मकर संक्रांति क्या हैं?
आज मकर संक्रांति है, उत्तरायण का पर्व। ये पर्व पूरे देश में अलग, अलग नामों से मनाया जाता है। इसको मकर संक्रांति कहते है। कही संक्रांति कहते हैं, पंजाब में इसे लोहड़ी कहते हैं, और पूर्वी भारत में इसे खिचड़ी कहते हैं। नाम अलग अलग हैं, पूरे भारत में इसे मनाया जाता है। अधिकतर प्रचलित जो नाम है, वो मकर संक्रांति है। इसी को प्रयागराज में माघ मेला के रुप में मनाते हैं।इस मकर संक्रांति को सूर्य उत्तरायण होते हैं। जब उत्तरायण होते हैं,तो समय में एक बहुत बड़ा परिवर्तन होता है। जिस समय से पृथ्वी पर दिन बड़ा होने लगता है,रात छोटी होने लगती है। भारत में इसको उत्तरायण कहते हैं, इसी को मकर संक्रांति भी कहते हैं। और एक होती है, कर्क संक्रांति जो 14 जुलाई को होती हैं, छः महीने बाद, उसको कर्क संक्रांति कहते हैं। तबसे सूर्य दक्षिणायन होते हैं। उस दिन से रात बड़ी होने लगती है, दिन छोटे होने लगते हैं। ये उत्तरायण और दक्षिणायन दो प्रमुख संक्रांति हैं। वैसे बारह राशि होती हैं, बारह राशियों की बारह संक्रांति होती हैं। लेकिन ये दो प्रमुख हैं, और इन दोनो में भी मकर संक्रांति सबसे प्रमुख हैं। उत्तरायण काल जो होता है, बहुत ही उत्तम माना जाता है। कहा जाता है, कि उत्तरायण में जो शरीर छोड़ता है, उसको मोक्ष मिलता हैं। पितामह भीष्म भीं दो महीने प्रतीक्षा किए उत्तरायण होने के लिए, तबतक वो अपनी मृत्यु को रोक कर रक्खे। दो महीने पहले से वो सर सैय्या पर पड़े थे, और साठ दिन बाद जब उत्तरायण आया, तब उन्होने अपने शरीर को छोड़ा।
शरीर छोड़ने से पहले भगवान श्री कृष्ण ने उनको दर्शन दिए, जब दर्शन दिए तो भीष्म ने उनका ध्यान किया, फिर भगवान से कहा कि मेरी ये कन्या हैं, पांडव सभी आश्चर्य में पड़ गए कि ये तो अखंड ब्रह्मचारी थे, इनको कन्या कहा से आ गई? तब फिर भीष्म ने श्री कृष्ण से कहा कि ये जो मेरी बुद्धी हैं, यही मेरी कन्या हैं, इसका विवाह मैं आपसे करना चाहता हूं। फ़िर भगवान ने स्वीकार किया। ये कहानी हैं, उत्तरायण के विषय में। फिर पितामह भीष्म जो दो महीने से सर सैय्या पर थे, युद्ध के बाद उन्होने शरीर छोड़ा। तो ये मकर संक्रांति उत्तरायण का पर्व हैं। अयन मतलब घर होता है, सूर्य के दो घर होते हैं। एक उत्तरायण और एक दक्षिणायन। उत्तरी गोलार्ध पर हमारा देश पड़ता हैं। और जब प्रकाश उत्तरी गोलार्ध पर पड़ता हैं, तो इसको उत्तरायण कहते हैं। और दक्षिणी गोलार्ध पर पड़ता है, तो दक्षिणायन कहते हैं। इसलिए उत्तरायण में ही सभी शुभ कार्य किए जाते हैं, हिंदुओ में।
बहुत पवित्र समय इसे माना जाता है। और तभी से ये कहानी प्रचलित हैं। भीष्म ने उत्तरायण में शरीर छोड़े, सभी लोग यहीं सोचते हैं, कि उत्तरायण आयेगा, तभी हम शरीर छोड़ेंगे, तो हमारा मोक्ष होगा।
लेकिन शास्त्रों में जो भी कहानियां हैं, ये सब आध्यात्मिक हैं। जैसे बाहर सूर्य हैं, पृथ्वी हैं, समय का परिवर्तन हैं, जो कुछ आप बाहर देख रहें हैं, धड़ धरती का एकै लेखा, जस बाहर तस भीतर देखा। ऐसे ही सब हमारे अंदर भी हैं। तो उत्तरायण का जो आध्यात्म होता है, वो हमारे अंदर होता हैं। बाहर उत्तरायण की एक कहानी, जो आप समझ रहे हैं, कि भीष्म पितामह ने शरीर छोड़े उत्तरायण में, तो सबके पास इच्छा मृत्यु, तो होती नही, किसी का दक्षिणायन में भी छूट जाता हैं, तो क्या वो सब नरक जाते हैं? जिनका उत्तरायण में ही शरीर छूटता है, सिर्फ वही स्वर्ग जाते हैं? ऐसा कुछ नहीं हैं, इसको हम बाद में बताएंगे। पहले हम बताते हैं कि मकर संक्रान्ति या उत्तरायण होता क्या हैआध्यात्म मे।
जो शास्त्रों में बाते आई हैं मकर संक्रांति की,उत्तरायण की, वे सब आध्यात्मिक हैं। इसका वर्णन तुलसीदास करते, हैं कि,
“माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।
जब माघ के महीने में मकरगति होती हैं, संक्रांति होती है, उत्तरायण होते हैं सूर्य, तो सब तीर्थपति प्रयागराज में आते हैं। जो भी उत्सव त्यौहार हमारे पूर्वजों ने रक्खे हैं, जैसे ये मकर संक्रांति हैं, प्रत्येक उत्सव त्यौहार के पीछे जो कहानी हैं, वो साधना की कहानी है, उसका आध्यात्मिक अर्थ हैं,कि लोग बाहर इस त्यौहार को मनाते जाएं, और कभी न कभी ऐसा समय आए माघ मेला में या कुंभ में तो वे संतो से मिले, इसका वास्तविक अर्थ समझें,और फिर साधना में लग जाय। तो ऐसे ही ये मकर संक्रांति जो बाहर होती है, सूर्य का उत्तरायण होना, वैसे ही हमारे अंदर भी सूर्य है, हमारे अंदर भी उत्तरायण होता हैं, हमारे अंदर भी मकर संक्रांति होती हैं।
लेकिन वो कब होती है, किसके लिए होती हैं? इसी बात को शास्त्रों में बताया गया। तुलसीदास जी कहते हैं कि तीरथपति आव सब कोई, सब कोई तो नही आ सकता, जितना दुनियां में लोग है। लेकिन उन्होने कहा है, कि सब कोई तीर्थराज प्रयाग में आता है। संक्रांति का आध्यात्मिक मतलब होता हैं, ऐसी क्रान्ति जो महापुरुषों के संग से हो। क्रान्ति तो आप देखते ही होंगे, बहुत से देशों में क्रान्ति हुई। रूस में हुई, जारो का शासन हटा, फिर वहां कम्युनिस्टों का शासन आया। चीन में हुई, भारत में भी आजादी आई। तो बाहर क्रांति होती रहतीं हैं। लेकिन ये बाहर की क्रान्ति किसके लिए होती हैं,? अपनी, अपनी कुर्सी के लिए, एक को हटा कर दूसरा बैठ जाता है, ये क्रान्ति नहीं, वह क्रान्ति जो,महापुरुषों के संग से होती है, वह क्रान्ति जो परमात्मा के संग से होती हैं, वह क्रान्ति जो ध्यान और सत्संग से होती हैं। उसका नाम संक्रान्ति हैं, संग और क्रान्ति, इस क्रान्ति में क्या होता हैं? मनुष्य के अंदर की पूरी व्यवस्था बन जाती हैं। बाहर की क्रान्ति में तो एक जाता हैं, तो दुसरा आता हैं, लोग बदलते ही रहते हैं, समय समय पर व्यवस्थाएं बदलती रहती हैं, लेकिन ये ऐसी क्रान्ति हैं, जो महापुरूषों, सद्गुरु के संग से होती हैं। ऐसी व्यवस्था बदलती हैं कि दुबारा पुनः परिर्वतन नहीं होता हैं। तो उसको कहते हैं, संक्रान्ति। यदि एक बार बदल जाए जीव की स्थिती, एक बार बदल जाय जीवात्मा की व्यवस्था, तो दुबारा बदलने की जरूरत न पड़े। ऐसी क्रान्ति को संक्रान्ति कहते हैं। तो वास्तव में हमारे देश में जो भी त्यौहार मनाए जातें हैं, उन सबका मतलब आध्यात्मिक होता है, उनका संबंध साधना से होता हैं। उनके भीतर कही न कहीं साधना छिपी रहतीं है। इसीलिए त्यौहार मनाए जाते है। ऐसे ही मकर संक्रान्ति भी हमारे भीतर की साधना का चित्रण हैं। तो कैसे मकर संक्रान्ति हमारे अन्दर हैं? संक्रान्ति का मतलब हैं, जीव का ईश्वर के रुप में परिवर्तित होना। ऐसा संग जिसके द्वारा हमारी आत्मा परमात्मा के रुप में परिवर्तित हो जाय। हमारी प्रकृति पुरुष तत्त्व में विलीन हो जाय। ऐसे संग से जो क्रान्ति होती हैं, वो संक्रान्ति होती है। और ये संग किसका होता है? तत्वदर्शी सदगुरु का, उसके द्वारा जो जागृति होती हैं, परमात्मा का।
सत्य का जब संग होता हैं, तब ये क्रान्ति हमारे जीवन में होती हैं। तो इसलिए हम देखेंगे कि कैसे होती है, माघ मकर गति क्या होती हैं? माघ क्या हैं, मकर गति क्या है, और तीर्थराज प्रयाग क्या हैं? क्योंकि माघ के महीने में मकर गति होती हैं। और फिर सब तीर्थराज प्रयाग में आतें हैं।
तो माघ का मतलब होता हैं, महान अघ।
एक समय की घटना है, कि हमारे पूज्य दादा गुरु, परमहंस महाराज जी जब साधु नही हुए थे, उस समय अपने गांव में रहते थे, उनको एक स्त्री ने निमंत्रण दिया, तो वे जाने के लिए बहुत प्रसन्न हुए जानें के लिए, नहा धोकर पूरे साज सज्जा से रात को सात आठ बजे के समय अंधेरे में उसके बुलावे पर उसके घर के तरफ चलने लगे। जब चलने लगे, रास्ते पर पहुचे उसका घर थोड़ा दूर था, तो उनके मन में विचार आया कि कहीं हम पाप तो नही करने जा रहें हैं? तो फिर उसी समय बहुत जोर से आकाश वाणी हुई कि महान पाप करने जा रहें हो, घोर नरक में जाओगे, और अकाशवाणी ही नही हुई, साथ साथ में उनका पैर कहते है कि जैसे एक एक मन का हो गया हो, इतना भारी हो गया, आगे कदम ही नहीं बढ़ें, एकदम सन्न रह गए। फिर अकाशवाणी हुई कि इस मंदिर में तुम्हारे गुरु महाराज हैं, वहा पर गए, पुराना मंदिर था,ढूंढ कर आए कोई नही मिला, दूसरी बार गए, तो सहसा खासने की आवाज आई, वो थे उनके गुरु सत्संगी महाराज, उनके पास बैठे प्रकाश की व्यवस्था की, साधना का क्रम समझा, फिर भजन में लग गए। ये जो घटना हैं, पूरी की पूरी मकर गति की घटना हैं। माघ का मतलब होता हैं, महा अघ। ये जो संसार है, ये क्या हैं? अघालयम पाप का घर है। पाप का घर मतलब ये जो बाहर संसार दिखाई देता है, ये संसार नही। हमारे चित्त का जो पट पसार ही संसार हैं। हमारे मन का प्रसार, जब मन में कामना होती है, तो आदमी बाहर पाप करने के लिए संसार निर्मित कर लेता हैं। इसलिए अघालयम मतलब महा अघ, संसार में प्रवित्ती। तो जो महान पाप है, उसका कारण क्या हैं? हमारी कामना, हमारी वासना। परमहंस महाराज जी के मन में जो कामना आई जा रहें थे, काम की ओर। ये क्या था? महा अह माघ का महीना। वहां से आकाशवाणी हुई कि मन्दिर में गुरु महाराज हैं, गुरु महाराज का दर्शन किया, वहां से क्या हुआ उनका? मकर गति। उनको पता चला कि हमारा कर्तव्य क्या हैं, किसलिए धरती पर आया हूं,हमे करना क्या हैं? जब व्यक्ती के मन में ऐसी बात आती है, ये विचार आता कि मै किसलिए आया हूं, मेरा धरती पर जन्म क्यों हुआ, मुझे करना क्या हैं? जब उसके स्वयं के प्रति विचार आता है, तो इसे मकर गति कहते हैं।इसी को वैराग्य भी कहते है। जब वो अपने उपर विचार करने लगता हैं।
हमारे शरीर में तीन चीज़ें होती हैं। एक शरीर होता है, एक चित्त होता है, और एक आत्मा होता है। चित्त बीच में रहता है, इसका सम्बंध शरीर से भी रहता है,संसार से भीं रहता है, और भीतर जो आत्मा है, उससे से भी इसका संबन्ध रहता है। जबतक चित्त का सम्बंध शरीर से हैं, शरीर के भोगों से हैं, अपनी कामनाओ की पूर्ती से हैं, तब तक इसकी कौन सी गति हैं? कर्क गति,कर्क संक्रांति दक्षिणायन। हमेशा करते रहो, पहुचोगे कही नही। और मकर गति का मतलब हैं, मनन करना।
म कर, म माने मेरे लिए, कर माने कर्तव्य, हमारे अंदर अंतःकरण में जो आत्मा हैं, उसके लिए ये म आया है। उस आत्मा के लिए जब हम मनन करते हैं, चिंतन करते हैं कि हमने इस शरीर को लेकर के इस संसार में क्यों पैदा हुए? क्या खोया, क्या पाया, जब उस आत्मा के बारे में विचार करने लगते हैं, मनन करने लगते हैं, तो हमको वैराग्य हो जाता है, इसको कहते हैं, मकर गति।
तो चित्त क्या हैं? चित्त ही सूर्य हैं। बाहर सूर्य की मकर गति होती है, उतरायण। और इधर हमारे भीतर सूर्य क्या है? चित्त ही सूर्य हैं, चित्त की मकर गति कब होती है? जब वो परमात्मा के बारे में विचार करने लगता हैं, अपने बारे में सोचने लगता है। मैं किस लिए पैदा हुआ़, मेरा कर्तव्य क्या है? जब ऐसा सोचने लगता है, तो इसको मकर गति कहते हैं।
जब मकर गति होती है, तो तुलसीदास जी कहते है, कि सब कोई तीरथपति प्रयागराज में आतें हैं।
यहां पर परमहंस महाराज जी के अंदर मकर गति हुई, अपने कर्त्तव्य के बारे में सोचा, जब भगवान ने आकाशवाणी दिया कि महान पाप करने जा रहें हों। उसके बाद वो तुरंत वहा से लौटे वैराग्य हुआ, अपने आत्मा के विषय में परमात्मा के विषय में सोचने लगे। परमात्मा के बारे में सोचने लगे, और परमात्म प्राप्ती की जो साधना है, अपने गुरु महाराज से समझें, और फिर भजन में लग गए। ये मकर गति हैं। तो ये जो मकर गति है, इसका मतलब इस तीर्थराज प्रयाग में आता हैं। माघ का मतलब होता है, संसार में प्रवृत्ति, महान अघ है, संसार, और संसार माने हमारे कामनाओं की पूर्ती कामानाओ का प्रसाद। जब तक हम कामनाओं की पूर्ति कर रहे हैं, तबतक ये माघ का महीना है, महा अघ, और उसी में क्या पड़ता है? उसी में उत्तरायण (मकर)पड़ता है, जब इसी संसार से जब किसी को वैराग्य होता हैं, अपनी आत्मा के विषय में सोचने लगता हैं, मनन करने लगता हैं, उस आत्म प्राप्ती के लिए विचार करने लगता हैं, तो ये चित्त की मकर गति हैं। इसी को मकर संक्रांति कहते हैं। जब विचार करने लगता है, तब फिर सदगुरू मिलते है। तो इसी को कहा गया तीरथपति आव सब कोई, ये मकरगति सबकी भिन्न भिन्न प्रकार से हुई। मनु महाराज थे, उनके अंदर भी ये मकर गति हुई।
होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥
मन में बहुत दुःख हुआ, राज्य करते करते, चौथापन आ गया, लेकिन विषयों से वैराग्य नहीं हो रहा, अपने आत्मा के विषय में सोचने लग गए। कि संसार में भोग ही भोगते रहेंगे कि भजन भी करेंगे, जब इस तरह से व्यक्ती सोचने लगता हैं, तो इसी को चित्त की मकर गति कहते हैं। मेरा कर्तव्य क्या है, इस दुनियां में मैं क्यों आया। वही मनु सोचने लग गए कि ये जो जीवन है, ये संसार के विषय भोग , भोगते बीतता चला जा रहा है, चौथापन आ गया, और फिर बहुत दुःख हुआ।
बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
वैराग्य हुआ, अपनी पत्नी के साथ बन चले गए, वहां जाकर फिर भजन करने लग गए, भजन करते करते एक समय ऐसा आया, कि भगवान की प्राप्ती की। तो ये मनु की मकर गति थी। लेकिन जब बन गए तो वहां महापुरूषों से मिले संतों से मिले। नैमिषारण्य में संतों से साधना विधि समझी और फिर तपस्या में लग गए। इसलिए जब किसी के अंदर वैराग्य होता हैं, मकर गति होती हैं।
वैराग्य किससे होता है? महा अघ (माघ) अर्थात् संसार से होता हैं। महान पाप का जो घर है संसार, उससे वैराग्य होता हैं। जब हम अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए ही व्यस्त रहते हैं,जब हम अपने लिए सोच ही नहीं पाते हैं। तब हमारे अंदर ग्लानि होती है, वैराग्य होता हैं। कि मैं संसार में क्यों आया, मेरा कर्तव्य क्या हैं? जैसे ही चित्त में ये विचार आता है, तो इसको चित्त की मकर गति कहते हैं। तुलसी दास की कहते है, तीरथ पति आव सब कोई । एक तो तीर्थराज प्रयाग बाहर है, जिसमें सब कोई जाता हैं। और दूसरा तीर्थराज प्रयाग क्या है?
“मुद मंगलमय संत समाजू, जो जग जंगम तीरथ राजू।।
ये जो संत समाज हैं, ये क्या है? चलता फिरता तीर्थराज प्रयाग है।
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।
चलता फिरता तीर्थराज प्रयाग क्या हैं? संत।
जब किसी के अंदर मकर गति होती है, वैराग्य होता है, तो किसके पास जाता हैं? संतो के पास जाता है, क्यों,वैराग्य किसके लिए हुआ हैं ? क्रान्ति के लिए। अपने आप को बदलने के लिए। कौन से परिवर्तन के लिए, कौन से क्रांति के लिए? अपने जीव को ईश्वर के रुप में बदलने के लिए। उस क्रान्ति के लिए वैराग्य हुआ है। और ऐसी क्रान्ति कौन कर सकता हैं? तिरथपती। जो तीर्थराज प्रयाग के स्वरूप महापुरुष हैं। ऐसे महापुरुष ही प्रयागराज है।
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ। कहहि संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ।।
संत का संग क्या हैं? मुक्ती का कारण हैं। क्रान्ति का कारण हैं। जीव का ईश्वर में बदलने का कारण हैं। और कामी का संग क्या हैं? भव का पंथ है, महा अघ हैं। संसार में प्रवृत्ति देता हैं। इसलिए संत समाज जो है,तीर्थराज प्रयाग के समान हैं।
तो प्रयाग का मतलब होता हैं, पर माने वह परम् तत्त्व परमात्मा, के लिए, याग माने “यज्ञ” करतें करते जो महापुरुष यज्ञ स्वरूप हो गए, परमात्म स्वरूप हो गए वे चलता फिरता प्रयागराज है। और जब किसी के अंदर वैराग्य होता हैं, तो वो ऐसे ही तत्वदर्शी संत के पास जाता हैं, जो प्रयागराज के स्वरूप हैं। इनकी पहचान कैसे होती हैं?
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही।।
विशुद्ध संत उसी को मिलते हैं, जिसको भगवान कृपा करके देख लेते हैं। भगवान कृपा क्यों करेंगे?
मन क्रम वचन छाड़ी चतुराई,
भजत कृपा करि हहिं रघुराई।
मन क्रम वचन से चतुराई छोड़कर के जब नाम का जप करता हैं कोई, तो भगवान कृपा करके विशुद्ध संत प्रदान कर देते हैं। जो प्रयाग राज के स्वरूप है जो तीर्थस्वरूप हैं, तो जब ऐसे संत मिल गए तो,
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥
जब संत मिल जाते हैं,तो संसृति का अंत हो जाता हैं। फिर उसके अंदर वो क्रांति शुरू हो जाती हैं। उसके अंदर परिवर्तन और बदलना शुरू हो जाता हैं। लोग कहते है, अपने आपको कोई नही बदलता हैं, दूसरे को बदलने के लिए सब लोग बोलते हैं। लेकिन अपने आपको बदलने का जो क्रम हैं जो साधना हैं, वो किससे मिलती हैं? जिसने अपने आपको बदल लिया हैं। जिसके अंदर क्रांति हो गईं हैं। जिसका जीव ईश्वर के रुप में बदल गया हैं। ऐसा महापुरुष मिलना चाहिए। तब हमारे अंदर संक्रांति होंगी। तब हमारे अंदर वो परिवर्तन होगा, तब हमारा जीव ईश्वर के रुप में परिवर्तित होगा। तो इसलिए ऐसे जो संत होते हैं। वो सदगुरू जो होते हैं, वो प्रयागराज के स्वरुप होते हैं। तो जब किसी के अंदर मकर गति होती हैं, जब ये विचार उत्पन्न होता हैं, कि मेरा कर्तव्य क्या हैं, क्या संसार में ही जीवन बिता देना हैं?जब भजन, भक्ती, भगवान के विषय में ये विचार उत्पन्न होते हैं।
तो जब ये मकर गति होती हैं, तब उसको सदगुरू मिलते है।
तो जो सद्गुरु है, वहीं प्रयागराज हैं।
माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई।।
देव दनुज किंनर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।
देवता है, दनुज है, नर हैं,किन्नर हैं , ये सब मनुष्य के अलग अलग स्तर हैं। ये सब त्रिवेणी में स्नान करते हैं। और फिर बताते हैं।
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।
सुनकर उस संत से सद्गुरु से हमने समझ लिया।
कौन सा जन? जिसके अंदर मकर गति हुई है, जिसके अंदर वैराग्य हुआ हैं । वो उस महापुरुष के पास जाकर समझता हैं, फिर उसे मज्जन करता हैं।
तो मज्जन करता हैं तो क्या प्राप्त होता हैं?
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।
ये संत समाज रूपी जो प्रयाग हैं, इस शरीर के रहते, रहते चार फल प्राप्त करता है।
कौन कौन सा फ़ल? अर्थ धर्म काम मोक्ष। ये जो संत समाज है, चलता फिरता तीर्थ है। सबही सुलभ सब दिन सब देशा। हर देश में है, ऐसा नहीं की भारत देश में ही प्रयाग राज हैं। सब देश में पुरी दुनियां में महापुरुष हुए हैं। और प्रत्येक महापुरुष जो धरती पर हुआ है, और आगे भी भविष्य में होगा, वो सब तीर्थ राज प्रयाग का स्वरूप होगा। अब उनकी शरण में जब हम जाते हैं तो ये परिवर्तन होता कैसे हैं? हमारा जीव ईश्वर के रुप में बदलता कैसे हैं। तो उसका एक साधना का क्रम हैं। उसको कहते हैं।
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
सतसंगत मतलब संत मिल गए, और संत का जब संग मिलता हैं,तब सत्य का संग मिलता हैं, और जब सत्य का संगत करने लगता हैं व्यक्ती, तब उसका फल, काक होई पिक बकहु मराला, कौआ कोयल हो जाता हैं, कोयल बकुला, हो जाता हैं, बकुला हंस हो जाता हैं। ये मज्जन का फल हैं, वहा प्रयागराज में स्नान का फल हैं।
कौन से प्रयागराज में ? जो संत रूपी प्रयागराज हैं, तत्वदर्शी सदगुरु रूपी प्रयागराज हैं। जिसने यज्ञ करते करते परमात्मा को प्राप्त कर लिया हैं। ऐसा महापुरुष क्या हैं? प्रयाग राज का स्वरूप हैं। और उसमें मज्ज़न कैसे किया जाता हैं? सुनी समुझहि, पहले सुना जाता है, फिर समझा जाता हैं। क्या बताते है वह महापुरुष? भजन की विधि बताते हैं। भजन की दो ही विधी हैं, नाम और रुप। जब तत्वदर्शी सदगुरू मिलते हैं, तो पहले हमने उनका आंखों से दर्शन किया। ये मज्जन हो गया, आंखो से हम दर्शन करते है, उनकी वाणी सुनते है, और जब वाणी सुनी, ओर उस वाणी को जब अपने हृदय में जब धारण किया। उसके अनुसार जब आचरण करते हैं, तो ये मन का डूबना मन का स्नान करना हो गया।
तो महापुरुष क्या बताते हैं?
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।
ॐ अक्षर ब्रह्म का परिचायक है, जो इसका जप करता हैं, मेरा स्मरण करता हैं, वो परमगती को प्राप्त होता हैं, मेरे स्वरूप को प्राप्त होता हैं। तो ॐ का जप और महापुरुष के स्वरूप का ध्यान, भगवान कृष्ण कहते हैं, मेरे स्वरूप का ध्यान, तो वैसे ही यहां पर क्या हैं? संत समाज।
प्रथम भगति संत का संगा। जो भगवान की प्रेरणा से संत सदगुरू मिल गए वो क्या हैं? वही भगवान कृष्ण के स्वरूप हैं। वो फिर क्या बताएंगे ? नाम का जप। पूर्व काल के ऋषियों ने ॐ का जप किया। ॐ का मतलब होता हैं,
ओ मतलब वह परमात्मा अहम मतलब आप स्वयं। जिसका निवास आपके अंदर हैं। इसलिए उसका नाम ॐ हैं।
रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।
जो सबके हृदय में रमण करता है, इसलिए उसका नाम राम हैं। उस परमात्मा के अनेकों नाम है। पूर्व कालीन ऋषियो ने ॐ का जप किया। भक्तिकाल के महात्माओं ने राम का जप किया। तो महापुरुष मिल जायेंगे , तो हमको क्या बताएंगे? नाम और रूप। तो नाम और रुप जब हमको बताते हैं। तो एक तो सत्संग हमने वाणी से सुना। और फिर सत्संग का मतलब सत्य की संगत। सत्य क्या हैं?
सत्य वस्तु है आत्मा मिथ्या जगत पसार।
सत्य क्या हैं? परमात्मा ही सत्य हैं। उस सत्य को हम ग्रहण कैसे करें? प्राप्त कैसे करें? उस परमात्मा का नाम क्या हैं? ॐ हैं । ओ मतलब वह परमात्मा अहम मतलब हम स्वयं। जिसका निवास आपके अंदर है इसलिए उसका नाम ॐ हैं। तो यदि नाम के जप में हम अपने मन को लगाते हैं, तो वो सत्य की संगत है, लेकिन और सदगुरू जो तीर्थराज के स्वरूप है , ऐसे महापुरुष के स्वरूप को ध्यान में, मन लगाते हैं, तो सत्य की संगत हैं। तो एक तो सत्संग वाणी से सुना जाता हैं, जो महापुरुष लोग बोलते हैं। और दूसरा सत्संग मन सहित इन्द्रियों को समेटकर के नाम और रुप में लगाना, ध्यान में लगाना चिंतन में लगाना, ये सत्य की संगत हैं। तो
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
तो जब ये सत्संग उपलब्ध हो जाता हैं, कौन सा? एक तो महापुरुष मिल गए उनको हमने अपनी आंखों से देखा,और फिर जो उन्होनें उपदेश दिया, उसके अनुसार घर पर बैठकर आधा घंटे पन्द्रह मिनट जीतना भी समय, उनके बताए हुए नाम का जप करते हैं, उनके स्वरूप का स्मरण करते हैं, जैसे उनको हमने बाहर आश्रम में देखा हैं,
वैसे ही जब हम घ्यान करने लग गए। तो आश्रम हमारे भीतर आ गया।
तो वो प्रयागराज हमारे अंदर आ गया। हम डूबने लग गए स्नान, करने लग गए। और जब नाम जप में लग गए, तो नाम जपते, जपते मन लग गया तो प्रयागराज हमारे अंदर आ गया।
तो ये सत्य की संगत, मतलब संत की संगत, ये स्नान करना है, प्रयागराज में।
तो नाम का जप चार प्रकार से किया जाता हैं। बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती, परा। बैखरी मतलब बोलकर के ।
हमारा सबका जो जीवन स्तर हैं, बोलकर के ही काम चलता हैं। आप अपने मन की बात बिना बोले हम किसी को नहि बता सकते, बोलना पड़ेगा, इसलिए पहला नाम जप क्या हैं? बोलकर के, जैसे ॐ ॐ ॐ ॐ। फिर धीरे धीरे, मध्यमा इसको कहते हैं। फिर पश्यन्ती, पश्य माने देखना। किसको देखना? श्वास को देखना। श्वास कब अंदर गईं कब बाहर आई, इसको पश्यन्ती कहते हैं। और जब मन रुक गया, जपे न जपावे अपने से आवे, इसको परा कहते हैं। ये चार प्रकार के नाम जप का स्तर हैं। बाहर आप किसी भी देवी देवता को जापोगे तो कहीं न कहीं जहां वो हैं, वहा जाना पड़ेगा। खोडियार माता आशापुरा माता को जपते हो तो वहा जाना पड़ेगा। ॐ नमः शिवाय जपते हो तो शंकर जी का मन्दिर जहां है, वहां जाना पड़ेगा। कृष्ण कृष्ण जपते हो तो जहां उनका मंदिर है वहा जाना पड़ेगा। लेकिन जब ॐ का जाप करोगे, तो उनका कोई मन्दिर नही हैं, ये तो एक अनुभूति हैं, महापुरुषों की। जो साधना किया तपस्या किया तो उनकी श्वास में जो अनुभव हुआ, तो भगवान ने अपना जो परिचय दिया, ओ ॐ के रुप में दिया। ये अनुभूति है, भगवान ने अनुभव मे बताया। ये ॐ का जो शब्द हैं,नाम हैं, भगवान ने ऋषियों मुनियों को बताया। ये परमात्मा का संबोधन हैं। तो इसलिए नाम जप पहले बोलकर फिर धीरे, धीरे फिर पश्यन्ती में जब हमारा मन पहुंचता है, जपने में, पश्य मतलब देखना। किसको देखना श्वास को देखना। जितने भी महापुरुष हुए, सबने इस श्वास प्रश्वास का जप किया। श्वास आ रही है, जा रही है, तभी तक हम जीवित है, बाहर संसार से जुड़ी हुई है, भीतर परमात्मा से। ये श्वास जबतक है, तभी तक संसार का काम कर सकते है, और श्वास है तभी तक परमात्मा का भजन भी हम कर सकते हैं। इसलिए तीसरा जो नाम का जप होता है, पश्यन्ती, वो श्वास से किया जाता है, उसमे बोला नही जाता है, उसको देखा जाता हैं। श्वास कब अंदर गईं अंदर कितना रुकी, कब बाहर आयी बाहर कितना रुकी। उसको समझो जब अंदर आई तो ॐ जब बाहर गईं तो ॐ, इसी को भगवान श्री कृष्ण ने प्राणापान का यज्ञ कहा।
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।
जब हमारा मन लगने लगता हैं, नाम जप में, बैखरी मध्यमा पश्यन्ती परा में। तो हमारे अंदर भी परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होने लगता है, परमात्मा से लगाव हो जाता है,प्रेम हो जाता है। इसको कहते हैं, प्रेमरूपी प्रयागराज। एक तो प्रयागराज रूपी तत्वदर्शी सद्गुरु हैं। प्रेम हुआ परमात्मा से उन्होने जाना। प्रेम करके भगवान को प्राप्त कर लिया। और दूसरा जब हम उनको देखने लग गए, नाम का जप करने लग गए तो हमारे अंदर भी जो प्रेम उत्पन्न होता है, इसका भी नाम प्रयागराज है, ये तीर्थो का सम्राट है प्रयागराज। तीर्थः परमम किम, स्वयमेव विशुद्धयेत अपने मन को विषेश रुप से शुद्ध करना तीर्थ हैं। तो कब मन शुद्ध होता हैं? जब हमारे अंदर प्रेम उत्पन्न होता हैं, प्रेम क्या हैं? प्रेम ही प्रयागराज हैं। प्रेम कब उत्पन्न होता हैं, जब बैखरी से आप जपोगे, मध्यमा से जपोगे, जब पश्यन्ती में आप जाओगे।
“भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग। कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग॥
भरत ने तीसरे पहर में जाकर के प्रयागराज में प्रवेश किया। तीसरे पहर का मतलब बैखरी, से जपना, मध्यमा से जपना और पश्यन्ती से जब जपते है तो उसको कहते है, तीसरा पहर। पश्य माने देखना, जब हम श्वास को देखने लगते हैं, श्वास को मन से देख सकते हैं। जब मन श्वास को देखेगा तो दुसरा विचार नहीं करेगा, और जब दूसरा विचार करेगा तो श्वास को नही देखेगा। तो जब श्वास को देखने में मन लगता है तो हमारे अन्दर प्रेम उत्पन्न होता हैं। ये प्रेम ही प्रयागराज हैं। और ये कब उत्पन्न होता हैं? जब परमतत्व परमात्मा के लिए हम यज्ञ कर रहें हैं। कौन सा यज्ञ?
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि, नाम का जप रूपी यज्ञ हम कर रहें हैं, परमतत्व परमात्मा के लिए यज्ञ करना प्रयाग हैं। और जब नाम का जप रूपी यज्ञ पश्यन्ती से होने लगता हैं, पश्यन्ती और परा से, तब हमारे अंदर प्रेम उत्पन्न होता हैं,परमात्मा के प्रति।
प्रेम से प्रकट होई मै जाना, वह परमात्मा प्रेम से ही प्रकट होता हैं। जब यह साधना हम करने लगते हैं, तो
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
कौआ से कोयल, कोयल से बगुला, बगुला से हंस हो जाता हैं। ये मज्जन ये स्नान । कौन सा स्नान? एक तो हमने दर्शन किया महापुरुष का फिर उनसे साधना भजन सीखी और जब नाम जप में लग गए, घ्यान करने लग गए, हमारा मन नाम जप में लगा, तो हम भी प्रयाग राज में पहुंच गए। सत्य की संगत में डूबने लगे, स्वरूप का ध्यान करने लग गए, तो हमारा मन प्रयाग राज में पहुंच गया, डूबने लगे। तब हमारे अंदर कौन सा परिवर्तन होता हैं, क्रांति आई, जो महापुरुषों के संग से होता है। ऐसी क्रान्ति जो महापुरुषों के संग से होती हैं, ऐसी क्रान्ति जो सत्य के संग से होती हैं, इसलिए संक्रान्ति कहते हैं। किसका संग? सत्य का संग।
सत्य कब जागृत होता है, जब सद्गुरु मिलते हैं। तो पहले सद्गुरु का संग उनका दर्शन किया फिर सत्य की विधि मिली, तो फिर सत्य का संग। सत्य क्या हैं? मन सहित इन्द्रियों को संयमित करके समेटकर के आत्मा की संगत करना। आत्मा की संगत कब करते हैं? जब नाम के जप में स्वरूप के स्मरण में हम मन को लगाते हैं। तो ये सत्य की संगत होने लगी। तो जब साधक कोई भी भक्त इस प्रयागराज में संत समाज रूपी प्रयाग पहले बाहर देखा संत को, फिर साधना विधि मिली, फिर अपने अंदर ले आया। अपने अंदर संत कब आते हैं? जब नाम जप में मन लग जाता है तब। तो इस मज्जन का फल क्या हैं? काक होई पिक बकहु मराला। ये चार अवस्थाएं है साधना की, इस क्रान्ति की इस परिवर्तन की जीव से ईश्वर होने की चार अवस्थाएं हैं। इन्ही चार अवस्थाओ को बैखरी मध्यमा पश्यन्ती परा कहा गया। इन्हीं को कौआ से कोयल, कोयल से बगुला, बगुला से हंस हो जाते हैं। इन्हीं को चार अवस्था कहा गया है ,ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र। इन चार अवस्थाओं में ये क्रान्ति घठित होती हैं। ये महापरिवर्तन जिससे जीव ईश्वर के रुप में परिवर्तित होता है। ये क्रान्ति ये संक्रांति इन चार अवस्थाओं में होती हैं। अब हम संग किसका करते हैं , तत्वदर्शी सदगुरु का, परमात्मा का।
परमात्म स्वरूप महापुरुष का, संग किससे करते हैं? मन से करते हैं। तो
संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
संत का संग मुक्ती का कारण हैं। एक तो हमने बाहर से देखा, दूसरा संग अंदर से, नाम का जप करना और स्वरूप का स्मरण, करना। जब ये करने लगते है तो हमारे अंदर ये क्रान्ति ये परिवर्तन होता हैं।
“काक ने पिक बकहु मराला, कौआ से कोयल हो जाता हैं। कौआ का मतलब
“पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात। अब तो मन हंसा, मोती चुनि-चुनि खात।।
जब कोई साधक या भक्त, जो भी कोई साधना में प्रवृत्त होता हैं, अपने आप को बदलने के लिए, तो उसका मन क्या होता है? कौआ होता हैं। उसी को शुद्र स्तर कहते हैं। उस समय उसको क्या करना होता हैं? जीभ से नाम जप करना होता हैं, सेवा करनी होती हैं। अपने स्वभाव से जो कर्म करने की क्षमता हैं, उसमे जब लगा रहता हैं, नाम जपता रहता हैं, जीभ से धीरे धीरे और सेवा करता रहता हैं, तो कौआ से कोयल हो जाता हैं। कलर दोनो का एक जैसा लेकिन कोयल मीठा मीठा बोलती हैं। इसके लिया एक दृष्टांत हम देंगे, इसके सम्बंध में,
महात्मा बुद्ध थे, उनके शिष्य हुए अंगुलीमाल, वे पहले हत्या करते थे, लेकिन जब बुद्ध की दृष्टी पड़ी उनके ऊपर तो अंगुलीमाल का विचार बदल गया, वो बुद्ध के प्रति समर्पित हो गया। यहां पर भी मकरगती हुई, मकर संक्रांति।अंगुलीमाल क्या कर रहा था? महा अघ पाप कर रहा था, हत्या कर रहा था। महा अघ (माघ) का मतलब महा पाप कर रहा था, रोज हत्याएं करता था, माघ के महीने में चल रहा था, वो जो अघालय संसार हैं, उसी में लगा हुआ था। उसकी मकर गति कैसे हुई? जैसे ही बुद्ध की दृष्टी पड़ी, तो उसने कहा रुक जाओ, कहा जा रहें हों? तो बुद्ध ने कहा तुम्ही चल रहें हो मैं तो कब से स्थिर हो गया हूं। स्थिर होने का मतलब मन से स्थिर हो जाना। शरीर के चलने से स्थिर होने से मतलब नहीं हैं, बुद्ध मन से स्थिर हो गए थे, ध्यानस्थ हो गए थे, समाधिस्थ हो गए थे। तुम्ही ही चल रहें हों। पहली बार उसके मन में विचार आया कि आज तक ये जो मेरे हाथ में तलवार हैं, इसको जो भी देखता था, देखकर भाग जाता था, लोग रास्ता बदल देते थे। पहला ऐसा व्यक्ती हैं जो डरा नहीं मुझसे, उसके बाद अंगुलीमाल ने भगवान बुद्ध को देखा तो स्थिर हो गया, उसने कहा मैंने तो बहुत पाप किया हैं, मेरे भी उद्धार का कोई रास्ता हैं? तो बुद्ध ने कहा चिन्ता मत करों, तुमने चाहे जीतना भी पाप किया हैं, लेकिन तुमने जिस दिन से ये सोच लिया कि अब हमे पाप नहीं करना हैं, मेरा उद्धार कैसे होगा? जैसे ही अंगुलीमाल ने ये सोचा कि उद्धार कैसे होगा, इसी का नाम है, मकरगति, इसी को मकर संक्रांति कहते हैं। उसने विचार किया कि मैंने बहुत पाप किया हैं, पाप में ही मेरा जीवन बीत गया, और जैसे ही बुद्ध की दृष्टी पड़ी, उसके विचार बदल गए, तुरंत उसने अपने पापो पर विचार किया, महा अघ, माघ का महीना चल रहा था, तुरंत मकर गति में आ गया,उसने विचार किया कि कैसे मेरे पापो का अंत हो, मैं क्या करु कि परमात्मा की प्राप्ती हो जाय। ये उसके अंदर क्या हुआ? मकर गति, एक विचार उत्पन्न हुआ, एक क्रान्ति हुआ। एक विचार ही मनुष्य के जीवन में क्या करता हैं? क्रान्ति करता हैं। एक विचार मनु के मन में उत्पन्न हुआ, कि हृदय बहुत दुख लाग, जनम गयो हरि भजन बिन, भगवान के भजन बिना जीवन बितता चला जा रहा है। तुरंत क्रांति हुई भगवान को प्राप्त कर लिए। एक विचार तुलसी दास जी के जीवन में आया, तुलसी दासजी जा रहें थे अपने पत्नी के पास रात के समय, बाढ़ आई हुई थीं, यमुना जैसे तैसे पार करके उस पार गए, पत्नी ने कहा इतना प्रेम अगर भगवान से होता तो बेड़ा पार हो गया होता। एक बार में सुनाई नहीं पड़ा, फिर दुबारा वही बात, सुनी तो पत्नी को प्रणाम किया और वैराग्य हुआ निकल गए, तुलसी दास, तुलसी दास हो गए। एक विचार उत्पन्न हुआ , और क्रांति कर दी उसके जीवन में। एक विचार उत्पन्न हुआ बाल्मिकी के अंदर तुरंत क्रांति उत्पन्न हो गईं,तो बाल्मिकी, अंगुलीमाल,महापुरुष हो गए। तो अंगुलीमाल जब महापुरुष हो गए आ गए बुद्ध की शरण, तो प्रसेनजित की सेना खोज रही थीं उनको मारने के लिए, जब पहुंचे प्रसेनजीत बुद्ध के पास उनके दरबार में तो बोला कि सुना है अंगुलिमाल हत्यारा आया हैं, मुझे सौप दो, उसने बहुत हत्याएं की है, उसे फांसी होंगी तो बुद्ध ने बोला आया तो है, पहले तुम ऐसा करो कि बाहर जो भीक्षु सत्संग बोल रहा हैं, सत्संग सुनो। बैठकर सत्संग सुना तो वो अंगुलीमाल ही बोल रहा था, जिसको वो ढूंढ रहे थे। प्रसेनजित ने कहा भंते इतना प्रिय बोल रहा है, कौन है ये? बुद्ध ने कहा ये वही हैं जिसको आप मारने के लिए ढूंढ़ रहे हैं। इतना मधुर कैसे बोलने लग गया? काक होई पिक बकहू मराला, कौआ कोयल हो जाते हैं। कैसे ? सतसंगत से। किसके सतसंगत से? संत संग से तत्वदर्शी महापुरुष का निरंतर संग करने से, नाम जपने से सेवा करने से। अंगुलिमाल क्या हो गया? कोयल हो गया, मधुर बोलने लग गया। ऐसे ही कोयल होने का मतलब वाणी में मधुरता आ जाती है नाम जपते, जपते। योग की विधी जागृत हो जाती हैं, भजन करने लगता हैं। इस स्तर को क्या कहते हैं? कोयल का स्तर कहते हैं। इसी स्तर के साधक को वैश्य स्तर का साधक कहते हैं।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
कृषि करना, अर्थात् परमात्मा के चिंतन के बीज का विस्तार करना। मन सहित इन्द्रियों का संयम, गो रक्षा करना करना। वाणिज्य आत्मिक संपत्ति, दैवी संपद को बढ़ाना, व्यापार करना। ये वैश्य श्रेणी का साधक हैं। इसी को कोयल कहते हैं। कौआ के बाद कोयल हो गया, “पिक बकहू मराला, बगुला हो जाता हैं, बगुला को आप देखेंगे, एक पैर से खड़ा रहता हैं पानी में, एकदम सफेद होता हैं, वो हमेशा ध्यान लगाए रखता हैं, कभी कभी मछली पकड़ लेती हैं। ऐसे ही क्षत्रीय स्तर का साधक होता हैं, क्षत्रीय स्तर में ध्यान लगने लगता हैं। इसी को बगुला स्तर कहा गया। सफेदी निर्मलता हैं, घ्यान भी लगा हुआ है, लेकिन कभी कभी विषयों का चिन्तन आ जाता हैं। बगुला के बाद क्या होता है? बकहू मराला। मराल माने हंस।
हंस क्या हैं?
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥
कैसे साधक के अंदर क्रांति होती हैं। पहले यह मन कौआ रहता हैं, विषयोन्मुख रहता हैं। फिर नाम जपते जपते कोयल होता हैं, वाणी में मधुरता आ जाती हैं। फिर धीरे धीरे ध्यान लगने लगता हैं, तो बगुला हो जाता हैं, फिर वो हंस हो जाता हैं। हंस किसको कहते हैं?
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥
वे संत हंस है, जी ईश्वरीय गुण रूपी दुध को ग्रहण कर लेते हैं, और विकार रूपी बारी का त्याग कर देते हैं। ये हंस का स्तर आ जाता हैं। कौआ जो हैं हंस हो जाता हैं। इतनी बड़ी क्रांति। जैसे दत्तात्रेय जी थे, जिन्होंने चौबीस गुरु बनाएं। जब विचरण कर रहें थे तो अजगर को देखा, दिन भर उसका अध्ययन किया, अजगर एक ही जगह था, लेकिन दिन भर मे कोई न कोई शुअर, कुत्ता बिल्ली, शियार उसके गिरफ्त में आ जाया करे और वो अपना भोजन कर लिया करे। तब उन्होने कहा अवधूत को एक ही जगह स्थिर रहना चाहिए, आसन लगाकर दर दर भटकना नहीं चाहिए। भगवान व्यवस्था करते हैं। अजगर को गुरु बनाया। अजगर कोई गुरु नही है, सारी दुनियां अजगर को देखती हैं। अपने पास पा जाएगा तो आपको भी लपेट लेगा। दत्तात्रेय जी का स्तर ऐसा था, हंस का स्तर था, जहां भी दृष्टी पड़ता था, उनको गुण दिखता था, गुण को ग्रहण कर लेते थे, उन्होने गुण ग्रहण कर लिया अजगर से, दूसरा आदमी रोज ही अजगर देखता हैं। चिड़िया घर में पड़ा रहता हैं। कभी कोई गुण ग्रहण करता हैं। कौन गुण ग्रहण करता है इस गुण दोष रूपी संसार से? जिसका स्तर हंस का हो गया हैं। जिस संत का स्तर हंस का हो गया हैं, कि जहां भी दृष्टी पड़ती है, गुण ही ग्रहण करता हैं। दोष नही दिखाई देते। ये स्थिती आ गईं तो इसको कहते हैं हंस। और पहले क्या था वो? कौआ था। यहां क्या हो गया? हंस हो गया। संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥ ये संक्रांति हैं, ये किसके संग से हुआ? सत्य के संग से। सत्य कहां से मिला? तत्वदर्शी सदगुरु से। जो प्रयागराज के स्वरूप थे, उनसे विधि जागृत हूई। नाम जप और ध्यान करते करते कौआ हुआ फिर कोयल हुआ, बगुला हुआ फिर ऐसी स्थिती आ गई हंस की। हंस कि स्थिती में कौन सा जप होता है, परावाणी का। इसी को क्या कहते है? ब्राह्मण श्रेणी का साधक। जो हंस की स्थिती हैं वो ब्राह्मण श्रेणी का साधक हैं। इसका स्वभाव से उत्पन्न कर्म क्या है?
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
इंद्रियों का दमन मन का समन, धारावाही चिन्तन, अनुभवी उपलब्धि, भगवान से सीधा बात करना, भगवान से निर्देशन लेना, और चलना। भगवान से पूछना उनकी आज्ञा को समझना और फिर चलना। इस तरह का स्तर हंस का स्तर हैं। ये ब्राह्मण श्रेणी का साधक हैं। संक्रान्ति की पराकाष्ठा हैं। सदगुरू का संग करते करते नाम जपते जपते, घ्यान करते करते,दुसरा साधक भी कौआ से हंस हो गया। सदगुरू की स्थिती वाला हो गया सन्त हो गया। संत संग अपवर्ग कर, तो संत का संग कहा पहुंचा देता हैं? अपवर्ग, मुक्त कर देता हैं। एक संत का संग दूसरा संत करता हैं,जो साधक हैं, वो भी क्या हो जाता हैं, हंस हो जाता हैं। ये क्रांति होती है, संत के संग से। इसका नाम संक्रान्ति है। और इसके भी आगे की स्थिती में जब परमात्मा की प्राप्ती हो जाती है, तो गुण की भी जरूरत नही होती है, क्योंकि दोष है, ही नहीं तो गुण की भीं जरूरत नही हैं।
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक।।
जब हंस के ऊपर जाता है,तो क्या होता हैं? तो परमहंस हो जाता हैं।
परमहंस का मतलब है,परम से संयुक्त हो जाता हैं। हंस का मतलब अभी संत हैं। भगवान की प्राप्ती के करीब हैं। प्रतक्ष्य देख रहा हैं। लेकिन परम का मतलब जो परमात्मा को प्राप्त कर लिया। उसी में स्थित हो गया तो वह परमहंस हो गया। वहां न उसको गुण ग्रहण करना है, न दोष त्यागना है। गुण और दोष दोनों से ऊपर उठ गया।
ये क्या है? ये संक्रान्ति हैं।
ये कहां से शुरू हुई? माघ मकरगति, जिसके अंदर वैराग्य उत्पन्न हुआ। वैराग्य का मतलब मकरगति। लेकिन वैराग्य होता कहां से हैं? इसी संसार से।
संसार क्या हैं? महाअघ। पाप का घर हैं। तो ये बाहर दिखाई देता हैं, ये पाप का घर नहीं है।
ये बाहर कैसे प्रकट होता हैं। हमारे मन में कामना रहती है, तो बाहर हम संसार बना लेंते है। तो मन का प्रसार ही संसार है। मन का प्रसार कहां हैं? कामनाओं में। तो ये क्या है? महअघ हैं। जिसका मन संसार में अनुरक्त है, तो समझो महापाप में अनुरक्त हैं। चाहें काम में चाहे क्रोध में, चाहे लोभ में । किधर भी जा रहा है। तुलसीदास जी काम की तरफ जा रहें थे, वो महाअघ था, माघ था। और जब उनकी पत्नी ने कहा कि अगर इतनी प्रीती भगवान में होती तो बेड़ापार हो गया होता। तो ये क्या है? मकरगति। इस एक विचार को लेकर तुलसीदास जी ने मनन किया, और वैराग्य हो गया, भजन करने लग गए, मकरगति हो गईं। तो पत्नी के प्रति जो आसक्ति थी, वो माघ का महीना था महाअघ था। वही से जब वैराग्य हुआ तो मकरगति हो गई। परमहंस महाराज जी जा रहें थे, एक स्त्री के बुलावे पर तो वो क्या था? महाअघ था, माघ था, पाप करने जा रहें थे, और जब भगवान ने आकाशवाणी दिया, वैराग्य हुआ, सदगुरू मिल गए, तो मकरगति हो गईं। तो परमहंस महाराज उस मकरगति में चलते रहें, भगवान के निर्देशन में, और परमहंस महाराज भगवान के स्वरूप हो गए। भगवान की प्राप्ती कर लिए। ये मकरगति का मतलब, जिस किसी के अंदर भी वैराग्य हो जाता हैं, उसके अन्दर मकर गति होती है। लेकिन ये कब होता है, गीता में इसको बताया गया है, भगवान कृष्ण कहते हैं, मैं किसको परिवर्तित करता हू, किसके अन्दर क्रान्ति करता हू? किसको बदलता हूं? तो कहते हैं, जो मुझे स्वीकार करता हैं, जो मेरे पास आता हैं। उसको मैं बदलता हूं। इसी संक्रांति को उन्होने कल्प कहा। कल्प माने परिवर्तन क्रान्ति माने परिवर्तन, संक्रांति माने भी परिवर्तन। कौन सा परिवर्तन? ऐसा परिवर्तन जिससे जीव का उत्थान होता हैं। हम सभी में आसुरी संपद कार्य कर रही हैं। आसुरी संपद से निकलकर दैवी संपद में चले जाय। दैवी संपद को प्राप्त हो जाय दैवी संपद विकसित हो जाय, भगवान की प्राप्ती हो जाए। ऐसा परीवर्तन कल्प हैं। लेकिन ये परिवर्तन कौन करता हैं? कहते हैं मैं खुद करता हूं। एक परिवर्तन माया करती हैं। भगवान कृष्ण कहते हैं,
मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।
माया माने, मेरी उपस्थिति में ये जो माया परिवर्तन करती हैं, वो भी एक क्षुद्र कल्प हैं। जिसमे चारों युग, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलयुग ये समय का परिवर्तन, शरीर का परिवर्तन, वस्तुओं का परिवर्तन, ये सभी एक क्षुद्र कल्प परिवर्तन हैं।
श्री कृष्ण कहते हैं,
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।
कल्प के आरंभ में मैं उनको रचता हूं, और कल्प के अंत में संपूर्ण भूत मेरी
प्रकृति को प्राप्त होते हैं। महापुरुष की प्रकृति क्या हैं? प्रकृति का अतिक्रमण करके, समाप्त करके ही तो वो परमात्मा हुए हैं। परमात्म स्वरूप महापुरुष की कैसी प्रकृति? तो वास्तव में प्रकृति का जो परिवर्तन होता हैं, जो क्रांति होती है, जो कल्प होता हैं, वो किसका होता हैं? आत्मा तो अपरिवर्तनशील हैं।
परिवर्तनशील क्या हैं? शरीर परिवर्तनशील है, प्रकृति परिवर्तनशील हैं। तो परिवर्तन प्रकृति का ही होता है। लेकिन बाहर हमारी प्रकृति क्षण क्षण बदलती रहती हैं, ये वाला परिर्वतन, ये वाला क्रांति नही, ऐसा परिवर्तन प्रकृति में हो कि, उसके बाद प्रकृति का परिवर्तन समाप्त हो जाय। प्रकृति पुरुषत्व में विलीन हो जाय। ये अन्तिम परिवर्तन हैं। प्रकृति तो बदलती रहती है, कभी आदमी कुछ काम कर रहा है, तो प्रकृति कुछ है, दूसरा काम करने लगा तो प्रकृति बदल गईं। कभी कोई नशा कर रहा है, उसकी एक प्रकृति है, नशा छोड़ दिया तो अच्छी प्रकृति हो गईं। लेकिन वो क्रान्ति नहीं है, वो तो फिर जन्म मृत्यु में आप जाओगे। ये संक्रांति का मतलब क्या है? प्रकृति का ऐसा परिवर्तन जिसके बाद कोई भी परिवर्तन शेष न रहें। कभी न बदलना पड़े, फिर संसार में न आना पड़े, उसको कहते हैं संक्रान्ति। महाक्रांति, जीव का ईश्वर के रुप में बदल जाए। ईश्वर की प्रकृति को हम कब प्राप्त होंगे? जब जीव ईश्वर के रुप में बदल जाए। लेकिन ये क्रान्ति कर्ता कौन हैं? महापुरुष खुद करते हैं। सदगुरू खुद करते हैं। भगवान कहते है कि कल्प के आरंभ में मैं रचता हूं। ऐसा कल्प मैं करता हूं, ऐसा परिवर्तन मैं करता हूं ऐसी क्रांति मैं करता हू। ऐसी संक्रान्ति मैं करता हूं। लेकिन आप कब करते हैं, किसको करते हैं, किसको आप बदलते हैं? हर कोई बदलना चाहता है, लेकिन सबको बदलने के लिए तो भगवान नही आते हैं। लेकिन भगवान कहते हैं कि मैं करता हूं, लेकिन किसके लिए? तो कहते हैं,
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।
कल्प के आरंभ में मैं उनको रचता हूं और कल्प के अंत में वो मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। तो हमारी प्रकृति क्या हैं? हम खुद भी दुखी हैं, और हमे जी देख लेता हैं वो भी दुखी हो जाता हैं।
और ज्ञानी की महापुरुष की प्रकृति क्या है, जिसे प्रकृति को भगवान कहते है कि मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं।
तो भगवान की प्रकृति क्या हैं? जो परमात्मा को प्राप्त करके परमात्मा में जो उनकी रहनी हैं वहीं उनकी प्रकृति हैं। उनकी रहनी से वो खुद भी सुखी है, परम आनंद को प्राप्त हैं, और उनको देखने से दूसरों को भी सुख मिलता है, आनन्द मिलता हैं। और हमारी कैसी प्रकृति हैं कि हम खुद भी दुखी हैं और हमको जो देख लेता हैं वो भी दुखी हो जाता हैं। तो ये प्राणी की प्रकृति हैं, जीव की प्रकृति हैं। और ईश्वर की प्रकृति क्या है? जो ईश्वर हो गया है, जो स्वरूप महापुरुष हो गया हैं, जो उनको देखेगा उसको शांती मिलेगी, उसको भी आनन्द मिलेगा। ये उनकी प्रकृति हैं। और कौन नही चाहता हैं कि हमको देखकर खुश हो जाय, प्रसन्न हो जाय, हमको देखकर लोगों का दुख दूर हो जाय,हम दुख से मुक्त हो जाय। हम जहां भी देखें हमको सुख ही उत्पन्न हो, आनन्द ही उत्पन्न हो। ऐसा कौन नही चाहता हैं? प्रत्येक जीव चाहता हैं।
क्यो चाहता हैं? क्योंकी आनन्द एवं सुख इसका स्वभाव हैं। जो आनन्द सिंधु सुख राशी, आनंद एवं सुख की राशि है परमात्मा। और जीव क्या है? चेतन अमल सहज सुख राशी, और जीव सहज सुख की राशि हैं। लेकिन ये दुख कहा से आ गया? सो माया बस भयहू गोसाई। चेतन अमल सहज सुख की राशि है लेकिन हो गया माया के वस में ओर बन गया, सहज दुख की राशि। तो हमारा प्रकृति क्या हैं? दुखी, हम दुखी हैं, और दूसरो को भी दुःख दे रहे हैं। हमे कौन सी प्रकृति चाहिए? हम सुखी हो जाय और दूसरो को भी सुख दे सकें। ये किसकी प्रकृति हैं? भगवान कृष्ण कहते हैं, ये मेरी प्रकृति हैं। ये महापुरुष की प्रकृति हैं। हमे क्यों संक्रान्ति क्यों चाहिए? हम क्रांति क्यो करना चाहते हैं ? क्योंकि हमको महापुरुष की प्रकृति चाहिए, हम सुखी होना चाहते हैं। और संसार में जो भी देखे, उसको भी सुख प्राप्त हो।
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
सब सुखी हो जाय, सब सुंदर हो जाय, सब माया से रहित हो जाय, ऐसी महापुरुष की चेष्टा रहतीं हैं।
लेकिन ये कब होगा? जब खुद सुखी हो जायेंगे, जब खुद आनन्द स्वरूप हो जायेंगे तब, दूसरो को आनन्द दे सकेगें। तो इस प्रकृति को भगवान कहते हैं कि कल्प के अंत में मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। तो कल्प का आरम्भ मतलब भजन का आरंभ साधना का आरंभ,उत्थानोन्मुख परिवर्तन का आरंभ, आसुरी संपद से दैवी संपद में प्रवेश का आरंभ। ये है, भजन का आरंभ ध्यान का आरंभ। ये संक्रान्ति भगवान खुद करते हैं। लेकिन किसके अन्दर? तो,
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
जिसने अपनी प्रकृति को स्वीकार करके फिर मेरी प्रकृति को स्वीकार किया है। दो प्रकृति हैं,एक तो हमारी खुद की प्रकृति है। हमारी प्रकृति क्या हैं? हम दुखी हैं, हम अज्ञानी है, हम स्वीकार कर ले, अपने अज्ञान को, तो भगवान किसको बदलते है? जो अपने को स्वीकार कर लेता हैं, जो भगवान के सामने चला जाता है कि हम अज्ञानी हैं। हम कुछ नही जानते। तो भगवान उसके अंदर क्रान्ति करते हैं, तब उसको बदलते हैं।
तो जो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेता हैं, और मुझे स्वीकार कर लेता हैं, तो भगवान श्री कृष्ण एक तत्वदर्शी महापुरुष हैं, सदगुरू हैं। तत्वदर्शी सदगुरु की रहनी को स्वीकार करके उनकी शरण में चले जाते हैं, तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, कल्प के आरंभ में मैं उसको रचता हूं, और कल्प के अंत में वो मुझे प्राप्त होते हैं। रचने का मतलब हैं, भगवान, परमात्मा स्थितिप्रज्ञ जो सदगुरू है, जब उनके प्रति हम समर्पित हो जातें हैं, अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेते है, उनके ज्ञान को स्वीकार कर लेते हैं, उनकी प्रकृति को स्वीकार करने का मतलब, उनके ज्ञान को स्वीकार करना , उनके आदेश एवं उपदेश को स्वीकार करना, जब हम स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे अंदर क्रान्ति शुरु हो जाती हैं। जैसे महात्मा बुद्ध थे, उनके जीवन में क्रांति कैसे हुई? उन्होंने देखा कि सारा संसार दुखी है, रोगी को देखा, शव को देखा तो उनके अंदर एक विचार उत्पन्न हुआ़ कि संसार में खाओ पियो मर जाओ इतना ही जीवन है कि और कुछ है? इतना सुंदर शरीर इसके पीछे इतना खतरनाक रोग, और फिर मृत्यु इतना दुःख। प्रत्येक व्यक्ति दुखी है, इस दुःख को समाप्त करने का कोई उपाय है? या तो दुख से छूटने के उपाय को जानुंगा नही तो शरीर छोड़ दूंगा। एक विचार उत्पन्न हुआ़ कि दुःख का कारण क्या हैं, मैं उसको जानूंगा। और इस एक विचार ने उनके जीवन में क्रांति उत्पन्न कर दिया। उस विचार के फलस्वरूप उनको किसका संग मिला कि दुःख का कारण क्या है? जैसे ही विचार आया, वैराग्य हो गया। वैराग्य हुआ़ फिर मकर गति हो गईं। और बैराग्य हुआ़ किससे? संसार से जो दुःख का कारण है। जिसको देख कर दुखी हुए वो क्या था? संसार था। कोई व्यक्ती रोगी है कोई मर गया है। महाअघ, जो अघालय है, ये संसार इस को देखकर के इस पर विचार किए बुद्ध, तब उनकी मकर गति हुई कि मेरा कर्तव्य क्या है? खाओ पियो मर जाओ ये तो सभी कर रहें हैं, क्या मै भी यहीं करु? फिर उन्होंने कहा नही मैं यह नहीं करुंगा, दुखों का कारण क्या है? उसका मैं पता लगाऊंगा और जब पता चल जायेगा तो मैं सबको बताऊंगा। दुःख के कारण के वजह से उनके अन्दर मकर गति हुई।
मेरा कर्तव्य खाओ पियो मर जाओ नहीं, है, चक्रवर्ती होना नहीं हैं। मेरा कर्त्तव्य है,सत्य क्या है, उसको प्राप्त करना,दुखों का कारण क्या है, उसका खोज करना।
अर्थात् भजन करना, परमात्मा की प्राप्ती करना। उनके अन्दर भीं मकर गति हुई। इस वैराग्य के कारण ये मकर मकर गति हुई मकर संक्रांति हुई, तो कहा पहुंचे? आचार्य अनारकालम के पास, जो उस समय के महापुरुष थे, जो तीर्थस्वरुप थे, प्रयागराज थे, तीरथ पति आव कोई कोई,संत थे, उनके पास बुद्ध जाते हैं, साधना का क्रम समझे। कौन सी साधना? श्वसन क्रिया पर घ्यान केंद्रित करो, श्वास को देखो, पानापान कहा है, इसी श्वसन क्रिया को। इसी को प्राणापान का यज्ञ कहते हैं। इसी को प्रयाग कहते है, परमतत्व के लिए यज्ञ करना। नाम का जप रुपी यज्ञ करना। जैसे ही आप जप करने लगोगे प्राण अपान से, जिसको महात्मा बुद्ध कहते है, पानापान। पानापान की विधी कहां से सीखें? विपश्यना की विधि कहा से सीखें बुद्ध? विपश्यना मतलब विशेस रुप से देखो, श्वास को।
किसने बताया? आचार्य अनारकालम जो उस समय के महात्मा, संत थे। उनसे साधना क्रम समझे, उनके पास जाना ही प्रयागराज जाना हैं। उसके बाद ये क्रान्ति शुरू हों गई। सात साल तपश्या किए, और धीरे धीरे एक राजकुमार सिद्धार्थ थे, जिसको चक्रवर्ती सम्राट होना था, लेकिन इस विचार के वजह से कि दुखो का कारण क्या है सत्य क्या है, क्या यहीं जीवन हैं? जब ये विचार उत्पन्न हुआ़, इसी को मकर गति कहते हैं, मकर संक्रान्ति उत्पन्न हुई,क्रान्ति हुई उनके जीवन में, क्रांति का बीज पैदा हुआ़, फिर यही क्रान्ति सात साल के तपश्या के पश्चात जो राजकुमार सिद्धार्थ थे, महात्मा बुद्ध के रूप में परिवर्तित हो गए। संग किसका किए? पहले महात्मा मिले, फिर साधना की विधी मिली नाम का जप, विपश्यना, श्वास प्रश्वास, पानापान उसका संग किया। उसका संग करना सत्य का संग करना है,सत्संग करना हैं। निरन्तर संग किया सात साल की तपश्या इसी को कहते हैं। मन को समेंटकर के श्वास प्रश्वास में लगाए, और एक समय राजकुमार सिद्धार्थ भगवान बुद्ध के रूप में परिवर्तित हो गए। ये संक्रान्ति हैं, तो संक्रान्ति में क्या होता है? उत्तरायण।
उत्तरायण में शरीर छोड़ने का मतलब क्या हैं? जितने महापुरुषों ने परमात्मा का संग किया, उनके जीवन में क्रांति हुई। उनका जीव ईश्वर के रुप में परिवर्तित हो गया। उनकी प्रकृति पुरुषोत्तम के रुप परमात्मा के स्वरूप में परिवर्तित हो गई। और फिर उनके जीवन में उत्तरायण हुआ।
उत्तरायण क्या होता हैं? भगवान श्री कृष्ण उत्तरायण को कहते है। जो मेरी प्रकृति को स्वीकार करता है मै उसको रचता हूं। रचता हूं मतलब उसका परिवर्तन करता हूं,उसके जीव को ईश्वर के रुप में बदलता हूं।
उसकी साधना क्या हैं? श्रद्धा स्थिर करो, वही नाम का जप करो। भीतर से भगवान बताने लग जाय अनुभव देने लग जाय,साधना के साथ साथ तभी परिवर्तन होता हैं। बुद्धी में प्रेरणा कर के बताने लग जाय। तब जाकर के ये जीव ईश्वर के रुप में बदलता है। तो इसी तरह से इसको उत्तरायण कहते है। जो अंतिम अवस्था है, जब परिवर्तन हो गया, जिसकी मकर संक्रांति पूरी हो गई, तो इसको उत्तरायण कहते हैं। भगवान श्री कृष्ण अध्याय आठ में कहते हैं।
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
जिनके मृत्यु काल में शरीर का संबन्ध बिच्छेद होते समय, मरते समय ज्योतिर्मय अग्नि जल रहा हो, दिन का प्रकाश हो, सूर्य चमक रहा हो, और शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ रहा हो, निरब्ध खुला आसमान हो, ऐसे काल में जिसका शरीर छुटता है, वो योगी ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। परमात्मा को प्राप्त होते हैं। तो ये जो उत्तरायण है, बाहर का तो इसमें तो लोग मरते रहते हैं, जन्म लेते रहते हैं, इसमें शरीर छुटने से किसी भी मोक्ष नहीं होता है, लौटना पड़ता हैं। ये बाहर का उत्तरायण नहीं, जिसमें आप मर जाओ तो फिर जन्म नही लोगे। उसमे तो मरने पर जन्म लेना ही पड़ेगा, ये उत्तरायण नही।
तो कौन सा उत्तरायण? उत्तरायण का मतलब है ज्योर्तिमय अग्नि। भगवान कृष्ण ने गीता में कई अग्नि का नाम लिया। प्राणापान अग्नि, संयम अग्नि, स्वाध्याय अग्नि, कुल चौदह प्रकार के यज्ञ बताए उन सबमें अग्नि हैं। अग्नि का मतलब होता हैं, जिसकी मन सहित इन्द्रियां संयमित हो गईं, जिसका संयम सध गया। इसको कहते हैं, आत्मसंयम अग्नि।
ज्योर्तिमय अग्नि क्या हैं? जैसे आप अग्नि जलाते हैं, तो पहले जब अग्नि जलाते हैं, तो धुएं के वजह से अग्नि तितर बितर कर अग्नि निकलती हैं। फिर और अच्छी आग जलेगी, तो एकदम लपट, हो जायेगी, लौ हो जायेगी। उसको कहते हैं, ज्योर्तिमय अग्नि। जैसे दिया जलाते है, तो एक लौ होती हैं न, सिमट जाती है, उसका एक प्रकाश होता हैं। दिए के प्रकाश के बराबर जब आग जलाओगे तो उसका ऐसा प्रकाश नही होगा। दिए का एक सुंदर प्रकाश होता हैं। वैसे ही अग्नि का मतलब जिसके अंदर मकर गति हो गईं उत्तरायण हो गया, अर्थात् पहले भजन किया,
सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।
ये अग्नि क्या हैं?
ब्रह्मतेज का प्रतीक हैं, ब्रह्मतेज कैसे सिमट गया, हमारे अंदर, कि संपूर्ण इन्द्रियों की चेष्टाएं ही संयमित हो गईं। किसमे? संपूर्ण इंद्रियां सिमट गईं मन में, और मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार जो प्राणों का व्यापार था, वो संयमित हो गया किसमे? इंद्रियां संयमित हुई मन में, मन, बुद्धी में, बुद्धि चित्त में, चित्त किसमे लगा हैं? नाम के जप में।
नाम का जप करतें, करते ॐ ॐ, दूसरे विचार शांत हो गए। दूसरे विचार शान्त हो गए, तो संपूर्ण तेज सिमटकर के आत्मसंयम, आत्मा की संयम रूपी अग्नि, इसी को कहते हैं ज्योर्तिमय अग्नि।
विद्या ही का ब्रह्मगति प्रदाया,
विद्या का प्रकाश, उत्पन्न हो गया, ब्रह्म की गति प्राप्त हो गईं। और दिन का प्रकाश हो, मतलब विद्या का प्रकाश हो, षण्मासा उत्तरायणम्,
उत्तरायण मतलब ऊर्ध्वरेता स्थिती, परमात्मा का चिंतन करते करते कैसी स्थिती आ गई, परमात्मा में विलय की स्थिती आ गई, ऊर्ध्वरेता स्थिती आ गई।षण्मासा छः महीना क्या हैं? विवेक, वैराज्ञ, सम, दम तेज प्रज्ञा यही छः महीना है। विवेक परिपक्व हो गया, सत्य असत्य को समझ लिया, सत्य पर आरूढ़ हो गया। वैराग्य हो गया, वैराग्य मतलब जहां भी दृष्टी जाती हैं कल्पना मन में होती नही। सब जगह से वैराग्य हो गया। सम, दम,मन का समन हो गया, मन स्थिर हो गया, इंद्रियां जीत ली गई, इन्द्रियों का दमन हो गया, जितेंद्रीयता आ गई। तेज़, का मतलब इश्वरीय तेज, जो सम्पूर्ण विकारो में, व्यय था,संपूर्ण संसार में जो फैला था हुआ था, जब मन सिमट गया, तो सारा ब्रह्म का तेज आत्मा में इकट्ठा हो गया, प्रज्ञा, ईश्वरीय निर्देशन ग्रहण करता है।
साधारण जो बुद्धी है, वो कब प्रज्ञा हो जाती हैं? जब ईश्वरीय निर्देशन को ग्रहण करें, और फिर उसपर चलें,ये प्रज्ञा हैं। ये छः ऐश्वर्य विकसित हो जाय, यही छह मास हैं उत्तरायण के।
और स्थिती क्या हो गईं? ऊर्ध्व रेता हो गई।ऊर्ध्वरेता का मतलब परमात्मा की तरफ़ हो गईं। जो संसार की तरफ़ चेतना भटक रही थीं, वो सिमटकर के संयम इतना सध गया, कि निर्विचार स्थिती हो गईं, चित्त ध्यानस्थ हो गया, समाधिस्थ हो गया, और उर्ध्वरेता स्थिति, परमात्मा की तरफ़ प्रवाहित हो गया। तनिष्ठा,तत्परायणा परमतत्व के अनुरूप मन हो गया, बुद्धी हो गया, पुरी तरह से आत्मा परमात्मा में विलीन हो गई। तो जो विकार थे, जो जन्म मृत्यु के कारण थे, जीते जी समाप्त हो गए।
तो ऐसी स्थिती में जब शरीर छूटता हैं, तो वो तो ब्रह्म को प्राप्त हो गया जीते जी, अब मरे चाहे जिए, वो तो भगवान को ही पानेवाला हैं। क्योंकि जीते जी ही उसने ब्रह्म तेज को प्राप्त कर लिया। जीते जी विद्या का प्रकाश हो गया। विवेक वैराग्य सम दम तेज प्रज्ञा विकासित हो गए। ऊर्ध्व रेता स्थिती मतलब उपर भगवान के तरफ़ प्रवाहित हो गया। प्रकृति से सिमटकर समग्र चेतना परमात्मा में प्रवाहित हो गया, इसको कहते हैं उत्तरायण, यहीं मकर संक्रांति की पराकाष्ठा हैं।
संग किया किसका? सत्य का संग किया, महापुरुष का संग किया, संग करने का मतलब घ्यान किया, घ्यान करते करते चित्त समाधिस्त हुआ, संपूर्ण चेतना जो प्रकृति में भटक रही थीं, उधर से सिमटकर के परमात्मा में प्रवाहित हो गईं,ऊर्ध्व रेता स्थिती पैदा हो गई, यही उत्तरायण की स्थिती हैं। ऐसी स्थिती में जब शरीर छूटता हैं, तो ब्रह्म को प्राप्त होता हैं,वो फिर लौटता नहीं हैं। क्योंकी वो जीते जी मुक्त हो गया। इसलिए नही लौटता हैं। ये मकर संक्रांति की पराकाष्ठा हैं। यही स्थिती बुद्ध को प्राप्त हुई थीं। इस धरती पर जीतने महापुरुष हुए, सबके अन्दर ये संक्रान्ति हुई। सबने परम तत्त्व परमात्मा का संग किया। पहले महापुरुष का संग किया, उनसे साधना विधि मिली, फिर भीतर आत्मा जागृत हुई तो सत्य का संग हुआ, सत्य क्या हैं? आत्मा । उस आत्मा के स्वर में स्वर मिलाकर चलना, सत्संग है। स्वर में स्वर मतलब आत्मा निर्देशन दे, भगवान हमको बताएं हम उनकी बात को समझें और नाम जप और ध्यान करते हुए चलें।
ये क्या है? सत्य की संगत। ये सत्य हम करते हैं, तो हमारे अन्दर कौन सी क्रांति होती हैं? हमारा जीव ईश्वर के रुप में परिवर्तित हो जाता हैं, ये क्रान्ति होती हैं। तो परमात्मा के संग से महापुरुष के संग से जीव का ईश्वर के रुप में परिवर्तित हो जाना ये महाक्रांति हैं ये मकर संक्रांति हैं।
कैसी क्रान्ति? जो महापुरुष के संग से जों परमात्मा के संग से होती हैं, वो क्रांति संक्रान्ति हैं। जिस बदलाव, परिवर्तन के बाद कुछ भी बदलना शेष नहीं रहता। और फ़िर उनकी रहनी कैसी होती हैं? दूसरे के लिए भी सुखदाई हो जाती हैं। अपने लिए भी सुखदाई हो जाती हैं। ये उनकी प्रकृति हो जाती हैं। आनन्द उनका स्वभाव हो जाता हैं। जो भी उनको देखेगा, उसको भी आनन्द और सुख मिलेगा। ये उनकी प्रकृति हैं। जो साधक उनका संग करता हैं, संग करते करते उसके अंदर भी ये क्रांति हो जाती हैं। उसकी भी मकर संक्रान्ति हो जाती हैं। लेकिन कौन, किसके अन्दर? जो अपने अज्ञान को स्वीकार करता हैं, महापुरुष के ज्ञान को स्वीकार करता हैं। उनकी साधना को समझकर उसपर चलता हैं, उसके अन्दर ये मकर संक्रांति होती हैं।
।। ॐ।।