दीपावली को लक्ष्मी पूजन क्यों करतें हैं?
आज दीपावली है, दीपावली तीन-चार दिन तक मनाई जाती है।
सबसे पहले धनतेरस फिर नरक चतुर्दशी उसके बाद लक्ष्मी पूजन फिर गोर्वधन पूजा और उसके बाद भाई दूज पांच दिन तक दीपावली होती है। दीपावली भगवान राम की रावण पर विजय प्राप्त करने की खुशी में मनाई जाती है। आज के दिन लक्ष्मी पूजा होती है, इसके दो दिन पहले धनतेरस होता है, लक्ष्मी पूजन के पीछे लोगों की धारणा रहती है, कि धन (समृद्धि) का आना । ये सब त्योहार जो है, सबका आध्यात्मिक महत्त्व है। हमारे पूर्व के महापुरुषों ने जो त्यौहार की परंपरा बनाई, उसके पिछे साधना की सारी विधि छिपी रहती है । दीपावली, लक्ष्मी पूजन, धनतेरस ये सब साधना के अलग अलग स्तर हैं सबसे पहले है,धनतेरस। तो मनुष्य के पास सबसे बड़ा धन क्या है? ये तन कीमती है मगर है, विनाशी, सदा इस तन के भरोसे न रहना। तो ये शरीर ही सबसे कीमती धन है शरीर में भी कौन सी अवस्था सबसे ज्यादा कीमती है? तो वो है युवा अवस्था,उसके बाद है संतोष धन! परिस्थिति वस समझौता करना संतोष नही है, संतोष एक स्तर है। श्वास भी एक धन है
क्या बजाऊं, क्या गाउं, क्या बजाऊं ढोल।
एक एक श्वासा जात है तीन लोक का मोल।।
एक एक स्वास की कीमत तीन लोक के बराबर है। मीराबाई जी कहती हैं,
पायो जी मैं तो नाम रतन-धन पायो
वस्तु अमोलक दी मेरे सद्गुरु कृपा करि अपनायो।।
तो सबसे बड़ा धन है नाम का जप। दीपावली का मतलब होता है, दीपों की पंक्ति (लाइन)। दीपावली प्रकाश का पर्व है, अर्थात ज्ञान का प्रकाश। लक्ष्मी मतलब सभी प्रकार का ऐश्वर्य, लक्ष्मी भगवान की पत्नी हैं, जहां भगवान होते हैं, वहीं लक्ष्मी का भी वास होता है। वास्तविक धन है, आत्मिक संपत्ति। आत्मिक संपत्ति मुनष्य के अंदर अनादि काल से है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, अर्जुन! तू दैवीय सम्पद को प्राप्त हुआ है इसलिये मुझे प्राप्त होगा। जो दैवीय सम्पद है, उसी को आत्मिक संपत्ति (स्थिर संपत्ति) कहते हैं।
तो आत्मिक संपत्ति की जागृति कैसे होगी? उसकी जागृति हाेती है, भजन से । तो भजन किसका करना है?
व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी
सत चेतन घन आनंद राशी।
अस प्रभु हृदय अछत अविकारी।
सकल जीव जग दीन दुखारी
परमात्मा सबके हृदय में रहता है लेकिन जागृत कैसे होता है?
तो,नाम निरूपन नाम जतन तें।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
नाम का जप करने से परमात्मा हृदय में प्रकट हो जाता है। ये नाम ही दीया है, लेकिन इसको रखना कहां है ?
तो,राम-नाम-मनि-दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
‘तुलसी’ भीतर बाहिरौ, जौ चाहसि उजियार॥
बाहर और भीतर दोनों जगह उजाला चाहते हैं, तो,नाम का जप करें। नाम जप की चार श्रेणियां है वैखरी, मध्यमा, पश्यंती और परा पहले वैखरी ( जीभ) से फिर मध्यमा (कंठ) से। फिर
साँस साँस पर नाम ले, वृथा साँस मति खोय ।
न जाने इस साँस का ,आवन होय ना होय ॥
जब जीभ से नाम जपते, जपते मन सूक्ष्म हो जाय, तो इसी नाम को धीरे से श्वास में ढाल दो। अंदर श्वास जाय तो ॐ बाहर श्वास आए तो ॐ इस तरह का जप। ये श्वास भी दीया है। जब प्रत्येक श्वास नाम से संयुक्त हो जाता है, तो प्रकाश मिलता है, चित्त प्रकाशित होने लगता है।
कौन सा प्रकाश मिलता है?
तो,ज्ञान का प्रकाश मिलता है, नाम जप से,जिस परमात्मा की हमें चाह है, वह परमात्मा हमारे हृदय में जागृत हो जाता है, जिसे अनुभव कहते हैं। अनुभव रूपी राम अनु मतलब अतीत, भव मतलब संसार। संसार से मुक्त करा देने वाली जागृति भजन करते करते जहां हमारे, और परमात्मा के बीच माया का परदा कम हुआ, तो परमात्मा हमें प्रकाश (हमारा मार्गदर्शन) देने लगते हैं। कि ये करो और ये मत करो । भूत, भविष्य और वर्तमान की जानकारी प्रदान करने लगते हैं, श्वास में जब नाम समा गया तो श्वास मणि हों जाती है,और जीवन हीरा हो जाता है। दैवीय सम्पद (विवेक, वैराग्य, सम, दम, तेज, प्रज्ञा, क्षमा भाव, स्वाध्याय…..) बढ़ने लगता है | ये सब धन है। जब नाम जपते, जपते ये अवस्था आ जाय कि भगवान हमें जिस परिस्थिति में रखना चाहे, हम रह सके तो ये है संतोष।
गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥
संतोष धन सबसे बड़ा धन है
बिनु संतोष न काम नसाहीं।
काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं॥
सारी कामनायें नष्ट हो जाती हैं, संतोष से । भगवान मार्गदर्शन करते जाएं, और साधक हर परिस्थिति में संतुष्ट होता जाये।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
कोइ कामना न करें तो ये संतोष है।
जब संतोष आ गया भगवान ही तृप्त करने लगे “तो सब धन धूरि समान सारे धन धूरि (मिट्टी) के समान” हो जाते हैं। त्रयोदशी का मतलब होता है, दस इंद्रियां, मन, बुद्धि। ये इंद्रियां संसार की तरफ बिखरी रहती हैं, मन संसार की योजना बनाता रहता है, बुद्धि निर्णय लेती रहती है , फिर अहंकार आ जाता है कि मैने ये किया मैने वो किया। ये सभी अधोमुखी रहती हैं, जब ये सभी नाम जपते जपते अंतर्मुखी हो जाये। बुद्धि नाम जप का निर्णय ले ले, मन नाम जप (श्वास) में लग जाय, इंद्रियां नाम जप (मन) में सिमट जाये ,तो सद्गुण (दैवीय गुण) आ जाते हैं। श्वास जो हीरा जैसी है, वो पकड़ में आ जाती है,और जो सम हैं परमात्मा उनसे तृप्ति मिलने लगती है, तो ये है धनतेरस । जब ये धन आप के पास आ गया तो उसके बाद दीपावली।नाम जपते जपते जब परावाणी की अवस्था आ जाय,दूसरे विचार बिल्कुल शांत हो जाय,तो जिस परमात्मा का हम नाम जप रहें हैं, वह परमात्मा प्रत्यक्ष हो जाता है ये है दीपावली।
सरगु नरकु अपबरगु समाना।
जहँ तहँ देख धरें धनु बाना॥
वह ईश्वर सर्वत्र दिखाई देने लगता है। यह प्रत्यक्ष अनुभूति है,इसी को ज्ञान कहते हैं । जब ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति हो गई, परमात्मा हमें प्राप्त हो गया, तो जो हमारा लक्ष्य था परमात्मा, जब मन उस लक्ष्य में समाहित हो गया, लक्ष्य में मन रमण करने लग गया, तो इसी को कहते हैं लक्ष्मी। लक्ष्मी का मतलब होता है ,परमात्मा का सम्पूर्ण ऐश्वर्य, परमात्मा की सम्पूर्ण विभूति । जब साधक परमात्मा के ऐश्वर्य से संयुक्त हो जाता है, लक्ष्य को विदित कर लेता है तो,जा घर लक्ष्मी झाड़ू देत हैं, संभू करें कोतवाली। ता घर ब्रम्हा बने टहलवा, विष्णु करें रखवाली।। सब देवता वहां सेवा करने लगते हैं। क्यों करने लगते हैं?
जिमि सरिता सागर मंहु जाही।
आउटजद्यपि ताहि कामना नाहीं।।
तिमि सुख संपत्ति बिनहि बोलाएं।
धर्मशील पहिं जहि सुभाएं।
जो समुद्र होता है उसे जल की कामना नही रहती, क्योंकि सारे जल का स्रोत वह खुद है , मेघ उसी से बरसते हैं सारी नदियों के जल उसी में समाहित होते हैं। ऐसे ही ईश्वर प्राप्त महापुरुष समुद्रवत होते हैं।
इसी को भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाजोति न कामकामी ॥
जैसे सारी नदियों के जल बड़ी वेग से आकर समुद्र में समा जाते हैं, उसे एक इंच भी नही उठा पाते उसी प्रकार महापुरुष इतने शांत होते हैं कि कोई कितना भी प्रभावकारी विषय आए उनमें समा जाता हैं, कोई हलचल पैदा नहीं कर पाता। भगवान दत्तात्रेय जब भजन कर रहे थे , cतो अंदर से आवाज आई कि लक्ष्मी जी तुम्हारी सेवा करना चाहती हैं । तो दत्तात्रेय जी ने सोचा कि देखता हूं कैसे सेवा करती हैं?
वे पूरब दिशा का संकल्प करें,और पश्चिम दिशा में चले जाएं । दस बारह दिन तो किसी को पता न चलें,फिर लोग वहां भी पहुंच जाएं और सेवा में लग जाएं। दत्तात्रेय भगवान परेशान हो गए ,और फिर चढ़ गए गिरनार पर्वत पर । अब नीचे जो गांव वाले लोग थे , उनको स्वप्न आने लगे, कि ऊपर एक महापुरुष बैठे है। गांव वाले जब ऊपर चढ़े तो देखा भगवान दत्तात्रेय वहां बैठे थे, तो वहां भी लोग सेवा करने लगे। एक राजा ने अपना राज्य दान कर दिया, तो उन्होंने कहा राज्य लेकर हम क्या करेंगे? जाओ दीवान बनकर राज्य को देखो और सेवा करो। तो ये है लक्ष्मी का झाड़ू लगाना, जब भीतर भगवान आ गए तो लक्ष्मी जाएंगी कहां? लेकिन जब बिना भगवान के लक्ष्मी आ जाएं तो क्या होगा?
धन मद मत्त परम बाचाला।
उग्रबुद्धि उर दंभ बिसाला॥
बाहरी धन आ गया तो प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं तब आदमी उत्पात करने लग जाता है।
क्योंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है, उल्लू को रात में दिखता है ,उसे दिन में नहीं दिखाई देता, इसलिये जिसके पास भगवान का भजन नही है, उसके पास लक्ष्मी आ जाएं तो उसका नुकसान ही करती हैं ।
परमहंस महाराज जी ने जब भगवान की प्राप्ति कर ली, तब एक दिन उनको ध्यान में अनुभव आया,कि वो एक कोठरी में जा रहे हैं (जिसमें वो जाया करते थे) तो ध्यान में ही अंदर से आवाज आई कि लक्ष्मी जी सेवा कर रही हैं, उन्होंने दरवाजे के फांक से अन्दर देखा तो लक्ष्मी जी उनका ही पैर दबा रही हैं ।तो जो लक्ष्मी भगवान विष्णु के पैर दबा रही हैं, वही लक्ष्मी दत्तात्रेय जी की भी सेवा कर रही थी,और वही लक्ष्मी परमहंस महाराज जी की भी सेवा कर रहीं हैं, तो यही वास्तविक लक्ष्मी हैं। जब भीतर समृद्धि आ गई, तो बाहर भी सेवा होती रहेगी। किन्तु भीतर समृद्धि नही आई ,और बाहर धन आ गया, तो नीद ही नही आयेगी। तो लक्ष्मी किस काम की। धन तो बहुत हो गया, किन्तु सदा चिंता बनी रहती है। उसका सही उपयोग ही नही कर पाता। जिसके अंदर समृद्धि आ गई, तो वो बाहर के धन का भी उपयोग कर लेता है। जैसे राजा ने दत्तात्रेय जी की सेवा में अपना राज्य अर्पण कर दिया तो उसका सदुपयोग हो गया, भजन की जागृति हो गई। वहीं जिसके अंदर भजन नही है, तो लक्ष्मी का दुरुपयोग होता है । इसलिये जिसका मन लक्ष्य में लग गया, ईश्वर को प्राप्त कर लिया, तो जिस हृदय में भगवान रहेंगे, लक्ष्मी भी उसी हृदय में रहेंगी, यही वास्ताविक समृद्धि है। इसी को प्राप्त करने के लिए हम दीपावली मनाते हैं। दीपावली मतलब दीया, दीया का मतलब, चित्त में नाम का जप करो, जब नाम जप में मन स्थिर हो गया, तो हर श्वास एक दिया है। क्योंकि हर श्वास के साथ भगवान प्रकाश दे रहें हैं।
सदा दिवाली सन्त घर सन्त के यहां हमेशा दीपावली रहती है। तो दीपावली एक प्रकार का उत्सव (उमंग) है। उत्सव का मतलब ही होता है, हमेशा प्रसन्नचित्त रहना । प्रसन्नता भी लक्ष्मी का ही दूसरा रूप है। दुख को दबाना प्रसन्नता नही है, प्रसन्न वही रह सकता है, जिसका मन भजन में लगा हुआ है।मन भजन में लगा रहेगा, तो हमेशा प्रसन्नता रहेगी, चाहे कुछ हो या न हो। महात्मा के पास कुछ नही है, दिगम्बर हैं तो भी खुश। और महाराजा जनक के पास बहुत कुछ है, तब भी खुश। मतलब हर परिस्थिति में खुश।
व्यक्ति खुश तभी रह सकता है, जब उसका मन भजन में लगा रहता है। बाहर सम्मृद्धि है, तो भी खुश, नही है तो भी खुश क्योंकि उसके पास आत्मिक संपत्ति है।
आत्मिक संपत्ति पाने के लिए ही हम लोग दीपावली मनाते हैं ताकि हमारे अंदर दैवीय संपद बढ़े,और हम परमात्मा की ओर बढ़ें। भक्ति कर रहे हैं, कोई कामना हुई, ईश्वर की प्रेरणा से उसकी जो पूर्ति होती है, वह भी लक्ष्मी हैं। लेकिन भक्त की सारी कामनायें पूरी नही होती। जिसको भगवान चाहेंगे, वही पूरी होती है। क्योंकि भक्त को आगे भगवान की भी प्राप्ति करनी है। इसलिये भक्तों के ऊपर कष्ट ज्यादा आतें हैं। भगवान अपने भक्त को उलझा कर नही रखते। कभी उसकी इच्छा पूरी होती है, तो कभी नही पूरी होती। क्योंकि उसको भजन करके लक्ष्य (परमात्मा) को प्राप्त करना है, बीच में कहीं और नही भटकना है। तो लक्ष्मी पूजन मतलब लक्ष्य (परमात्मा) की प्राप्ति के लिए,निरन्तर भजन, इसी के लिए हम लोग दीपावली मनाते हैं।
।। ॐ।।