बसंत पंचमी क्या है?
आगे बसंत ऋतु आनेवाली है, बसंत पंचमी। बसंत क्या है, बसंत पंचमी क्या हैं? यही प्रश्न है,आज का।हमारे देश में छः ऋतुएं होती हैं,कई देश ऐसे हैं, जैसे रूस में साइबेरिया वहां केवल एक ऋतु होती हैं, हेमन्त और दुसरी ऋतु बहुत कम होती हैं। इंग्लैंड में दो ऋतु होती हैं, शीत और वर्षात। भारत में करीब करीब छः ऋतु होती हैं। जिसमें सबसे पहले ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु, फिर शरद ऋतु इसके बाद शिसिर फिर हेमन्त और फिर बसंत। ये जो बसंत ऋतु है, ये फाल्गुन और चैत के महीने में आती है। जब बसंत ऋतु का आगमन होता है, तो पुरा वातावरण खिल जाता है। जैसे पेड़ों से पत्ते झड़ जातें हैं, नए पत्ते आने लगतें हैं, नए फूल आने लगतें हैं। एक पेड़ होता है, बन में जिसको कहते हैं, पलास,इस महीने में पलास एकदम भगवा कलर का खिल जाता है। जंगल को जब हम देखेंगे, मध्य प्रदेश के जंगल में, और रास्ते में भी कहीं, कहीं दिखता हैं। जब पलास एकदम खिला हुआ दिखने लगें, तो समझो वसंत ऋतु आ गई। और भी जो दूसरे पेड़ हैं, उनमें भीं नए फूल पत्ते आने लगतें हैं।इसी बसंत पंचमी में संस्कृत के जो पाठशालाएं हैं, उसका शुभारंभ होता है, विद्यार्थी अपना नामांकन कराते हैं, नाम लिखाते हैं।कहने का अर्थ ये है कि, बसंत ऋतु एक सदाबहार मौसम है। और हमारे शास्त्रों में बसंत के बहुत बड़े उदाहरण दिए गए। रामचरित मानस में कहा गया है कि,बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मंगलमय रितुराजू।भगवान श्री राम के विवाह का जो समाज है, वो क्या है? ऋतुराज वसंत। और एक जगह तुलसीदास जी कहते हैं,संतसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥संत सभा अमराई है, जैसे आम के पेड़ हैं, इसी बसंत ऋतु में आम के पेड़ में बौर आने लगते हैं, फूल आने लगते हैं।अमराई को कहते हैं कि वो संत सभा है। और उसमे बसंत ऋतु क्या है? श्रद्धा है। यहां पर भी तुलसीदास जीसंतसभा चहुँ दिसि अवँराईका उदाहरण दिया।भगवान श्री कृष्ण भी कहते हैं कि,मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर:सभी ऋतुओं में बसंत ऋतु मैं हूं। तो बसंत ऋतु का उदाहरण शास्त्रों में दिया गया है। इन बारह महीनों में जो छः ऋतुएं होती हैं, फाल्गुन और चैत का जो महीना होता है, इसमें ये बसंत ऋतु होती हैं। और भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कि बसंत ऋतु मैं हूं। तो ऐसे उदाहरण शास्त्रों में आये। फिर इसी बसंत ऋतु में बसंत पंचमी आती है। बसंत पंचमी से ही बसंत ऋतु का शुभारंभ होता हैं। लेकिन ये बसंत ऋतू का आध्यात्मिक दृष्टिकोण क्या हैं?बाहर तो ये एक ऋतु है। हमारे पूर्वजों ने शास्त्रों में उदाहरण इसलिए दिया कि जो भी समय है, एक वर्ष में,कोई न कोई हर महीने का आध्यात्म है, हर दिन का अध्यात्म है, हर त्यौहार जो भी आते हैं, सब त्योहारों का आध्यात्म है। हमारे पूर्व के महापुरुषों ने करीब, करीब सभी पर्वों को साधना से जोड़ दिया। कोई भी पर्व बिना साधना के नही है। जितने भी पर्व त्यौहार पड़ते है, सबके मूल में कहीं न कहीं साधना हैं। और इस बसंत ऋतु को तो भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कि सभी ऋतुओं में बसंत ऋतु मैं हूं। भगवान खुद ही हैं। तुलसीदास जी ने पूरे मौसम को अपने रामचरित मानस में समेट दिया। सभी ऋतुओं का वर्णन किया। लेकिन जब बसंत ऋतू की बात आई तो उसकी विशेष उपमा दी। कि जैसे संत सभा अनुपम अवध। संत सभा को अवध कहा। ऐसे ही स्थान, स्थान पर उपमा दी। लेकिन ये जो बसंत है,आध्यात्मिक दृष्टी से क्या हैं? तो बसंत जैसे आप शब्द को ही देखेंगे, बसंत मतलब होता है, वासनाओं का अंत। जब तक वासनाएं प्रवाहित हैं, तब तक मस्ती कैसी स्थाई दशा कैसी।कभी व्यक्ती दुखी होता है, कभी सुखी होता है, जब इच्छा की पूर्ति हो जाती है तो खुश हो जाता हैं, नहीं पूर्ती होती है, तो दुखी हो जाता हैं। तो इसलिए वासनाओं का अंत ही बसंत हैं। और जब वासनाओं का अंत हो जाता हैं, तब जाकर जो मौसम हैं, वह स्थाई हो जाता है, स्थाई मस्ती। इसी को बसंत ऋतु कहते हैं।स्थायी मस्ती कब आती है? जब पांचों ज्ञानेंद्रियों में से वासनाओं का अंत हो जाता हैं। रूप है, रस है, गंध है, शब्द हैं स्पर्श हैं, ये पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, और ये जब तक ये वासनाओं में रस लें रहीं हैं। जब तक हर इंद्रिय अपने,अपने विषय में रस खोज रहीं हैं, तबतक वासनाओं में प्रवाहित हैं। तबतक स्थाई मस्ती नहीं आ सकती। तो बसंत पंचमी का मतलब होता है, स्थाई मस्ती, स्थाई आनन्द। वो कब आता है? जब पांचों ज्ञानेंद्रियों से वासनाएं समाप्त हों जाती हैं। वासनाओं का अंत हो जाता हैं। तब जाकर स्थाई मस्ती आती है, स्थाई आनन्द आता है। उसी सदाबहार जो ऋतु हैं, जो आनन्द है, जो कभी नहीं घटता है, उसी का नाम बसंत ऋतु हैं। और पांचों ज्ञानेंद्रियों में आ जाता हैं,ये आनन्द, इसलिये ये बसंत पंचमी है। जब पांचों ज्ञानेंद्रियों में वासनाओं का अंत हो जाता हैं, तब ये इंद्रियां जो सत्य है,नित्य है, परमात्मा,उसमें आनन्द लेने लगती हैं, उसमें स्थाई मस्ती प्राप्त कर लेती हैं। इसलिए ये बसंत पंचमी है। तो ये बसंत पंचमी का अध्यात्म है। अब प्रश्न उठता हैं कि, ये वासनाएं कैसे काम करती हैं? तो संसार में दो ही चरित्र हैं, एक वासना के चरित्र हैं, जिसमें रावण का आता है, कंस का आता है, और जितने राजा लोग युद्ध जीतने के लिए चले, संसार जीतने के लिए चले। वो सब भी वासना के अंतर्गत ही आतें हैं। क्योंकी किसी न किसी वासना की पूर्ती के लिए ही चले। और दूसरी तरफ़ राम का चरित्र आता है, परमात्मा का चरित्र आता है, ऋषी मुनियों का चरित्र आता है, जिन्होंने वासनाओं का अंत किया। इन्ही दो के चरित्रों का वर्णन है, शास्त्रों में। एक तरफ काम का चरित्र और दुसरी तरफ राम का चरित्र, ऋषि मुनियों का चरित्र, साधु का चरित्र जो वासनाओं के अंत का चरित्र हैं। इन्ही दो की कथा है, सभी शास्त्रों में। जितने भी वेद हैं, पुराण हैं, गीता है, उपनिषद है, सबमे इन्ही दो की कथा हैं। और ये दो ही प्रकार के उदाहरण हैं। एक तो ऋषि मुनी हैं, जो वासनाओं का अंत करने के लिए तपस्या कर रहें हैं। या कोई राजा महाराजा है, वो भी तपस्या कर रहें हैं। या कोई राजा महाराजा हैं जो अपनी इच्छाओं की पूर्ती के लिए युद्ध कर रहें हैं। दुनियां को जीत रहें हैं। ये दो ही प्रकार के चरित्र हैं, सभी शास्त्रों में। तो इसलिए जब वासनाओं का अंत हो जाता हैं, पांचों ज्ञानेंद्रियों में तो स्थाई मस्ती आ जाती हैं। यहीं बसंत ऋतु हैं, यही बसंत पंचमी है। लेकिन ये संभव कैसे होता है। तो इसके सन्दर्भ में एक कहानी बताते हैं,सबसे पहले व्यक्ती को ये जानना जरूरी होता हैं कि,वासनाएं काम कैसे करती हैं, हर व्यक्ती के अंदर?एक राजा था, राजधानी में उस राजा के यहां एक दिन बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गईं, दरवाजे पर। भीड़ इकट्ठा होने का कारण था कि, वहां एक भिक्षू आया हुआ था, राजा के पास भिक्षा मांगने के लिए। तो राजा के पास उसने अपना भिक्षा पात्र फैलाया, उसने कहा कि हमे भिक्षा चाहिए। लेकिन मैं तभी भिक्षा स्वीकार करूंगा, जब आप मेरे पात्र को भर देंगे तब। अगर मेरा पात्र आपसे नहीं भरा गया, तो मुझे क्षमा करें, मैं कहीं और जाकर मांग लूंगा। लेकिन ये पात्र भरना चाहिए। तो राजा बहुत हंसा, क्योंकि वो चक्रवर्ती सम्राट था,और उसने हस करके कहा कि इसके भिक्षा पात्र को अनाज से भरने की क्या ज़रूरत है, हीरें जवाहरात से भर दो। राजा के पास अकूत खजाने थे, बहुत सी सम्पदा थी। राजा ने कहा कि यहां आकर ये भिक्षा मांग रहा है। उसने कहा अपने अनुचरों से कि पात्र को सोने, चांदी, हीरे, जवाहरात से भर दो। फिर भीखारी ने कहा राजा एक बार आप फिर से विचार कर लो, मुझे ये पात्र भरना ही भरना है। और अगर भिक्षा पात्र नहीं भर पाए तो मैं कहीं और जाकर मांग लूंगा। राजा हंसा फिर बोला कैसी बात कर रहें हों, फिर राजा ने आज्ञा दी कि पात्र हीरे जवाहरात से भर दो। अब वो भिखारी खड़ा हो गया भिक्षा लेने के लिए। और इसके बाद राजा की खजाने से सोने चांदी हीरे जवाहरात डालते गए। सब भिक्षा पात्र में समाता चला गया। फिर डाले फिर समाता चला गया। राजा के पास जितना खजाना था, सब भिक्षा पात्र में डाल दिया, लेकिन भिक्षा पात्र नहीं भरा। अब सुबह से शाम होने को आ गईं। राजा की जितनी संपत्ति थी सब उस भिक्षा पात्र में डाल दिया गया, लेकिन वो खाली का खाली। शाम होते होते राजा उस भिखारी से क्षमा मांगने लग गया, और उसके चरणों में गिर गया कि, कृपा करके आप ये बताओं कि आपका भिक्षा पात्र किस धातु से बना हैं, जो ये भरता ही नही है? आज तक जितना भी भिक्षा पात्र हमने देखा उनको अनाज से भरा गया, वो भरते चले गए। लेकिन आप अपने भिक्षा पात्र का राज बताओं कि ये भिक्षा पात्र आपको कहा मिला? कहां आप पाए कि ये,भरता ही नही हैं। मेरा पूरा खजाना खाली हो गया। इसको देखने के लिए राजा के दरवाजे पर भीड़ खड़ी थीं। पुरी राजधानी के लोग इकट्ठे हो गए थे। भिक्षा पात्र भरता ही नही था। उस भिखारी ने कहा महाराज इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं। मैं एक बार भ्रमण कर रहा था, गंगा के किनारें , तो स्मशान में मेरा रुकना हुआ, तो सुबह जब वहां से चलने लगा, तो वहां एक आदमी की खोपड़ी पड़ी हुई थीं, उसी खप्पड़ का मैंने भिक्षा पात्र बना लिया। तबसे मैं इसको भर रहा हूं, लेकिन ये आज तक भरा नहीं। तो ये क्या हैं? ये एक कहानी हैं। ये प्रत्येक मनुष्य की कहानी हैं। आज तक जितने मनुष्य इस धरती पर आए, चाहें वो भीखारी हो, चाहें वह चक्रवर्ती सम्राट हों, अधूरी इच्छा लेकर वो मरता हैं। आप चाहे तो देख लो, रावण को देख लो,देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि। जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥रावण के पास कोई कमी नहीं थी, इसके बाद भीं उसने आक्रमण किया, तो यक्षों की कन्याएं, नरों की कन्याएं देवताओं की कन्याएं जो भी सुन्दर कन्याएं थी, राजभवन में सबको जीत लाया, उसके अंदर इच्छा थी, तभी तो उसने माता सीता का अपहरण किया।नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।कैसी कन्याएं थी? देवताओं की कन्या, नागों की कन्या, नाग एक जाति होती है, नाग वंश नागवंशी क्षत्रिय हैं, जिसमें नागालैंड, मणिपुर, चाइना, थाईलैंड आता है। वहां के जो राजपूत हैं, अभी वो राजपूत नहीं हैं। अभी वो चाइनीज हैं। लेकिन ये सब नागवंशी हैं। रावण के पास पूरे विश्व की जितनी भी सुंदर कन्याएं थी, सब रावण के पास थी। फिर भी उसकी वासना कभी पुरी नही हुई। फिर भी भिक्षा पात्र खाली था, तभी तो सीता जी का हरण किया। मर गया, लेकिन वासना कभी पूरी नहीं हुई। तो आदमी मरता चला जा रहा हैं लेकिन वासना कभी पूरी नहीं होती। हम पूरे हो जातें हैं समाप्त हों जाते हैं, लेकिन इच्छा कभी पूरी नहीं होती। एक चने का फल जो लगता है,उसमें हरा हरा कीड़ा होता है। उसको जब आपने देखा होगा, कैसे चलता हैं, जब चलता हैं, तो आगे वाली चने की शाखा पर पैर रख लेता है, फिर पीछे वाला उठाकर उसको भी उसी पर रख लेता हैं। तो ऐसे ही वासना का चरित्र हैं। वासना कभी पूरी नही होती है। जब इस समय आपको कोई भी वस्तु मिल जायेगी, फिर आप उस पर ध्यान नही देंगे, फिर अगली वस्तु पर आपका चित्त चला जायेगा। वो खिसक जायेगी अगली वस्तु पर, पिछले को छोड़कर के। तो इसी तरह से जब रावण के पास नागों की कन्याएं, देवताओं की कन्याएं, नरों की कन्याएं, गंधर्वों की कन्याएं सब इकट्ठी हो गई फिर भी उसकी वासनाएं पुरी नहीं हुई। यहीं हैं, भिक्षा पात्र जो राजा भर नहीं पा रहा हैं, और अंत में वो मर गया, तो ये इच्छाएं कभी पूरी नहीं होती, इस मनुष्य झोपड़ी की। ऐसी नही कि केवल भिखारी की इच्छा पूरी नहीं होती, मुम्बई में देखेंगे जब सिग्नल बंद होता हैं, गाडियां रुकती हैं, तो सब भीख मांगने के लिए भिखारी इकठ्ठे हो जातें हैं। उनके पास कुछ नहीं है, फटे चिथड़े कपड़े हैं, घर द्वार भी नहीं हैं, लेकिन फिर भी मांगते रहते हैं, जब मरते हैं तो अधूरी इच्छा लेकर ही मरते हैं। किसी भी भी भिखारी की भी इच्छा पूरी नहीं हुई है इस संसार में, और सम्राटो की भी पूरी नहीं हुई। महात्मा बुद्ध कहते हैं, वासना दुष्पुर है, ये कभी पूरी नहीं होती। सिकंदर यूनान से, निकला विजय यात्रा के लिए, चला जा रहा था,रास्ते में एक महापुरुष बैठे थे, डायजनीज, उसी के राज्य के अंतिम सिरा पर जहां सिकंदर रहता था, एक छोर पर सिकंदर और दूसरे छोर पर रहते थे, डायजनीज, तो सिकंदर तोपखाने, के साथ पूरे रिसाले के साथ निकलता चला जा रहा था, जितना भी उसकी फौज थी, चला जा रहा था, महात्मा पड़े हुए थे अपनी कुटिया में, उन्होने देखा, और सिकन्दर की भी इच्छा थीं कि महाराज जी से मिलते हुए जाऊं,, तो सिकन्दर गया मिलने के लिए, तो डायजनीज बोले कि इतने दिन से मैं देख रहा हूं, कि फौज चली जा रही है, रिसाला चला जा रहा है, तोप और तलवार लाखों की सेना, पैदल सेना, घुड़सवार सेना,चले जा रहे हैं। महात्मा बोले,क्या करने जा रहें हों? तो सिकन्दर बोला, पहले एशिया जितूंगा, फिर इसके बाद तो बोला हिंदुस्तान जीतूंगा, फिर तो बोला पुरा विश्व जीतूंगा, बोले इसके बाद फिर, तो बोला फिर विश्राम करुंगा। तो महात्मा बोले जब अंतिम परिणाम विश्राम ही करना है, तो इतना खून खराबा क्यों करते हो विश्राम करो न। मेरी कुटिया में मेरे लिए भी जगह है, और तुम्हारे लिए भी जगह है।क्यों जा रहें हो? विश्राम करो। जब अंत में विश्राम ही करना हैं, तो अभी से करो। और फ़िर कौन कह सकता है कि अंतिम समय में तुम विश्राम कर पाओगे या नहीं, क्या पता लौटो या नही। और उन महात्मा की बात सही हूई। सिकन्दर विश्व विजय पर निकला, सब कुछ जीतता हुआ चला गया, लेकिन भारत में महाराजा पुरु से कड़ा मुकाबला हुआ, जीत तो हुई लेकिन जीत भी हार जैसे थी । भारी मन से सिकन्दर लौट गया। 32 साल की आयु में रास्ते में बिमार पड़ गया। संग्रहणी रोग जिसे हैजा कहते हैं, हो गया, तब उसे महात्मा की बात याद आने लगी, कि महाराज बोल रहे थे, कि विश्राम करना है, तो अभी करले, बाद में विश्राम क्या करेगा, पता नही समय मिलेगा कि नही, और उसने एक दूत महात्मा के पास यह कहकर भिजवाया कि सीधा मैं,आपके पास ही आ रहा हूं, लेकिन दूत पहुंच नही पाया, उसके पहले ही सिकन्दर की मृत्यू हो गईं। तो सिकन्दर का जब जनाजा निकला, तो उसने कह रखा था कि मेरे हाथो को जनाजे से बाहर रखना, ताकि सारी दुनिया देखे, कि सिकन्दर ने क्या पाया। और उस समय दुनिया की पहली ऐसी अस्थि थी, जिससे दोनों हाथ लटके हुए थे, सबके हाथ अंदर रहते हैं। सबने देखा कि सिकन्दर के हाथ खाली थे। ताकि लोग ये जान ले कि मैंने कुछ नहीं पाया। तो वासनाएं कभी भी किसी की पुरी नही होती। तो ये मनुष्य की खोपड़ी हैं, चाहें भिखारी की खोपड़ी हो या फिर सम्राट की खोपड़ी हो। किसी की भी इच्छा पूरी नहीं होती कभी। इसी को इच्छा कहा कबीर ने, इसी को वासना कहते हैं। वासना के लिए समय चाहिए। अगर आपको जिन्दगी जीना है तो इसके लिए समय की जरुरत नही हैं, आप वर्तमान में जी रहें हैं। अगर आपकी कोई इच्छा नहीं हैं, तो आप जी सकते हैं, क्योंकि आपके अंदर वासना नही हैं, लेकिन अगर आपके अंदर वासना हैं, तो इसकी पूर्ती करने के लिए भविष्य चाहिए। भविष्य मतलब आज जो मिला हैं, उससे संतुष्ट नहीं है, भविष्य में काम होगा, तो उसके लिए भविष्य हमे चाहिए। इस जन्म में पूरा नहीं हुआ, तो फिर अगला जन्म चाहिए। वो भी भविष्य हैं, फिर उस जन्म में पूरा नहीं हो सका, तो फिर अगला जन्म चाहिए। जन्म पे जन्म लेने पड़ते हैं। तो वासना पूर्ति के भविष्य चाहिए, तो आपको पैदा होना पड़ेगा।लेकिन जिन्दगी जीने के लिए भविष्य की जरुरत नहीं हैं। जीने के लिए तो आप अभी जी रहे हो, इसी समय, जी रहे हो,क्या जरुरत हैं भविष्य की। लेकिन वासनाएं हैं, कि ये करना हैं, वो करना हैं, इसलिए जीना हैं।इस तरह से एक कहानी आपको और बताता हूं।एक महाराजा हुए ययाति, जब वो बृद्ध हो गए, तो फिर काल आ गई,मृत्यु आकर खड़ी हो गईं। पहले का समय था, यमराज बोलते थे, कि चलो, अभी तो यमराज दिखाई नहीं देते। तो ययाति घबड़ा गए बोले, इतनी जल्दी, अभी तो मैंने कुछ देखा ही नही। अभी तो मैं भोग भोग ही नही पाया,अभी तो मेरे वासना की पूर्ती हो ही नहीं पाई, अभी क्यों ले जा रहें हो? मेरे ऊपर कृपा करें, मुझे अभी और जीना हैं, तो मृत्यु ने कहा और तो नहीं जी सकते। हा एक काम हैं, अगर आपका कोई लड़का आपको अपनी जवानी दे दे, तो आपकी ये आयु बढ़ सकती हैं। ययाति के पास सौ लड़के थे, ययाति ने इतना भोग भोगा, कि सौ लड़के हुए, जिसमें सबसे बड़ा लड़का 80 साल का था, उसके बाद 75 साल का, ऐसे ही सौ लड़के थे, तो सबसे पहले 80 साल वाले से पूछा कि अपनी आयु देगा, तो उसने बोला कि जब तुम सौ साल के होने के बाद कुछ नही देख पाएं, कुछ भोग नहीं भोग पाए तो मैं कैसे देख सकता हूं, मैं नहीं दुंगा, जवानी। तुम भोग नहीं भोग पाए मरने से डर रहे हों, मैं नहीं दुंगा आयु। सभी लड़कों से पूछा, लेकिन किसी ने नहीं दिया। अंत में बीस साल का एक लड़का था, उसका नाम था पुरू, वो तैयार हो गया, तो मृत्यु ने कहा कि तुम आयु देने के लिए तैयार क्यों हो गए, तुम तो अभी युवा हो? जब वृद्ध लोग नही तैयार हो रहे है, जवानी देने के लिए तो तुम क्यों तैयार हो गए। तो पुरु बोला कि मेरे पिताजी 100साल के हो गए, फिर भी इनकी वासनाएं पूरी नहीं हुई,और ये मेरे बड़े भाई हैं 80,साल के 70 साल के, इनको भी देख रहा हूं। तो जो पूरी होने ही वाली नहीं है, मैं तो इनको देखकर ही पूरा हो गया, मैं अपनी ज़वानी दे देता हूं । तो पुरू ने अपनी जवानी दी। और फिर ययाति सौ साल तक जिए और फिर उनके सौ लड़के हुए। इसके बाद फिर मृत्यु आई फिर एक लड़के ने जवानी दी, इस तरह से उनको ये काम 10 बार करना पड़ा। और 1000साल तक ययाति जीये। लेकिन जो वासना थी, वो पुरी नही हुई। अंत में जब मृत्यु आई तो यमराज बोले देखो भाई, अब तो मैं नहीं छोड़ सकता, अब तो मुझे ले जाना ही पड़ेगा। तब ययाति को घृणा हो गईं, वैराग्य हो गया उनको। तो ये वासना का चरित्र हैं, इसमें दो ही केन्द्र हैं, काम और राम। काम का चरित्र मतलब जिसकी कभी पूर्ति हो ही नहीं सकती।”जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई। कभी पूर्ति नहीं हो सकती। ययाति का अर्थ होता हैं, जीने की इच्छा, बने रहने की इच्छा, प्रत्येक जीव की रहती हैं। और जीने की इच्छा जब बनी रहती है, इसलिए पुरु ने जवानी दी।पुरू मतलब पूर्ती, जब आपको इस संसार में बने रहना है, जो प्रत्येक जीव चाहता हैं।सदा बने रहने की इच्छा ही ययाति हैं। हर जीव यही चाहता हैं, कि ऐसा ही बना रहूं, तो एक शरीर से बने रहना,तो सम्भव नही हैं,ये तो एक कहानी हैं।ये कोई इतिहास नही हैं, पुराणों में वर्णित हैं, ये कोई इतिहास नहीं है। इतिहास तो वो है जो लिखकर पेपर या कहीं रखा जाता हैं। पुराण का मतलब होता है, हमेशा घटते रहने वाली घटना। पुराण का अर्थ होता है, जो सदैव होता हैं, कभी हुआ था, ऐसा इतिहास जैसा नहीं हैं, पुराण। सदा होता हैं, ऐसी कहानी है पुराण मे।तो जो ययाति के साथ हुआ वो,हर व्यक्ती के साथ होता हैं, हर व्यक्ती चाहता हैं कि मैं सदा बना रहूं, सदैव मेरी जवानी बनी रहें। लेकिन ये मृत्युलोक है, जाना ही पड़ता हैं। तो पुरू ने ययाति को अपनी ज़वानी दी। पुरू माने पूर्ती, विषयों की पूर्ती करने के लिए आपको मरना पड़ेगा, फिर जन्म लेना पड़ेगा।कब तक चलेगा ये? हजार वर्ष तक। दशो इन्द्रियों की हजारों प्रवृत्ति हैं, जबतक इनका त्याग नहीं हो जाता तबतक। दसो इन्द्रियां संयमित नहीं हो जाती, तबतक आपको जन्म लेना पड़ेगा और भोगों में जीवन व्यतीत करना पड़ेगा। अंत में ययाति को वैराग्य हो गया। तो जब पूर्ती जायेगी,तो क्या होगा? वसनाओ का त्याग होगा। जब वैराग्य होगा तभी, वासनाओ का त्याग होगा। तो इसलिए ये कभी पूरी नही होती। हम देखेंगे रामचरित मानस में, एक तो वास्तविक बसंत होता हैं, जहां वासनाओ का अंत होता हैं। और एक कृत्रिम बसंत होता हैं।कृत्रिम बसंत का निर्माण कौन करता है? कामदेव करता हैं। एक बार नारद जी के पास आया,तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥बसन्त ऋतु का निर्माण कर दिया। एक माया से निर्मित बसंत हैं, और एक स्वाभाविक बसंत हैं, दो तरह का बसंत होता हैं। और यहीं कामदेव जब शंकर जी के पास गया, तो वहा भी उसने बसंत ऋतु का निर्माण कर दिया। तो एक माया का बसंत होता है।तो शंकर जी ने काम को जला दिया। तो ये दोनो साधक की स्थिती हैं। एक तो ऐसा होता है, कि,साधक साधना करता हैं,भजन करते, करते जब उसने मन सहित इन्द्रियों का संयम कर लिया,तो उसका मन भागना बंद कर देता है। तो उसको लगता हैं कि उसने वासनाओं को जीत लिया। और जैसे ही उसके अंदर ये अंहकार आता है, तो माया अपना काम चालू कर देती है,तो कृत्रिम बसन्त का निर्माण हो गया, फिर अगर भगवान के प्रति समर्पित साधक है,तो भगवान संभाल लेते हैं।और वो माया से निकल जाता हैं। ऐसे ही शंकर जी थे, शंकर जी के सामने भी कामदेव आया, तो वहां भी बसंत ऋतु का निर्माण कर दिया। और जब कामदेव चला तो इसका वर्णन तुलसीदास जी ने किया, कि,नदीं उमगि अंबुधि कहुँ धाई। संगम करहिं तलाव तलाई।।जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी।।तलाव और तलैया संगम कर रहे हैं, जो लताएं हैं वो पेड़ों पर चढ़ रहीं हैं। ऐसा वर्णन किया हैं, तुलसीदास जी, ने।जब कामदेव चलता है, सब सद्ग्रंथ जाकर कंदरा में छिप गए, विवेक भाग गए। दो घड़ी के अंदर ये सब कुछ हो गया।देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।।जो संसार को ब्रह्ममय देख रहे थे, उनको संसार स्त्रीमय दिखने लगी। जब ये वासनाएं आ जाती तो।लेकिन ये वासनाएं आती कब हैं? दो स्थिती रहती है, शंकर जी के समाधि को भंग किया,उसने फूलो का धनुष लिया, बाण चलाया, शंकर जी उठे और कामदेव जल गया।तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भयउ जरि छारा।तुरन्त वासनाएं समाप्त। तो ये साधक की एक स्थिती है। शंकर क्या होते हैं? एक तो शंकर होते हैं,वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम् जो सद्गुरु है, वो शंकर हैं, एक दूसरे शंकर की स्थिती होती है,सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥पुण्यात्मा शिव, जैसे हजार का नोट भी नोट है, दस रुपए का नोट भी नोट है। हजार का नोट तो अब बंद हो गया,दो हज़ार का नोट चलता हैं। दो हज़ार के नोट से जों समान, लोगे तो दो हजार का सामान आयेगा। पचास रुपए या दस रुपए के नोट से सामान लोगे तो पचास रुपए या दस रुपए का सामान आयेगा। ऐसे ही पुण्यात्मा शंकर माने, जो साधक इस मार्ग पर चल रहा हैं, भजन कर रहा हैं। सुकृत शंभू उसको कहते है। वो भविष्य का सद्गुरु हैं, अभी नहीं बना है वह सद्गुरु। आज वो शंकर नहीं हुआ हैं, किसी दिन जाकर वो शंकाओं से परे हो जायेगा, शंकर स्वरूप में जाकर वो स्थित हो जायेगा। तो वो जों साधक है, अपना भजन में लगा हैं, ध्यान और समाधि के स्थिती में ।कामदेव ने शंकर जी को वाण मारा तो समाधी भंग हुई, तीसरा नेत्र खुला, तो कामदेव जल गया, तो ये जो वासनाएं हैं,दो स्थिती में आती हैं। एक तो स्वाभाविक जब आपने वासनाओं को जीत लिया, पांचों ज्ञानेंद्रियां संयमित हो गई। स्थाई मस्ती आ गईं,परमात्मा की प्राप्ती कर लिया। वहां पर तो कामना है ही नहीं। लेकिन दूसरा साधना करते, करते साधक इन्द्रियों को वश में कर लेता हे, तो उसको ऐसा भ्रम हो जाता है कि मैंने इन्द्रियों को जीत लिया।तो निज माया बसन्त निरमयु।जो कामदेव हैं क्या करता था? जहां भी जाता था, बसंत ऋतु का निर्माण कर देता था। बसंत ऋतु होता नहीं था। कृतिम बसंत, जैसे प्लास्टिक के फूल। ऐसे ही कृतिम बसंत का निर्माण। तो माया का बसंत क्या होता है? जैसे हमने मान लिया कि हमने वासनाओं को जीत लिया, ये माया का बसंत हैं। नारद जी ने जब मान लियाअपने मन मे कि हमने काम को जीत लिया, तो सबसे बोलने लगे, जगह जगह जाकर के। शंकर जी ने कहा कि विष्णु जी को मत बताना। लेकिन सब जगह बताते चलें गए। अंत में क्या हुआ कि उनका मन बन गया विवाह करने के लिए। जिन वासनाओं को जीता उसी की तैयारी करने लग गए विवाह की। तो ये माया का बसंत हैं। वासनाओं का अंत हुआ नही इंद्रियां संयमित हो गईं। उनको लगा कि हमने जीत लिया। ये माया का बसंत हैं। जब साधक ये सोचने लगता हैं कि, हमने माया को जीत लिया। बाद में वही वासनाएं अंदर जागृत होने लगती हैं।लेकिन,तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवत कामु भययु जर छारा।जब वासनाएं आती हैं, तब तालाब और तलैया संगम नहीं करती, लता पेड़ पर चढ़ रहीं है, तो लताएं तो स्वभावतः चढ़ती ही है पेड़ पर। लेकिन जब काम आता हैं, वासना आती हैं, तो साधक की जो दृष्टि है, वो काममयीहो जाती है, वासनामयी हो जाती हैं। जहां भी दृष्टी जायेगी, वहां से वो वासना ही लेने लगता हैं। इस स्थिती में साधक के अंदर जब वासनाएं प्रवाहित हो जाती हे मन में, तो वो शंकर पुण्यात्मा साधक हैं, साधक की स्थिती हैं। तब शिव तीसर नयन, तीसरा नेत्र का मतलब होता हैं, इसी को दिव्य दृष्टी कहते हैं, इसी को विवेक दृष्टी कहते हैं। और विवेक होता क्या हैं?नभ पल्लभ हैं, बिटप अनेका, साधक मन जस मिलही विवेका।विवेक मिलता हैं, कौन देतें हैं, भगवान देते हैं। तो विवेक का मतलब सत्य असत्य को जानना और सत्य पर आरूढ़ रहना। तो जब साधक भजन में लगा रहता हैं, वासनाएं प्रवाहित जरूर होती हैं, उसके समाधी को भंग करती हैं। लेकिन थोड़ी देर के लिए।तीसरा नेत्र जब खुलता हैं, तीसरा नेत्र मतलब भगवान ने मार्गदर्शन दिया, शंकर के हृदय मे कौन रहता था? राम रहते थे,वो किसका भजन करते थे, “जो महेश मन मानस हंसा। राम क्या है? राम ब्रह्म व्यापक जग जाना।जो कण कण में व्याप्त परमात्मा है, उसी का नाम ब्रह्म हैं। वही राम है, वह रहता कहा है? सबके ह्वदय में। व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी सत चेतन घन आनन्द राशि अस प्रभु ह्वदय अछत अविकारी, कहा रहता हैं, सबके ह्वदय में। कैसे प्रकट होता है? नाम निरूपण नाम जतन से, सो प्रकटत जिमि मोल रतन से। नाम का जप करोगे प्रकट हो जायेगा।किस रुप में हमको मदद करते हैं भगवान? तो यद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता अनुभवगम्य भजही जेहि संता। ब्राह्म अखंड एवं अनन्त हैं, वहा तक कैसे पहुंचता हैं साधक? अनुभवों के द्वारा। अनुभव क्या हैं? अन माने अतीत भव माने संसार, जिस स्तर पर हम खडे हैं, हमारी प्रार्थना ऐसी हो, हमारा नाम जप ऐसा हो, कि भगवान उसी स्तर से जागृत होकर हमारा मार्गदर्शन करने लगे। जो मारदर्शन करने वाली शक्ती है उसी का नाम अनुभव हैं, उसी का नाम राम हैं। तो जो विवेक है, वो क्या हैं? राम का छोटा भाई लक्ष्मण हैं। लक्ष्मण हमेशा राम के साथ रहते है।, विवेक रुपी लक्ष्मण। जैसे भगवान ने बताया वैसे ही उसको समझा, और चलने लगा। तो यहां जो शंकर जी का तीसरा नैन क्या हैं? विवेक दृष्टी हैं। जैसे लक्ष्मण राम के साथ मे हैं, उनके आज्ञा पालन में हैं, जैसे ही वासनाएं प्रवाहित हुई ह्वदय के अंदर,भगवान ने बता दिया कि इस तरह से वासनाओं का चिन्तन आ रहा हैं,वैसे ही अंदर से विवेक जागृत हुआ कि ये सही हैं, ये गलत हैं, मुझको क्या करना हैं, क्या नहीं करना है, ये सत्य है, ये असत्य हैं। जहां सत्य पर आरूढ़ हुआ, उसी का नाम विवेक दृष्टी हैं। तहां वासनाएं समाप्त हो जाती हैं, जल जाती हैं। तो ये विवेक दृष्टी हैं इसी को दृव्य दृष्टि कहते हैं, इसी को अनुभव कहते हैं। भगवान के आदेश पर साधक चलने लगा, तो वासनाएं समाप्त हो जाती है, जल कर राख हो गईं। चितवत काम भयहू जर छारा। तो इस तरह से वासनाओं का अंत होता हैं। ऐसे ही आप देखेंगे जब हनुमान जी जाते हैं लंका में। तो पहले अक्षय कुमार को मार देते हैं, उसके बाद रावण मेघनाथ को भेजता हैं, जाओ देखो कोई बंदर आया हैं, उसके बाद मेघनाथ जाता हैं, हनुमान जी को बाध कर लाता हैं। हनुमान जी जानबूझकर बध जाते हैं।ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार। जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार।हनुमान जी समझ गए, उनको कोई बांध नहीं सकता। लेकिन वो जानबूझकर बाध कर आ गए। उसके बाद हनुमान जी जब सामने खडे हुए, तो रावण ने पूछा तुम कौन हो? तुमको मैं बहुत असंक देख रहा हूं, डर नहीं रहा हैं, सभी निसाचरो के बिच में मेरे सामने होने के बाद भीं। किसके बल से तु डर नहीं रहा हैं?रावण ने पूछा, इसका क्या किया जाए? तो किसी ने कहा अंग भंग कर पठई बंदर,। इसका हाथ, पैर तोड़कर भेज दिया जाय। तो रावण ने कहा तुम्हे बुद्धी नहीं है, तुम कुछ नही जानते हो,हाथ पैर मत तोड़ो,कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥रावण ने कहा,कुछ मत करों, बंदर की ममता पूछ में होता हैं, इसलिए इसकी पूछ में आग लगा दो,जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥अब निसाचर लोग बड़े खुस हो गए, मूढ़तावस, निसाचर तो थे ही। हनुमान जी प्रसन्न हो गए,लेकिन जब हनुमान जी न देखा कि पूछ में आग लगा रहे हैं,तो फिर,बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥हनुमान जी प्रसन्न हो गए।पूछ में आग लगे तो प्रसन्न होना चाहिए? लेकिन हनुमान जी प्रसन्न हुए। यह समझकर कि भई सहाय शारद मैं जाना, भगवान की प्रेरणा मिल गई, इसलिए,प्रसन्न हो गए,निसाचर कपड़ा लपेटते चले गए,हनुमान जी पूछ बढ़ाते चले गए।रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥नगर में लंका में कोई भी कपड़ा बचा ही नही, जितने भी ओढ़ने बिछाने के कपड़े थे, पहनने के कपड़े थे, सूखने के लिए डाले गए कपड़े थे, नहाने के बाद सब हनुमान जी के पूछ में लपेट दिए गए, और पूछ बढ़ती चली गईं,रहा न नगर बसन घृत तेला, एक भी lकपड़ा बचा नहीं, सबके कपड़े लपट गए, खेल, खेल में पूछ इतनी बड़ी हो गईं, इसके बाद हनुमान जी अपना पुछ छोटा करते चले गए, कपड़ा जगह, जगह रावण के महल थे, उसपर गिराते चले गए, कुछ यहां गिराए कुछ वहा गिराए, सब जगह टपका दिए, पूरे लंका में आग फैल गईं, और लंका जल गया।जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥समुद्र में कूद गये आग बुझा ली, तो इस तरह से यहा पर क्या है , यही बताया गया हैं? कि वासनाओं का अंत कैसे होता हैं। ये भी वासनाओं के अंत की ही कहानी हैं, कि वसनाओं से वैराग्य कैसे होता हैं? ये शरीर क्या है? ये शरीर एक सुव्यवस्थित ब्रह्मांड हैं। या घट भीतर चंदा सूरज, याही में गुरू हमारा, कबीर कहते हैं। इस घट के भीतर चंदा है, सुरज है, इसी में हमारे गुरू भी हैं। या घट भीतर बैल बधे हैं निर्मल खेती होई। सब कुछ इस घट के भीतर हैं। तो ये सुव्यवस्थित शरीर एक ब्रह्मांड हैं। इसमें लंका क्या हैं? मायिक प्रवित्ती, विषयोन्मुखी प्रवित्ति ही लंका हैं। और रावण कौन हैं? दशो इन्द्रियों की विषयोन्मुखी प्रवृत्ति ही दशानन हैं। तो जो आशक्ति है, हमारी विषयो में इसी का नाम लंका हैं। तो पहले हनुमान जी ने अक्षय कुमार को मारा, तो इसका मतलब पहले इच्छाओं का दमन कर देता है। इच्छाएं नही उठती हैं, लेकिन जब तक मोह जीवित है, मोह ही रावण हैं। तबतक कोई न कोई वासना उठती रहती हैं। क्योंकि मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला। समूर्ण व्याधियो का मूल मोह है। मोह मतलब संसार के प्रति आकर्षण। जब तक आप आकर्षित होते रहोगे तबतक, वासना उत्पन्न होती रहेगी। इसलिए हनुमान जी ने अपनी पूछ बढ़ाई, हनुमान जी कौन है, वैराग्य रूपी हनुमान। वैराग्य किसको कहते हैं, ये संसार ही समुद्र है, इसमें जो आसक्ति हैं, वही लंका है। वैराग्य का मतलब होता हैं, कि जिसको हम देखते है, सुनते हैं, उसमे राग न हो, लगाव न हो। जब आप किसी वस्तु को देखेंगे आंखों से, तो उसी के बारे में सोचने लगेंगे, जब आप किसी के बारे सुनेंगे तो सोचने लगेंगे। ये क्या है? ये आशक्ति है,यही लंका हैं।और वैराग्य क्या है? दिखाई भी पड़े सुनाई भी पड़े लेकिन मन में इसकी कल्पना न हों,देखी हुई, और सुनी हुई वस्तुओ से राग का अभाव, यही वैराग्य हैं। सामने वस्तु दिख रही है,लेकिन मन में कुछ संकल्प न उठे। दिखाई पड़ रहा है, लेकिन आपके मन में चिन्तन न हो, इसका नाम वैराग्य हैं, विषयों से वैराग्य, यही वैराग्य रूपी हनुमान है। तो वासना मतलब विषयों की चिन्तन विषयो की आसक्ति, तो इसलिए हनुमान जी ने पूछ बढ़ाई।पूछ का मतलब होता है प्रेम, किसके प्रति? भगवान के प्रति प्रेम बढता जाता हैं। लंका में क्या लिपट गया था? सभी निसाचरों का कपड़ा।कपड़ा, वस्त्र क्या हैं? वासना रुपी वस्त्र। इधर हनुमान जी ने पूछ बढ़ाई। लेकिन कब बढ़ाई, भई सहाय शारद मैं जाना। जब उनके अंदर भगवान की प्रेरणा हुई तब।शारदा का मतलब सरस्वती।सरस्वती माने परमात्मा के रस में बरतने वाली वृत्ति। रद माने शब्द, सा मतलब परमात्मा। भगवान ने शब्द दिया, वचन दिया। परमात्मा ने अनुभव दिया, भगवान ने कुछ मार्गदर्शन दिया, और जैसे मार्गदर्शन दिया तो,उलट पलट लंका सब जारी।संसार के तरफ जो वासनाओं का चिन्तन चल रहा था,उधर से मन को रोककर के योग के चिन्तन में अपने मन को लगा दिया,तो प्रेम बढ़ गया, प्रेम ही पूछ हैं,किसमे? , भगवान में। और जो वासना लिपटती जा रही थीं, तो वासना किसमे बदल गईं, कर्तव्य रूपी कपड़ा।कर्तव्य क्या हैं? जों वासनाओ का चिंतन चल रहा है, उसको पूर्ति के लिए, मन में आ रहा था कि ये करेंगे वो करोंगे। तो इस रह से वासनाओ का अंत होता हैं। जबतक भगवान प्रेरणा करके मन को वश में न कराले।तुलसिदास बस होइ तबहि,जब प्रेरक प्रभु बरजै।मन ऐसे ही वश में नहीं होता हैं।मन वश में कब होता हैं? जब भगवान प्रेरक के रुप में खड़े हो जातें हैं आत्मा से अभिन्न होकर के खड़े हो जाते हैं। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैंतेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: |नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||ये वासनाएं कब समाप्त होती हैं? भगवान कहते हैं कि मैं आत्मा से अभिन्न होकर खड़ा हो जाता हू और ज्ञान का प्रकाश देता हूं, और मार्गदर्शन देता हूं,और उसके अज्ञान को दूर करता हूं, वासनाओं को समाप्त करता हूं। और साधक को योग में प्रवेश करने वाली बुद्धी देता हूं।आत्मा से अभिन्न होकर परमहंस महाराज जी को दृश्य आया, भगवान ने बताया, तो बुद्धी प्रवेश किधर कर रही थीं? जो बुआ जी जो धन लेकर आई थीं रोटी बनाने के लिए कि मै रोटी बनाऊंगी आप भजन करो, उधर चली जा रही थीं, लेकिन भगवान ने बताया, तुरंत वहां से मन हटा, और भजन में लग गए। भगवान ने योग में प्रवेश करने वाली बुद्धी दी की नही। इसी बात को भगवान कहते हैं कि योग में प्रवेश करने वाली बुद्धी मै देता हूं। इस तरह से वासनाओं का अंत होता हैं। तो ये जों पांचों ज्ञानेंद्रियां हैं, इनके द्वारा हमारा चित्त इनके विषयों में बसा हुआ हैं। उसमे बसा हुआ हैं, इसके लिए इसे वासना कहते हैं। इसलिए हमारा हमेशा यहां बने रहने का मन बना रहता हैं। मरना कोई नही चाहता हैं, सब अमर होना चाहते हैं। अमर रहते भी है, आप को बने रहने की इच्छा है लेकिन आप इस शरीर से नहीं रहोगेये शरीर छूटेगा ही,तो आपको दूसरे शरीर में आना पड़ेगा, चाहें वो मनुष्य का शरीर होगा, चाहें पशु का शरीर होगा या कुत्ते बिल्ली का शरीर होगा, किसी न किसी शरीर में आओगे। लेकिन यहां बने रहोगे। क्योंकि ईश्वर अंश जीव अविनाशी।जीव अविनाशी हैं, मरता हैं, फिर आ जाता है। तो इसी का नाम वासना हैं। इन वासनाओं का अंत कब होता हैं? जब ये पांचों ज्ञानेंद्रियां वश में हो जाती हैं। रुप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द ये पांचों ज्ञानेंद्रियां वश में हो गईं, चित्त ध्यान में स्थिर हो गया,ध्यानस्त हो गया, घ्यान से समाधी में स्थिर हो गया। वहां योग की अग्नि में ये वासनाएं जल जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं,वासनाओ का अंत हो जाता है।और जब वासनाओ का अंत हो गया, फिर उसी संसार में वो योगी रहता हैं, फिर वहीं दृश्य जो पहले प्रभावित करता था, वो अब प्रभावित नहीं करता। जब वासनाओं का अंत हो गया तो स्थाई मस्ती, सदाबहर स्थिती आ गई। जिसको भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि,मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकर:सभी ऋतुओं में बसंत ऋतु मैं हूं। भगवान कहते है की बसंत ऋतु मैं हूं, उनके बसन्त ऋतु होने का मतलब हैं, तत्वदर्शी महापुरुष की जों स्थिती हैं, जिन्होंने वासनाओं का अंत कर दिया है, स्वाभाविक अवस्था जो है,परमात्म प्राप्ति का उसको प्राप्त हो गयावो बसंत ऋतु हैं। और बसन्त पंचमी क्या हैं? पंचमी क्यो कहा गया? क्योंकि पांच ज्ञानेंद्रियां हैं, रुप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द। इसमें वासनाओ का अंत होता हैं इसलिए इसे बसन्त पंचमी कहते हैं। और इसलिए जब वासनाओ का अंत हो जाता हैं, तो बसन्त पंचमी को क्या होता है? सरस्वती पूजा। जब वासनाओ का अंत हो जाता हैं, तो ये किसके रस में डूब जाती हैं। स माने वह परमात्मा के रस में बरतने लगती हैं। ये है सरस्वती पूजा। सरस्वती पूजा आरंभ हो जाती हैं। पहले विषयों में रस लेती थी इंद्रियां, अब परमात्मा के रस में बरतने वाली जों वृत्ति हैं, उसका नाम सरस्वती हैं, तो इसलिए सरस्वती पूजा होती हैं बसन्त पंचमी को। तो इस तरह जो बसन्त का मतलब होता हैं सदाबहार मस्ती। और वो कब आती हैं जब पांचों ज्ञानेंद्रियों से वासनाओ का अंत हो जाता हैं, तब। जब वासनाओ का अंत हो जाता है तो परमात्मा के रस में बरतने लगती है, इसलिए परमात्मा के रस में बरतने वाली वृत्ति सरस्वती हैं, इसलिए सरस्वती पूजा की जाती हैं।
।। ॐ।।