प्रमुख धन आत्मा ही है। जहा तक नात नेह और नाते सब मनिहै राम के नाते। नेह नाते जो भी संबंध हैं, जब तक आत्मा इस शरीर में हैं, तभी तक हम लोग मानते है। जब आत्मा निकल गया तो शरीर मिट्टी, कोई महत्त्व नहीं। तो इसलिए परमधन क्या है? आत्मा। उसी को परमात्मा कहते है। आत्मा का निवास कहां हैं? हम सबके अन्दर।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।

तो वो सबसे बड़ा धन हैं। परमात्मा कहो, आत्मा कहो, इसी को आत्मिक सम्पदा कहा गया, इसी को दैवी संपद कहा गया। इस आत्मा की प्राप्ती के लिए जो सद्गुण है, वह भी धन हैं। उसको दैवी संपद कहा गया। दैवी संपद को हम प्राप्त कैसे करें? जब तक हम मनुष्य नही होते,।
अगर मनुष्य शरीर हमांरे पास नही है, तब तक हम दैवी संपद आसुरी संपद दोनो से कोई मतलब नही। क्योंकि ये दोनो मनुष्य के स्वभाव हैं। मनुष्य ही इसे प्राप्त करता हैं, बाकि जीव नहीं। इसलिए दैवी संपद,सबसे प्रमुख धन हैं, आत्मा, परमात्मा,लेकिन परमात्मा की प्राप्ती के लिए दूसरे नंबर का धन क्या है? दैवी संपद, आत्मिक संपद। इसको कहते है। और उस दैवी संपद को हम कब प्राप्त करेंगे? जब तक हमारे पास मनुष्य शरीर मिली है, तभी तक प्राप्ती सम्भव है, और तीसरे नंबर का धन क्या हैं? मनुष्य शरीर। और मनुष्य शरीर में दो दशाएं हो जाती हैं। एक तो आत्मिक सम्पत्ति, स्थिर संपत्ति, भगवान के नाम का जप, नाम का धन, ये एक धन हो गया। और दुसरा धन क्या हैं?
गो धन गज-धन, वाजि-धन,
गो धन, गज धन, वाजि धन मतलब
बाहरी संपत्ति। ये बाहरी संपत्ति भी हम तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब हमारे पास मनुष्य शरीर हो। और जानवर है तो उसको कोई मतलब नही, खुटे से बंधा है, घास डाल दो। शेर पहले भी गुफा में रहते थे, आज भी वही रहते है। उनको धन संपत्ति से कोई मतलब नही। ये मनुष्य का स्वभाव है। तो बाहरी संपत्ति के लिए भी हमको ये शरीर चाहिए। तो शरीर क्या है? सबसे प्रमुख धन हैं। ये भी एक धन हैं। और शरीर में भी सब अंगों की अपनी अपनी कीमत है, करोड़ों रुपए लेकर भी कोई अपनी आंख नहीं दे सकता। तो किसी व्यक्ति के पास आंख नहीं हैं, कानों से बहरा हैं, तो उस व्यक्ती के लिए धन संपत्ति का कोई मतलब नही हैं। कोई जन्मजात बीमार है, बेड पर पड़ा जिन्दगी बीता रहा है, करोड़पति का लड़का हैं, उसके लिए धन संपत्ति का कोई मूल्य नहीं हैं। तो इसलिए सबसे प्रमुख धन क्या हैं? सभी धनों को प्राप्त करने के लिए संसार में शरीर। पहला सुख निरोगी काया, दुसरा सुख घर में माया, बाहरी संपत्ति, तीसरा सुख, पुत्र आज्ञाकारी, ये बाहरी तीन सुख कहे गए। पहला धन शरीर। और शरीर में भी कौन सा धन प्रमुख है? बचपन भी नही, हैं
जोबन धन पावणा दिन चारा ।
ये जो जवानी अवस्था है, सबसे प्रमुख है। ये जब चली गई, इसके बाद फिर वृद्धावस्था में करोड़ रुपए लेकर भी आप कुछ नहीं कर सकते। तो धन का उपयोग भी इस जवानी अवस्था में होता हैं। सबसे ज्यादा कमाया भी
जाता है । इसलिए शरीर धन है, शरीर में युवावस्था धन हैं। और,गो धन गज धन वाजि धन, बाहरी संपत्ति । पहले गाय रहती थीं संपत्ति के नाम पर, अब कार आ गई, गाड़ी आ, गई। पहले गज, रहते थे, घोड़े रहते थे, अब उनका स्थान गाड़ियों ने ले लिया। पहले घुड़साला घोड़ों को साफ करने के लिए होते थे, अभी गैरेज होते है। गाड़ियों को साफ करने के लिए। ये सब चीजें बदल गई। धन परिवर्तित हो जाता हैं। तो सबसे प्रमुख क्या है, शरीर भी एक धन हैं। लेकिन इस शरीर का उद्देश्य क्या हैं? बाहरी संपत्ति तो हमने अर्जित कर लिया सोना चांदी, रुपया, पैसा इकठ्ठा कर लिया,और अंत में छोड़ के चले जाना हैं। तो इस शरीर से हमे क्या अर्जित करना हैं? वास्तविक सम्पदा क्या हैं? आत्मिक संपत्ति । आत्मिक सम्पत्ति माने आत्मा, परमात्मा, उसी को अमृत कहा गया। इसलिए जब धनवंतरी अवतरित हुए समुंद्र मंथन से तो अमृत कलश लेकर पैदा हुए। तो ये धनत्रयोदशी है, उन्हीं के नाम से है, उनकी जन्म तिथि हैं, कुबेर का भी जन्मतिथि है। आज के दिन दोनों का जन्म हुआ। धनवंतरी अमृत कलश लेकर पैदा हुए। अमृत के लिए समुद्र मंथन किया गया। सारा झगड़ा अमृत कलश के लिए था। तो प्रमुख धन क्या था? अमृत कलश। तो अमृत क्या हैं? भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा, कि तुम जीतोगे तो महामहिम की स्थिती मिलेगी, और हारोगे तो देवत्व मिलेगा । तो अर्जुन ने कहा कि पृथ्वी का साम्राज्य क्या,तीनो लोको का साम्राज्य मिले फिर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूं, जो मेरे इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को, राग द्वेष को दूर कर सके। ये सब कुछ मिल जायेगा तो भी हम दुखी तो रहेंगे। तो भगवान ने कहा कि नही अमृत मिलेगा। ये पृथ्वी का साम्राज्य नही मिलेगा अमृत मिलेगा। समुंद्र मंथन का भी परिणाम क्या हैं? अमृत। तो यहां पर भी अमृत के लिए युद्ध हो रहा है। महाभारत में अर्जुन लड़ रहा है, कौरव पाण्डव लड़ रहे हैं, अंत में मिलेगा क्या? अमृत की उपलब्धि। और समुंद्र मंथन हो रहा है । उपलब्धि क्या है? अमृत। सबसे बड़ा धन, अमृत हैं। तो इसी अमृत को आत्मिक संपत्ति कहा गया, दैवी संपद कहा गया, इसी को आत्मा का ज्ञान कहा गया। तो सारा जो कुछ भी हैं इस जिन्दगी मे, इस जीवन का सार क्या हैं? अमृत का ज्ञान, आत्मा का ज्ञान, आत्मा की प्राप्ती । तो आत्मप्राप्ति के लिए हमें क्या अर्जित करना हैं? आत्मिक सम्पत्ति, दैवी संपद, सद्गुण। क्योंकि बिना सद्गुणों के, आत्मिक संपत्ति की, आत्मा की प्राप्ती नहीं हो सकता। और उसी के लिए ये सब कुछ हैं। तो इसलिए धनवंतरी क्या थे? धनवंतरी वैद्य थे। तो वैद्य कौन होता हैं?
सदगुर बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा।।
जब हम एक परमात्मा में श्रध्दा को स्थिर करके भजन करते हैं, नाम जप करते हैं ।
क्योंकी इस शरीर में और भी क्या , क्या कीमती चीजें हैं? ये शरीर है, युवावस्था हैं, ये तो धन हैं ही।
तो तेरी हीरा जैसा श्वाशा बातों में बीती जाय। एक, एक श्वास क्या है हीरा है। वो भी धन है। तो ये श्वास हीरा कब होती है? जब श्रृद्धा स्थिर करके व्यक्ति नाम का जप करने लगता है। पहले वैखरी से जपा फ़िर मध्यमा से जपा , फिर पश्यन्ती से जपा। पश्यन्ती में जब श्वास अंदर गई तो ॐ बाहर आई तो ॐ,जब श्वास में नाम ढल जाता है, तब एक, एक श्वास क्या हो जाती हैं? हीरा हो जाती हैं। तो ये भी एक धन है।
तेरी हीरा जैसी श्वासा बातो में बीती जाय ।
तो जब हम एक परमात्मा में श्रध्दा को स्थिर करके भजन करते हैं, नाम जप करते हैं, तो धनवंतरी वैद्य, अर्थात् सदगुरु ही वैद्य हैं , सदगुरु की प्रेरणा काम करने लगती है। उनमें विश्वास हो जाता हैं। तो धनवंतरी का मतलब होता है,आध्यात्मिक,संपदा,धन।
कौन सा धन ? आन्तरिक धन। वही सद्गुण,आध्यात्मिक सम्पत्ति उनमें प्रवेश मिल जाता हैं। जब उनमें प्रवेश मिलने लगा साधक को, सद्गुण अर्जित होने लगा, आत्मा में प्रवेश मिलने लगा,तो ये एक अवस्था है, ये धनवंतरी हैं। तो धनवंतरी क्या थे ? वैद्य थे। बाहर का रोग तो जाता रहता है, आता रहता हैं। तो असली वैद्य क्या है? सदगुरु वैद्य बचन विश्वासा”और रोग क्या है?
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।। मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला ।
काम हैं, क्रोध हैं, लोभ है, मोह हैं, ये सब जो विकार हैं, ये क्या हैं? ये रोग हैं। और इसी सबको मिलाकर क्या कहते हैं? भवरोग। और इस भव रोग से मुक्त कराने वाला कौन है?
धनवंतरी। अर्थात जब हम आत्मिक धन में प्रवेश करने लगते हैं, आध्यात्मिक सम्पत्ति, दैवी संपद में हमारा प्रवेश होने लगता है, अंतरण होने लगता है, आसुरी सम्पत्ति से निकल कर व्यक्ती दैवी सम्पत्ति में, आत्मिक सम्पत्ति मे जाने लगता हैं, आत्मीक सम्पत्ति अर्जित करने लगता हैं। वो अवस्था कौन सी है?
धनवंतरी की अवस्था। सदगुरू के मार्गदर्शन में दैवी सम्पत्ति अर्जित करने लगता है, तो ये वैद्य की स्थिती हैं। वैद्य क्या करता है? इलाज करता है। तो यहां पर जब आत्मिक सम्पत्ति अर्जित होने लगती है, तो ये है धनवंतरी, आध्यात्मिक संपत्ति में जब साधक का प्रवेश होने लगा, तो वो धनवंतरी हैं। और यहां किसका उपचार होने लगता है ? काम है, क्रोध है, लोभ हैं, जो अन्दर संस्कार पड़े है,जो विकार है, उनका उपचार होने लगता है।
क्यों? क्योंकि देवताओं ने असुरों को मारा, राम की पार्टी ने रावण का बध किया। तो आसुरी संपद का बध कौन करता हैं ? दैवी संपद, आत्मिक संपद। इसलिए आत्मिक संपद आने लगीं । दैवी संपद आने लगीं,और इस अवस्था को क्या कहते है? धनवतरी। मतलब आसुरी संपद, दैवी संपद, आत्मिक संपद में परिवर्तित होने लगती है। उस अवस्था का नाम धनवंतरी हैं। और ये वैद्य हैं। वैद्य क्यों हैं? क्योंकि इसी अवस्था में आकर के काम, क्रोध, राग, द्वेष,अहंकार जो रोग हैं, इनका निदान होने लगता है। ये समाप्त होने लगते है। और जब ये समाप्त हो जाते है, काम क्रोध राग द्वेष तो धनवंतरी अमृत लेकर प्रकट हुए। तो आत्मा ही अमृत स्वरूप हैं।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं,
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
ये शरीर क्या हैं? मरने, जन्मने वाला है , और आत्मा ही अव्यक्त हैं,शास्वत सनातन है, वही अमृत हैं। तो शरीर के रहते, रहते आत्म तत्व की प्राप्ती, आत्मा की प्राप्ती यहीं असली धन की प्राप्ती हैं। लेकिन नाम जपते, जपते जब आसुरी संपद से व्यक्ती दैवी संपद में प्रवेश करता है, तो धनवंतरी हो गया। और जब काम क्रोध राग द्वेष पर विजय प्राप्त करता है, तब सभी रोग काम क्रोध राग द्वेष का निदान हो गया। तो आत्मा ही अमृत स्वरूप हैं , परम धन हैं उसकी प्राप्ती हो गई। किसमे प्राप्ती होती है? दस इंद्रियां मन बुद्धी और चित्त,त्रयोदशी।
दस इंद्रियां मन बुद्धी और चित्त हैं इसके अंतराल मे आत्मिक सम्पत्ति आई और फिर अमृत तत्त्व की प्राप्ती हो गई, ये धनवंतरी है। असली धन परमात्मा की प्राप्ती हो गई। तो इसी तरह से जो रावण कुबेर का वृत्तांत हैं। कुबेर क्या हैं? सबसे पहले कुबेर रहता था लंका में। तो शरीर का जब जन्म होता है, ये जो शरीर है, ये एक सुव्यवस्थित ब्रह्माण्ड हैं। और इसमें आशक्ती रूपी लंका है। लेकिन जब तक आशक्ति नही है, जब तक रावण नही है, लंका रावण की नहीं है। तब तक आशक्ति नही है। तो कुबेर का मतलब होता हैं , राग द्वेष से रहित स्थिती, विकार से रहित स्थिती । इसलिए रामायण में कहा गया है, बालक रूप राम कर ध्याना। कैसे राम का ध्यान? बालक रुप। राम युवावस्था में भी है, योद्धा भी हैं , राजकुमार भी है, लेकिन तुलसीदास जी कहते हैं, बालक रुप राम कर ध्याना। तो बालक रुप का मतलब होता हैं, निर्विकार स्थिती जिसको परमहंस कहते है। विकारों से रहित। बालक का उदहारण क्यों दिया? कि जैसे दो साल का बालक हैं, उसमें काम क्रोध राग द्वेष कुछ नही होता। कोई विकार नहीं होते।
तो कुबेर मतलब, विकारो से रहित अवस्था। ये बचपन में रहती है। जब बच्चे पैदा होते हैं, तो कोई विकार नहीं रहता, उसके अंदर।
कुबेर क्या है? धन का मालिक हैं। बचपन में सब प्रकार का धन, दैवी संपद उस बच्चे में रहती है। किसी का भी बच्चा हो देखने में बहुत अछा लगता हैं, प्यारा लगता हैं, लेकिन फिर क्या हो गया? फिर हो गया रावण। उसी कुल में। उसी कुबेर का दुसरा भाई कौन हो गया? रावण पैदा हो गया। तो विश्वश्रवा से रावण पैदा हो गया। विश्वश्रवा मतलब विश्व की सरंचना करनेवाला।
सरंचना दो प्रकार की होती हैं। बाहर की श्रृष्टि पैदा करोगे तो, ये काम क्रोध राग द्वेष। और भीतर की सरंचना श्रृष्टि पैदा करोगे तो दैवी सम्पद का स्वामी कुबेर है ,जो अध्यक्ष है, दैवी संपद का।तो वो गुणों की श्रृष्टि होगी। बाहर दुर्गुणो की श्रृष्टि होगी। बाप एक ही हैं,विश्वश्रवा। विश्व का सृजन। तो विश्व के दो रुप है। दैवी संपद और आसुरी संपद। सद्गुण भी उसी विश्व के अंदर आते हैं, उसकी रचना हमारा मन करता है,और दुर्गुणों की भी रचना हमारा मन करता है। दोनों विश्वश्रवा के पुत्र हैं। पहले विकार से रहित अवस्था रहतीं है,जब बच्चा पांच साल तक रहता है। कोई विकार नहीं, रहता,दैवी संपद का धनी होता है, सद्गुणों का धनी होता हैं। और जैसे जैसे बढ़ता जाता है, वैसे वैसे फिर रावण पैदा हुआ, कुंभकरण पैदा हुआ़, फिर विभीषण और उसके लड़के बच्चे, मेघनाथ, अहिरावण , लाखो नाती पनाती पैदा हो गए। मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला पूरी लंका को असुरों ने घेर लिया, कवर कर लिया। इसके पहले इसका मालिक कुबेर था।
तो पहले बच्चा विकार से रहित होता है। ये स्थिती है, लेकिन जैसे, जैसे बड़ा होगा तो फिर घर चाहिए रहने के लिए, फिर विवाह करेगा, फिर बच्चे होगे, पूरा फस जाता हैं। पूरी माया को रच डालता है। और फिर ये क्या हो जाता हैं? राक्षसों का स्वामी रावण हो जाता हैं। वही जो पाच साल का बच्चा था, तो वो देवता था,कुबेर था। लेकिन वही धीरे धीरे बढ़ते, बढ़ते रावण हो जाता है, पूरी रचना कर लेता हैं। एक लड़का एक महात्मा की सेवा करता था। सेवा करते, करते एक दिन वो बोला कि आज मैं तुम्हारी सेवा में नही आ पाऊंगा। और एक महीने आया ही नहीं। जब एक महीने के बाद आया, तो गया सेवा में तो महाराज जी ने पूछा कि इतने दिन से कहां था? तो उसने कहा मेरे सम्बंध करने वाले, विवाह करने वाले आ गए थे। महात्मा जी ने कहा, आज से तुम हमारे काम से चला गया। फिर गया, तो एक महीने बाद आया महात्मा बोले की क्या हुआ? तो उसने बोला हमारी शादी पक्की हो गई। तो बोले कि अब तू अपने मां बाप के काम से चला गाया। क्योंकि व्यक्ती का एक ही मन है। जब सेवा में लगा रहता था, तब कोई नही था, तो सेवा में लगा हुआ हैं। लेकिन जब चिंता हो गई कि शादी होने वाली है,तो विचार आने लगे कि व्यवस्था करें। और जब शादी हो गई, फिर मां बाप से ध्यान हट जाता हैं, तो फिर अपने बारे में,और अपनी पत्नी के बारे में सोचने लगता है। और फिर जब एक दिन बाद गया तो बोला बच्चा पैदा हुआ हैं। तो महाराज जी ने कहा आज तू अपने काम से भी चला गया। अब तुम जो कुछ भी कमाओगे अपने बच्चे के लिए कामाओगे। तो अपने काम से भी चला गया। और जब औरत आ गई तो अपने मां बाप के काम से चला गया। और जब शादी तय हो गई तो महाराज जी के काम से चला गया। तीनों से चला गया। तो ये क्या हैं? ये मोह का विस्तार हैं। ये रावण के परिवार का बढ़ना हैं। फिर उसने कहा, नही गुरू महाराज औरत क्या है?लक्ष्मी हैं। तो उन्होंने कहा नही कोई लक्ष्मी नही है,सब स्वार्थी होती हैं, परीक्षा लेकर देख लो। आता जाता था, आश्रम में, भजन की विधि जानता था, महाराज जी ने बता दिया उपाय कि तुम्हे कैसे परीक्षा लेनी हैं। तो गया घर पे, उसके बाद उसकी औरत ने बोला कि तुम्हारी आज्ञा हो तो कुछ अच्छा अच्छा बनाऊं। बोला हां बनाओ। बढ़ियां, बढ़ियां भोजन उसने बनाया। और उसके बाद जब खाने का समय आया , तो जैसा गुरू महाराज ने कान में बताया था, परीक्षा लेने के लिए, तो दो खंभों के बीच में अपने पैर को अटका लिया, जैसे निकले ही नहीं। और उसके बाद अपना श्वास बंद कर लिया,मरने का बहाना करके। और उसके बाद जब उसकी पत्नी ने देखा कि अरे ये तो मर गया। तो उसने सोचा कि अब तो ये मर ही गया है,इतने मेहनत से छप्पन प्रकार का बनाएं हैं, पहले इसको खा लें। बाद में रोना धोना शुरू करेगें। तो फिर उसने खा पी लिया और फिर रोना शुरू किया। रोना शुरू किया, तो गांव के लोग इकट्ठे हुए , बोले कि क्या बात हैं? उसने बोला कि पता नहीं अच्छे भले थे, खाना पीना हम तैयार किए , ये लेट गए इधर। बहुत देर रोने धोने के बाद ये हुआ कि ले जाया जाय इन्हे स्मशान, तो उसने जो पैर अटकाया था, लोग पैर निकालने लगे, निकले ही नहीं पैर। लोग बोले क्या करें, खंभे को काट दे? उसकी औरत बोली कि अब ये तो मर ही गए हैं, इन्हें तो बस लेकर जलाना ही हैं। खंभा दुबारा कौन बनाएगा,अब ये तो है भी नहीं। इसलिए पैर ही काट दो, खंभे को क्या काटना? इसके बाद जब पैर काटने लग गए, तो वो उठ के बैठ गया। बोला कि अब तुम्हारा रास्ता अलग हमारा रास्ता अलग। हम अब जाते हैं,आश्रम सेवा करेगें। तो ये है मोह का विस्तार । पहले जब सब पैदा होते हैं,तो सभी कुबेर रहते हैं। जो बच्चे रहते हैं, दो साल के पांच साल के कोई विकार रहता हैं किसी के अंदर? नहीं। उसी स्थिती में फिर जाना है। ये परमहंस अवस्था है। तो जब रावण का बध हुआ भगवान राम राजा हुए। तो जब भगवान राम को अयोध्या जाना हुआ, तो कुबेर ने अपना पुष्पक विमान भेजा।जब रावण मारा गया तो पुष्पक विमान फिर कुबेर के पास चला गया था।
फिर उसने भेज दिया भगवान राम के पास। फिर भगवान अपनी पूरी सेना को बैठा लिए। फिर भी एक जगह खाली। पूरी सेना बैठने के बाद भी एक जगह खाली रहती थी, कितनी सेना थी?
पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
अठारह पदम बंदरों की सेना के सेनापति थे। इतनी संख्या तो पूरी पृथ्वी के सारे जानवरो की नहीं होती, अगर गिनती करके देखो तो,जितनी संख्या बंदरों के सेनापति थे। तो सेना कितनी रही होगी?
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर । पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
अठारह पदम सेनापति । तो सब बैठे कर गए पुष्पक मे, जब उतर गए अयोध्या में। तब भगवान ने कहा, अब तुम कुबेर पहि जाऊ। फिर से चला जा कुबेर के पास। कुबेर का रोल इतना ही था, कि रावण पैदा हुआ़, बाद में मर गया, फिर वही कुबेर का विमान भगवान राम को अयोध्या छोड़कर वापस कुबेर के पास चला गया। आज का धनतेरस उसी कुबेर के नाम पर मनाई जाती हैं। तो इस तरह निर्विकार स्थिती बचपन में रहती है। आप जितना अंदर जाओगे, उतना ही निर्विकार, अवस्था, जैसे पाच साल का बच्चा रहता है, थोड़ा बहुत कुछ न कुछ खटपट रहती है मन में, और पीछे जाओगे चार साल का तीन साल का,दो साल का, और सन्नाटा एकदम शांति। फिर दो महीने, फिर एक महीने फिर गर्भ में चले गए। एकदम परम शांति, कुछ भी नहीं करना हैं, भोजन भी नहीं करना है। तो ये अवस्था है,परमहंस का, वहां पहुंचना है।
ये समाधि क्या हैं? वापस जैसे आदमी सुन्न हो जाता है, जब गर्भ में रहता है। ऐसे ही जब समाधिस्थ हो जाता है, ध्यानस्थ हो जाता हैं, तो उसी अवस्था को प्राप्त हो जाता है। तो ये जब पैदा होता है, तो कुबेर है, और उसके बाद जब रावण भर गया, तो वापस फिर कुबेर बनना है न?
कुबेर मतलब राग द्वेष से रहित, विकारों से रहित स्थिती। तो जब लंका का स्वामी रावण हो गया राजा, तो कुबेर कहां रहने लग गए? अलकापुरी में रहने लगे। तो कहने का अर्थ है कि जब आशक्ति हो जाती हैं, कि शरीर के संसाधन जुटाएं । तो शादी विवाह लड़के बच्चे सब हो गए। रावण के परिवार हो गए। तो वो जो पहले की निर्विकार स्थिति कहा चली गई?
अ लखा पुरी, लखने (देखने)में नही आती है,लेकिन वो सबके अन्दर प्रसुप्त है। इसीलिए तो हर व्यक्ती परमहंस बन सकता है।
नही बन सकता? परमहंस एक अवस्था हैं, निर्विकार एक अवस्था हैं,राग द्वेष से रहित एक स्थिती हैं। और वो स्थिती बचपन में रहती हैं। लेकिन जैसे जैसे मोह बढ़ता जाता है, संसार मे आशक्ति बढ़ती जाती है, वैसे वैसे रावण बढ़ गया, और कुबेर को भगा दिया। वो रहने लगे अलकापुरी। वो स्थिती है, दैवी संपद है, लेकिन लखनेे में नही आती है। इसी शरीर मे वो स्थिती है।
कब आयेगा लखने मे ? जब रावण मर जायेगा तब। तब पुष्पक विमान राम के पास गया। तो रावण को मारने के लिए राम का अवतार हुआ।
रावण क्या है, हमारे शरीर में?
जो आशक्ती है, विषयों के प्रति, विषयों का चिंतन ये रावण हैं। और शरीर क्या है? शरीर सुव्यवस्थित ब्रह्माण्ड हैं। और इसमें आशक्ति क्या है? लंका। पहले शरीर मे आशक्ति, लगाव होता है। शरीर में आशक्ति है, तभी तो गर्भ में आता है, तभी तो विवाह करता है, तभी बच्चे करता है। मतलब मेरा घर चाहिए, मेरे बच्चे चाहिए, मेरा परिवार चाहिए। मैं और मेरा, तू और तेरा इसी का नाम रावण का परिवार है। इसी का नाम माया है, ये बढ़ता चला जाता है। और कुबेर चले गए अलकापुरी, लेकिन वो स्थिती है,दैवी संपद हैं, आत्मा हैं लेकिन पता नही चलता है,कि कुछ अपना भी हैं, कि नही, केवल शरीर दिखता हैं। शरीर में आशक्ति, सब कुछ यही। रावण का परिवार बढ़ गया। और इसके बाद फिर क्या हुआ? सब देवता त्रस्त हो गए रावण के आतंक से। तब प्रार्थना किए, भगवान ने आकाशवाणी दिया कि मैं अवतार लूंगा।
भगवान का अवतार हुआ, भगवान ने क्या किया?
असुर मारि थापहि सुरन्ह। असुरों को मारा, रावण को मारा, इसके बाद राम राज्य की स्थापना हुई।
कहने का मतलब हैं कि मोह रूपी रावण, इसी को दशानन कहते है, दसों इन्द्रियों की विषयोन्मुखी प्रवृत्ति। विषयों में आशक्ति हैं तो रावण, भगवान में आशक्ति है, तो दशरथ। एक ही शरीर में दोनों। तो दशरथ के पुत्र कौन हुए? राम हुए, जिन्होंने रावण का बध किया। तो दसों इन्द्रियों की निरोधमयी वृत्ति भी इसी शरीर मे। जब ये इंद्रियां विषयोन्मुखी हैं। तो विषयों में आशक्ति क्या है? लंका हैं। तब यहीं शरीरधारी व्यक्ती और यही जीवात्मा क्या? रावण हैं। और जब दसों इन्द्रियों का संयम करने लग गया, तो यहीं दशरथ हो गया। संयम विषयों में तो होगा नही।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।
विषयों में जब एक वस्तु मिल गई, तो दूसरी चाहिए, दूसरी मिल गई तो तिसरी चाहिए। विषयों में कभी निरोध नही होगा। इसलिए दसों इन्द्रियों की निरोधमयी प्रवृत्ति दशरथ है। निरोध करने के लिए गुरू ने बताया, तब राम की उत्पत्ति हुई। गुरु बशिष्ठ मतलब जिसके बस में इष्ट हैं। जो परमात्मा को पा लिए है, ऐसे गुरू बशिष्ठ है । उनकी शरण में गए दशरथ, तो विधि बता दिए, फिर राम का जन्म हुआ। विधि क्या बताएं? यज्ञ कराया, कौन सा यज्ञ? “यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि, जहा जपि यज्ञ योग मुनि करई, कौन सा जप यज्ञ? नाम का जप रूपी यज्ञ। ॐ या राम कोई एक नाम जपो, श्रध्दा स्थिर करो, सदगुरु के प्रति ,जिनके वश में ईष्ट है। उनके प्रति समर्पित होकर जब हम नाम जपेंगे, तो यहीं राम नाम क्या हैं? राम नाम मणि दीप धरि, जीह देहरी द्वार।
जीभ पर हमने क्या रख दिया ? नाम।जीभ से बोलने लग गए राम राम राम या ॐ ॐ ॐ । दोनो का अर्थ एक ही हैं। तो ये हमने दीया जला दिया। जैसे आज के दिन दीया जलता हैं न। तो ये दीया क्या हैं? नाम का जप। किससे? जीभ से जब जपने लगोगे तो दीया जल गया। जब बैखरी से जपना शुरू किया, दीया जल गया। इसके बाद ये दीया कहा से जलता है? नाम जपना जैसे शुरू करोगे, सदगुरू मिलेंगे, उनमें विश्वास हो जायेगा । यहीं नाम वैखरी, से बोलकर, फिर धीरे धीरे, फिर श्वास में । श्वास में जपना क्या हैं? श्रृंगी ऋषि का यज्ञ। श्रृंगी ऋषि ने यज्ञ कराया तो राम का जन्म हुआ। श्रृंगी ऋषि का यज्ञ क्या हैं? श्वास प्रश्वास का जप। श्वास अंदर गई तो राम बाहर आई तो राम, दूसरे विचारों को नही आने देना। जब श्वास में मन रुकने लगा। तो यही श्वास क्या हो गई ? एक एक श्वासा जात हैं तीन लोक के मोल। जब श्वास अंदर गई तो राम बाहर आई, तो राम ये तीन लोक का मोल हो गया। एक श्वास की क़ीमत क्या हैं? इतनी कीमती, इतना बड़ा धन हैं, कि शरीर से निकल गई तो शरीर मिट्टी हो जाता हैं। और जब श्वास अंदर गई तो ॐ बाहर आई तो ॐ तो ये तीन लोक का मोल हो गई। ये क्या हों गई? हीरा जैसा श्वास हो गई। राम नाम मे अंतर हैं कहीं हीरा हैं कही पत्थर हैं। हीरा राम नाम क्या होता हैं? जिस परमात्मा के लिए ,हम राम नाम जप रहें हैं। वो हमारे ह्वदय से जागृत हो जाय। अर्थात् राम का जन्म हो जाय। राम जपते,जपते राम प्रकट हो जाय। तो दशरथ के यहां राम का जन्म हुआ। दसों इन्द्रियों का संयम करने लगे, नाम जपने लगे। नाम जपते,जपते भगवान जागृत हों गए। जिसका नाम राम है,वो हमारे हृदय से जागृत हो गए, हमारा मार्गदर्शन करने लगे, प्रकाश देने लगे, कि ये करो ये मत करों। ये सही है, ये गलत हैं। भगवान अंग फड़कन के द्वारा, स्वप्न के द्वारा प्रेरणा करने लगे। तो जो नाम जप रहें थे, न उसका प्रकाश कहा पहुंच गया ? भीतर और बाहर। तुलसी दास जी कहते है,
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार | तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ||
उजाला आप भीतर भी चाहते हो,अर्थात् भगवान को पाना चाहते हों, तो भी प्रकाश मिलेगा, भगवान बताएंगे कि ये करो ये मत करो। इसके साथ साथ संसार में भी समृद्धि पाना, चाहते हो या और भी जो कुछ चाहते हों, वहां पर भी भगवान अनुभव में बताएंगे, श्वप्न में बताएंगे कि ये करो ये मत करो। ये प्रकाश हैं। नाम जप का दीया जलाया, जीभ से जपा। प्रकाशित कहा हुआ? भीतर और बाहर। भगवान बताने लग गए,तो ये धन नाम रतन धन हो गया।और फिर इसके बाद प्रकाश मिलने लग गया ये धन आया। और जब नाम जपने लग गया, श्वास अंदर गई तो ॐ बाहर आई तो ॐ । तो फिर दैवी संपद आने लगा,आत्मिक संपद में प्रवेश होने लगा। आत्मिक संपद माने सद्गुण, सद्गुण माने देवता, दैवी संपद। दैवी संपद आने लगी तो दैवी संपद में प्रवेश मिलने लगा। जब दैवी संपद बलवती होते है, सदगुण बलवती होते हैं, तो दुर्गुण समाप्त होते है, नष्ट होते हैं। तो इसलिए असुरो को मारा भगवान राम ने, और देवताओं को स्थिर किया। यही उनका अवतार हुआ। तो भगवान जब प्रकट होकर नाम जप के साथ, साथ बताने लगते हैं, तो आसुरी संपद काम क्रोध, राग द्वेष समाप्त होने लगते हैं। और दैवीय संपद सद्गुण बढ़ने लगते हैं। सद्गुण बढ़ना, सद्गुणों मे प्रवेश करना, आध्यात्मिक संपत्ति में प्रवेश करना, आध्यात्मिक धन में प्रवेश करना, आध्यात्मिक सम्पत्ति का आना, आत्मिक गुणों का आना, आत्मिक सम्पत्ति का आना, यहीं धन तेरस हैं। कहां पर आता है ये धन? दस इंद्रियां और मन बुद्धी चित्त में। मन नाम जप रहा है, चित्त नाम जप रहा है, बुद्धी ने नाम जप का निर्णय लिया। दसों इन्द्रियों को संयमित करके नाम जप रहें हैं, तो ये आत्मिक सम्पत्ति हमारे अंदर आने लगती है। इसलिए ये धनत्रयोदशी हैं। आत्मिक सम्पत्ति जब आ गई सद्गुण आ गए,तो ये धनत्रयोदशी हैं। सद्गुणों के आने का उद्देश्य क्या हैं? अमृत की प्राप्ती, रावण का बध । जब दैवी संपद आ गई,सद्गुण आ गए, तो राम ने किसको मारा? रावण को। कौन से रावण को? मोहरूपी रावण को, जो संसार में आकर्षण हैं, विषयोन्मुखी प्रवृत्ति हैं । भगवान के मार्गदर्शन में चलते,चलते काम क्रोध राग द्वेष मोह।
जब मोहरूपी रावण समूल रुप से नष्ट हो जाता हैं, तो फिर ये आत्मिक सम्पत्ति सदा,सदा के लिए हमको प्राप्त हो जाती हैं। फिर कभी नष्ट नही होती। फिर वो महापुरुष इस संसार में रहता है, उसके द्वारा जीवों का कल्याण होता हैं, दैवी संपद की जागृति होती हैं, दुसरो के अंदर। और जब शरीर से नहीं रहते हैं, तो भी आप वहा जाओगे , तो आपकी इच्छाओं की पूर्ती होगी। बाहरी धन भी अपको वहां से प्राप्त होगा । और भीतरी धन भी उसी महापुरुष से मिलेगा।
किससे? जिसने ये अवस्था प्राप्त कर ली, जिसने अपने अंदर के रावण को समाप्त कर दिया, जिसके अंदर राम विराजमान हो गए। जब राम विराजमान हो गए,ह्वदय में तो राम राज्य हो गया। तो कुबेर फिर से आ गया। मतलब निर्विकार स्थिती। जब विकार समाप्त हो गए तो कौन स्थिती आ गई, निर्विकार स्थिती। निर्विकार स्थिती क्या हैं? कुबेर हैं। जैसे पाच साल का,तीन साल का बच्चा हैं, उसी स्थिती में परमहंस हो गया। जब परमहंस स्थिती आ गई, निर्विकार स्थिती आ गई तो धन का मालिक कुबेर हो गया। वो महापुरुष भी धन का मालिक हो गया। कौन? कुबेर, जो बैर भाव से रहित हैं, जो विकारों से रहित है। वो परमहंस क्या हो गया? सम्पूर्ण दैवी संपद का धन का मालिक। बाहर के धन का भी मालिक हैं, और भीतर के भी धन का मालिक। बाहर की भी आपको इच्छा रहतीं हैं, महापुरुष के पास जाओगे कामना करोगे, तो उनके स्मरण से कामनाओं की पूर्ति होती है, उसके भी मालिक हैं। और भीतर आपको भगवान चाहिए ? तो दैवी संपद के आत्मिक धन की जागृति होती है। उसके भी वो मालिक हैं। ऐसे महापुरुष सबके मालिक होते है। तो आपके अंदर भी उस दैवीय सम्पत्ति की जागृति कर देते है। इसलिए ये धनतेरस हैं, आत्मिक सम्पत्ति आ जाती हैं। कलयुग में वर्णन मे आया हैं।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
तपसी धनवंत थे, और गृहस्थ जो थे, दरिद्र थे। कलियुग में।
तो गृहस्थ कौन हैं? जो काम क्रोध राग द्वेष से ग्रषित हैं, तब तक वो गृहस्थ हैं। तब तक वो दरिद्र है, सदा दरिद्र रहेगा। और जब वो तपस्या में लग गया, तब आत्मिक धन धीरे, धीरे आने लगेगा। तब वो धनवंत हो जायेगा। तपसी धनवंत, मतलब वो तपने लग गया, नाम जपने लग गया, तो वही जो दरिद्र था, ग्रषित था, काम क्रोध राग द्वेष से। नाम जपते जपते, दैवीय संपद आ गई, वो धनवंत हो गया। आत्मिक सम्पत्ति का मालिक होने लगता है। तो इस तरह से, कुबेर मतलब बैर भाव से निर्विकार स्थिती आ गई,तो फिर वो धन का स्वामी हो गया। फिर उसका मन कैसा हो जाता हैं? पुष्पक विमान
पुष्पक विमान क्या था? कितने भी लोग बैठते जाओ, कभी भरता नहीं था। यहां जितनी भी ट्रेन है, गाड़ी, पूरा भरा हुआ मिलता है, छोटी गाड़ियां भी त्यौहार के समय फुल भरी मिलती है। लेकिन पुष्पक विमान की विशेषता थी, कि वो कभी भरता नहीं था। एक बैठने का स्थान सदा खाली रहता था। लाख, बैठ जाओ, करोड़ बैठ जाओ, हजार करोड़ बैठ जाओ,तो भी, एक जगह खाली रहतीं थीं। तो ये क्या हैं?
ये बाहर की स्थिती नही हैं। जब परमहंस स्थिती प्राप्त हो जाती है, निर्विकार स्थिती प्राप्त हो जाती हैं । धन का मालिक कुबेर हो जाता हैं। दैवी संपद का मालिक, स्वामी हो जाता हैं। उसको आवश्यकता नहीं हैं, इसलिए मालिक हैं। जब तक आवश्यकता है, तब तक मालकी नही हैं। जब हमे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, तब मालकी हैं। भगवान के प्राप्ती के बाद की स्थिती है। तो फिर उस महापुरुष का जो विशुद्ध मन हैं, वही पुष्पक विमान हैं। उसमें परागों की भरपूरता हैं। पराग का मतलब जैसे पेड़ में पराग होता है, एक पेड़ से दुसरा पेड़ पैदा होता है, उसको पराग कहते हैं। ऐसे ही महापुरूष में,
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्
वो किस बात का धनी हैं? उसमें सर्वज्ञता का अर्थात् परमात्मा का बीज रहता है । वो महापुरूष जो परमहंस होता है, कुबेर रहता हैं, विकारों से रहित रहता है। उसमे कौन सा धन रहता है? उसमे सर्वज्ञता जो परमात्मा हैं, उसका बीज भरा रहता है। और इतना बीज रहता है,कि वो कभी खाली नहीं होता। बाहर के बीज खाली हो जाते है।
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञ्त्वबीजम् ।
तस्य वाचक: प्रणव: ।।

ॐ का जप उसका नाम है। तो एक हजार आदमी को महापुरूष दीक्षित कर दे, मतलब नाम जप, ध्यान , साधना प्रदान कर दे, तो भी उनके पास उतनी ही बचेगी। एक करोड़ आदमी को अपनी विद्या प्रदान कर दें, नाम जप ध्यान की विधि जागृत कर दें, तब भी उनके अंदर एक सीट खाली रहेगी। तब भी एक आदमी को हमेशा दिक्षित कर सकते हैं। दुनिया के सारे लोग एक साथ भजन करने लगे, उनमें भी नाम जप, ध्यान विधि जागृत कर दे, फिर भी एक कोई आदमी दूसरे ग्रह से आए तो उसको भी जगह खाली मिलेगी। उसको भी दैवी संपद की आत्मिक संपद की जागृति कर सकते हैं। ये जो अवस्था हैं पुष्पक विमान हैं। विशुद्ध मन परमात्मा में स्थित हो गया तो परब्रह्म की भरपुरता अर्थात् परमात्मा की स्थिती प्रदान करने वाला जो बीज हैं , परमात्मा की जागृति करने वाला जो बीज हैं । वो करोड़ों लोग भजन करेगें तो भी,वो एक साथ जागृत हों जायेगा। कितने भी लोग भजन करें,वो जागृति प्रदान करते जाएंगे। वो कभी भरेगा नही वो सीट खाली हैं। महापुरूष कितने भी लोगों को शिष्य बना ले, कभी भरता नहीं हैं सीट खाली ही रहता हैं। तो महापुरूष इतनी बड़ी सम्पदा के मालिक है। तो बाहरी सम्पत्ति का तो अंत हो जाता हैं, लेकिन ये सम्पदा कब से शुरू हुई? कोई नही बता सकता। योग की परम्परा अनादि हैं। कब तक चलेगी कोई नहीं बता सकता। सदा महापुरूष हुए,धरती पर सदा बनते भी रहेगें। मतलब कभी समाप्त नहीं हो सकती,इतनी बड़ी सम्पदा हैं। और ये अक्षय संपदा, कभी भी समाप्त नहीं होती, ये जो आत्मिक सम्पदा है। और ये महापुरुषों के ध्यान से, पूजा से लोग अपनी अपनी कामना की पूर्ती करते हैं।
नहीं करते कामना की पूर्ति? महापुरूष शरीर से हैं, तो भी नही हैं,तो भीं। जैसे अत्रि महाराज थे, परमहंस महाराज जी के समय। अत्रि महाराज शरीर से तो थे नहीं, लेकीन एक ब्राह्मण वहां पर आया कामना लेकर अनसूईया में। पाच दिन तक अनशन किया। मुझे कुछ चाहिए,कुछ मांग रहा था, कुछ इच्छा थी। परमहंस महाराज जी आगरा मे थे। ध्यान में बैठे थे रात को दो बजे। अत्री महाराज निकल कर गए, परमहंस महाराज के पास । बोले कि वो ब्राह्मण पाच दिन से बैठा है, उसको जो कुछ चाहिए उसको दे दो। वो जान देने पर तुला हुआ हैं। परमहंस महाराज बोले आप ही दे दो। अत्रि महाराज बोले यहां हमीं दो तो हैं, आप शरीर से हैं, हम नही है। तो आप ही दे सकते हैं न। परमहंस महाराज जी थे। अत्रि महाराज सूक्ष्म शरीर से थे। तो जो कुछ चाहिए वो शरीर से जो महापुरूष है, उनसे ही कल्याण संभव हैं। लेकिन अत्री महाराज ने प्रेरणा किया न कि उसको दो। तो महापुरूष शरीर से नहीं है, तो भीं कामना की पूर्ति करते है। तो ये बाहरी सम्पदा भी, उनके स्वरूप से उनकी पूजा से मिलती रहतीं हैं, लोग मंदिरो मे दान करते ही रहते हैं ,जैसे कोइ तिरुपति जाता है, सौ दो सौ करोड़ का दान कर देता है।उसकी कामना की पूर्ति हुई, दान कर दिया ।अब वो पता नहीं कि जिनकी मूर्ती है वो कब हुए? हुए भी की नहीं हुए? वो तो विष्णु भगवान की मूर्ति हैं। लेकीन कामना की पूर्ति हुई कि नही? ये अक्षय पात्र हैं। ये धन सम्पदा परमहंसो की हैं। बाहर और भीतर की सम्पदा के मालिक। इसीलिए तुलसीदास जी कहते है, बाहर भी उजाला चाहिए भीतर भी चाहिए, तो नाम का जप करो, जस चाहत उजियार। मीरा ने कहा राम रतन धन पायो। नाम के जप रूपी दीया जलता हैं फिर धीरे धीरे भगवान जागृत होते हैं, इतना जलता हैं, कि सम्पूर्ण आसुरी संपद समाप्त हो गई । दैवी संपद का मालिक हो गया। धनी हो गया, आत्मिक सम्पत्ति प्राप्त हो गई। फिर अमृत की प्राप्ति हो गई। आत्मा ही अमृत स्वरुप हैं, उसकी प्राप्ती हो गई। तो इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं हैं। फिर भी दूसरो के कल्याण के लिए आत्मिक सम्पत्ति के मालिक वो महापुरुष रहते है, दूसरो की जागृति के लिए। यहीं सबसे बड़ा धन है। तो इस तरह से, ये धनत्रयोदशी अर्थात् दस इंद्रियां मन बुद्धी चित्त में आत्मिक सम्पत्ति का आ जाना, अमृत स्वरूप आत्मा की जानकारी हों जाना , यहीं वास्तविक धन हैं। और इस आत्मजागृति के लिए दैवी संपदा ये भी धन हैं। और दैवी सम्पदा की जागृति के लिए मुनष्य शरीर ये भी धन हैं। अगर संसार मे आप कुछ पाना चाहते है ,तो भीं मनुष्य शरीर। और भगवान को प्राप्त करना चाहते है तो भी मनुष्य शरीर। तो इस तरह से ये है, धन त्रयोदशी, धनतेरस।

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