शिव तत्त्व क्या है,और इसे कैसे प्राप्त करें,शिवरात्री क्या हैं?
शिव तत्त्व क्या है,और इसे कैसे प्राप्त करें,शिवरात्री क्या हैं?
महापुरुषों ने कैसे तपस्या की, कहां उनका जन्म हुआ, और क्या,क्या उन्होंने किया, क्या करने के लिए उपदेश दिया?
इसीलिए सारे उत्सव हमारे देश में मनाएं जातें हैं। इसलिए भारत में मनाए जाने वाले त्योहारों का कारण विदेशो में मनाएं जानेवाले त्योहारों से अलग हैं। यहां हर त्योहारों में व्यक्ती की साधना है, कि कैसे उस ईश्वर को प्राप्त करना है? ये सब बातें त्योहारों के माध्यम से बताया गया है।
ऐसे ही शिवरात्री* की कहानी है। माता पार्वती का शिव से विवाह हुआ, फिर उसके बाद की रात्रि को शिवरात्री कहते हैं। भगवान शंकर का क्या स्वरूप हैं, माता पार्वती का क्या स्वरूप है? इसको हम जानेंगे। शिव पार्वती विवाह के विषय में भी जानेंगे। शिवरात्री क्या होता है, उसपर भी चर्चा करेंगे। और भगवान शंकर के जो अनेक, अनेक स्वरूप हैं,जैसे ज्योर्तिलिंग क्या है, शंकर जी स्मशान में क्यों रहते हैं? इन विषय पर भी चर्चा करेंगे। सबसे पहले जो शंकर का स्वरूप है, वो क्या हैं? हमारे सामने यहीं समस्या आती है कि,शंकर जी की पूजा, भारत में बहुत होती है, जगह जगह मन्दिर बने हैं। जैसे बारह ज्योतिर्लिंग हैं, ये कैसे स्थापित हुए?
ज्योर्तिलिंग का मतलब क्या होता है, जैसे लिंग का मतलब चिन्ह होता हैं, स्त्री लिंग, जिनमे स्त्री के चिन्ह पाए जाते हैं, पुरूष लिंग, जिनमे पुरुषों के चिन्ह पाए जाते हैं, और नपुंसक लिंग, जिनमे नपुंसक के चिन्ह पाए जाते हैं। ऐसे ही है ज्योतिर्लिंग। परमात्मा क्या हैं? ज्योतिर्लिंग।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते है,
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते। ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।
वह परमात्मा ज्योतियों का भी परम् ज्योती है, प्रकाश स्वरूप है, अज्ञान से अंत्यंत परे है, लेकिन रहता कहां है? हृदय में। उसी को कहते हैं,
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
ईश्वर संपूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है, और वो ज्योतिस्वरूप है। ज्योतियो का भी परम् ज्योती है, सबके हृदय में रहता हैं। मंदिरों में नही रहता, तीर्थो में नही रहता, सबके हृदय में रहता है। रामचरित मानस में इसी को कहा गया, हरि व्यापक सर्वत्र समाना,प्रेम ते प्रकट होई मै जाना।।
सर्वत्र समान रुप से व्याप्त है, तीर्थों में अधिक, घर में कहीं और ज्यादा ऐसा नहीं हैं, समान रुप से व्याप्त है। लेकिन प्रकट कैसे होता है? प्रेम से प्रकट होता हैं, भगवान शंकर कहते हैं।
प्रेम से परमात्मा प्रकट होता हैं, भगवान शिव कहते हैं, कि मैने इसको जाना है। लेकिन परमात्मा को प्रकट करने वाली वृत्ति है प्रेम, इसी को हम पार्वती कहते हैं। इसीलिए पार्वती ने घोर तपस्या किया, और इसके बाद शिव को प्राप्त किया।
उनकी कहानी है कि जब पार्वती का जन्म हुआ, हिमांचल के यहां, तो देवरिषि नारद ने उनका हाथ देखा और कहा, कि इसके भाग्य में जो वर लिखा है, उसको घर द्वार नही होगा, बिभूति लपेटेगा, और बैल की सवारी करेगा, इस तरह का होगा। उनकी मां ने कहा ऐसे वर से हम विवाह नहीं करेगें। तो नारद जी ने कहा एक उपाय है, कि ये जो दोष हमने बताएं हैं, ये सब शंकर जी में हैं, और अगर शंकर जी से विवाह हो जाता है, तो दोष भी गुण हो जाएंगे।
जौ बिबाहु संकर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥
तो शंकर जी से विवाह कैसे हो इसके लिए पार्वती जी ने तपस्या किया, पिछले जन्म में वो सती थी, उनकी साधना अधूरी थी, फिर उन्होने अपना शरीर छोड़ा और इस जन्म में पार्वती के तन में आई। तो नारद जी ने बताया, कि शंकर जी के अंदर ये गुण हैं, अगर वो इनको मिल जायेंगे, तो दोष भी गुण के समान हो जायेंगे। लेकिन वो तपस्या से प्राप्त होंगे, शंकर जी। लेकिन ऐसे तो विवाह नहीं होते हैं। अगर साधारण विवाह होता, तो तपस्या की क्या जरूरत? लेकिन शंकर जी के विवाह के लिए पार्वती को कहा गया कि, तपस्या के द्वारा ही शिव प्राप्त होंगे। पार्वती ने तपस्या किया, सप्तऋषि परीक्षा लेने आए, परीक्षा में भी वो पास हुई, और फिर भगवान शिव को प्राप्त किया, उनसे विवाह हुआ। विवाह के पश्चात जो रात्रि मनाई गईं, उसको शिवरात्री कहा गया। तभी से इस धरती पर शिवरात्री मनाई जाती हैं। शिव का मतलब होता हैं, कल्याण तत्त्व, जों प्रकृति की सीमाओं से अतीत हैं, असीम है, उस तत्व को हम शिव कहते हैं। और उस शिवतत्त्व को जो प्राप्त कर लेता हे, तपस्या करके, उसको हम शिवतत्त्व सद्गुरू कहते हैं।
इसीलिए भगवान शिव की स्तुती करते हैं, तुलसीदास जी,
वंदे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्। यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।
मैं बोधमय शंकर स्वरूप सदगुरू की बंदना करता हूं। जिनके आश्रित होने पर हमारा जो टेढ़ा मन वो भी बंदनीय हो जाता है, टेढ़ा चंद्रमा शंकर जी के मस्तक पर होता है,और वो सद्गुरू ही शंकर स्वरूप हैं। जों शंकाओं से अतीत हैं। उनके प्रति समर्पित होने से हमारा टेढ़ा मन भीं बंदनीय हों जाता हैं। फलदाई हो जाता है। शंकर का मतलब होता हैं, शिव तत्त्वदर्शी सदगुरु, जिसने शिव तत्त्व को प्राप्त कर लिया है। वह शिव तत्त्व कहा प्राप्त किया जाता है? वो सबके हृदय में रहता है,
*ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी।
वह परमात्मा एक है, कण कण में व्याप्त है, आनन्द की राशी हैं।
कहां रहते हैं?
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी ॥
ऐसा परमात्मा हमारे सबके हृदय में रहता है, लेकिन प्रकट कैसे होगा?
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
प्रकट करने का माध्यम क्या हैं? नाम का जप। तो जों प्रकृति से परे है, असीम तत्त्व हैं, उसका निवास कहां हैं? हमारे सबके हृदय में है ।
जो ज्योतिर्मय परमात्मा है।
*ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते,ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥
वह कहां रहता है, सबके हृदय में रहता है। गीता में ईश्वर कहा बताया गया?
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
वही बात रामचरित मानस में कहते हैं कि ईश्वर सबके हृदय में रहते हैं।
तो ये जो कल्याण तत्त्व है शिव, ये कहां रहता है? हमारे सबके हृदय में रहता है। तो जो शिव तत्त्व को प्राप्त करने की जो साधना है, इसमें जो वृत्ति कार्य करती है, उसे पार्वती कहते हैं।इसलिए जो प्रेममयी प्रवृत्ति है, वो पार्वती है। वो कैसे प्रकट होते हैं, शिव को कौन पा सकता हैं? भगवान शंकर स्वयं कहते हैं,
हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होई मै जाना।
प्रेम से प्रकट होते हैं , और प्रेममई जो वृत्ति हैं, वो पार्वती हैं। इसीलिए पार्वती ने तपस्या किया, और शिव की प्राप्ती हुई। पर ये तपश्या कैसे होती हैं?
तो धनुष यज्ञ में सीता जी जब जाती हैं, प्रार्थना करने के लिए माता पार्वती के पास, तो तुलसीदास जी लिखते है कि पार्वती कौन है?
भव भव विभव पराभव कारिनि। बिश्व बिमोहनि स्वबश बिहारिनि।
पार्वती क्या हैं? भव भव विभव पराभव कारिनी, भव माने संसार।
संसार का अर्थ होता हैं, हमारे मन का प्रसार, संसार जो दिखाई दे रहा है, ये इतना ही नहीं है, जो कुछ भी बाहर है, इससे हजार गुना हमारे भीतर हैं। हमारे मन का प्रसार ही संसार है। मन का प्रसार क्या होता है, भव माने होना।
हम जो होना चाहते हैं, भविष्य में, वो हमारा संसार है। हम जो पहले हो चुके है, वो हमारा संसार है। इस समय जो हम कर रहें है, ये भी हमारा संसार है। तो मन का प्रसार कहां तक है? भविष्य की कल्पनाओं में, अतीत में जातें हैं, तो उधर की कल्पनाएं उठती है, और वर्तमान में सोचते रहते है। तो ये सब क्या हैं? खग हैं।
पार्वती क्या है? इस संसार को समाप्त कर देती हैं, जो प्रेममयी प्रवृत्ति है, वो साधना करके, ये जो हमारा होना है, बार बार जन्म लेना,मरना। कुछ न कुछ करने के लिए कुछ न कुछ होना चाहते हैं। इस सम्पूर्ण प्रवृत्ति को, संसार को ही समाप्त कर देती हैं, उसको हम कहते हैं, पार्वती। जिससे वृत्तियों का पार पाया जाता है, जो चित्त वृत्तियों का निरोध करती हैं, इसलिए प्रेममयी वृत्ति ही पार्वती हैं। भगवान प्रेम से ही प्रकट होते हैं। अब ये प्रेम कैसे होता है? तो पार्वती जी ने तपस्या की, तब शिव तत्त्व को प्राप्त किया। तो उन्होनें क्या क्या किया?
कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा
जब साधना हम करते हैं, ईश्वर हृदय में रहता है, आरंभ कहा से होता है? श्रद्धा को हृदय स्थित ईश्वर में स्थिर करना, जिस शिव को पूजने के लिए हम मंदिरों में जातें हैं, तीर्थों में जातें हैं, अनुष्ठान कराते हैं, वी शिव तत्त्व कहां रहता हैं? हमारे हृदय में। सर्वत्र व्याप्त हैं, लेकिन कहां पर हैं? हमारे हृदय मे।
तो हृदय में प्रेम करने के लिए हमे क्या करना पड़ता हैं, प्रेम कब होता हैं? बाहर आप जिसको प्रेम करते हैं,जब हम किसी वस्तु को,या व्यक्ती को बार बार देखते हैं, फिर उससे लगाव हो जाता है, उसको आप कहते है, प्रेम। ऐसे ही भीतर भी अगर हमें परमात्मा से प्रेम करना है,तो बार बार देखना पड़ेगा, बार बार उसको याद करना पड़ेगा। तो हमारे सबके हृदय में परमात्मा है,परमात्मा को हमने खोया नही, तो हमने क्या खोया हैं? परमात्मा की स्मृति खोई हैं। परमात्मा हमको याद नहीं है,शिव हमको याद नही। शिव तत्त्व को हम भूल गए हैं।
तो याद कैसे करना है? जैसा शास्त्रों में विधान बताया है। उसी तरह से याद करना हैं।
प्रेम से प्रकट होता हैं परमात्मा, लेकिन प्रेम कैसे प्रकट होता है? तो
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥*
परमात्मा हृदय में हैं, लेकिन कैसे प्रकट होगा प्रेम से, और प्रेम कैसे प्रकट होगा? नाम का जप करने से। नाम जप करने का मतलब है, बार, बार परमात्मा को याद करना। तो कौन सा नाम का जप करे कि परमात्मा प्रकट हो जाय। परमात्मा प्रकृति के सीमाओं से अतीत हैं, इसलिए उनका एक नाम शिव है, और उसी का एक नाम ॐ हैं, ओ माने वह परमात्मा, और अहम माने हम स्वयं, जिसका निवास हमारे हृदय में है। इसलिए इसका एक नाम ॐ हैं। शिव कोई और ॐ कोई और ऐसी बात नहीं हैं। एक ही नाम है, उसी का एक नाम राम हैं, सबके हृदय में रमण करता है इसलिए उसी को राम कहते हैं। कण कण में व्याप्त है, इसलिए उसी को ब्रह्म कहते हैं, सभी बिभुतियो से युक्त है, इसलिए उसको विभु कहते हैं। सबका भरण पोषण करता हैं, इसलिए इसे प्रभु कहते हैं। हजारों नाम हो सकते हैं, और उसी का एक नाम क्या हैं? ॐ।
भगवान शंकर को कहा गया है, ओमकार मूलम, जो शिवतत्व है, उसके मूल में क्या है? ओंकार । ओम के जप से, ये शिवतत्त्व प्रकट होते हैं। उसको याद करने का, उसकी पूजा एवं अनुष्ठान करने का माध्यम क्या हैं? ॐ का जप। गीता में सात आठ बार ॐ का जप आया हुआ हैं। भगवान कहते है?
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्
ज्योतियो का भी जो परम् ज्योती जो ब्रह्म हैं, अज्ञान से परे हैं, सबके हृदय में रहता है, उसे पाने के लिए किसका जप करें? ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म। उस अक्षर ब्रह्म का परिचायक नाम क्या हैं? ॐ। उसका जप कर। ॐ का मतलब है, वो माने वह परमात्मा, अहम माने आप स्वयं।अब आप चाहें स्त्री हैं या पुरूष, चाहें हिंदू हैं, या मुसलमान उससे मतलब नहीं है। ॐ का मतलब मनुष्य के अंदर रहने वाला ईश्वर। और अगर शिवतत्व की हमे खोज करना हैं, उससे प्रेम करना हैं, तो हमे क्या करना पड़ेगा? बार बार उसका स्मरण करना पड़ेगा। और स्मरण करने की विधी क्या हैं, ॐ का जप। ये ॐ का जप कैसे किया जाता है? तीन तरह से तपस्या पार्वती जी ने किया, कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा, बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई ॥ पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना। कुछ दिन वारि बतासा, पानी का, हवा का भोजन किया, फिर कठिन उपवास किया, फिर बेल पत्र सुख सुख गिरता था, उसको खाती थी,फिर उसका भी त्याग कर दिया। फिर उसके बाद आकाशवाणी हुई, अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥ इस तरह से पार्वती जी ने तपस्या की। तो ये तीन तरह की तपस्या नाम जप के ही तीन स्तर हैं। जब आप नाम जप करेगें, तो बोल कर आपको करना पड़ेगा। किसके लिए नाम जप रहें हैं, हृदय स्थित ईश्वर के लिए। वह शिव तत्त्व, कहां है, वह शंकर कहां रहता हैं? हमारे अंदर। उनको पाने के लिए सबसे पहले हम जीभ से नाम का जप करते हैं। क्योंकी हमारा जितना भी व्यवहार है, बोलकर ही होता है। हमारे मन में क्या हैं, दूसरे को हम नहीं बता सकते, जबतक बोले नहीं। इसलिए पहले बोलकर ॐ ॐ ॐ जपते हैं। तो जब बोलकर जपते हैं, तो कछु दिन भोजन वारि बतासा, नाम जपो दूसरे विचारों को मत आने दो, पहले बोलकर जपना है, खुद बोलना है, खुद ही सुनना हैं। फिर और स्तर ऊपर उठ जाता हैं, इसमें भी क्या रहता हैं? भव रहता हैं, जैसे पार्वती के चार स्तर बताएं, भव, भव, विभव, और पराभव। तो जब आप बोलकर नाम का जप करेगें, तो विचार रहेगा, संसार का संकल्प रहेगा। क्या होना है ये बात टकराती रहेगी। कोई न कोई विचार आता रहेगा। इसलिए इसमें भी भव रहता है। इसलिए पार्वती का एक नाम है, भवानी, जो भव का अंत कर दे। तो बैखरी से जपते हो तो भी भव रहता है, फिर मध्यमा, धीरे धीरे मध्यम स्वर में, खुद ही बोलो खुद ही सुनो, दूसरा ब्यक्ति पासवाला भी न सुनपाये, जीभ का सहारा देकर के, ॐ ॐ ॐ। इसमें भी नाम का जप तो होता हैं, लेकिन इसमें भी भव, संसार रहता हैं। संसार के विचार रहते है, मन पूरी तरह से अपने लक्ष्य नाम के जप में नही लग पाता। इसलिए भव, भव। तो ये नाम जपने वाली वृत्ति ही पार्वती है। इसी से संपूर्ण वृत्तियों का निरोध होगा। और इसी प्रेममयी वृत्ति से शिवतत्त्व प्रकट होगा, उसका मिलन होगा। तो फिर तीसरा आता हैं, पश्यन्ती। पश्य माने देखना। किसको देखना है, श्वास को। ये जो श्वास हैं, ये सबसे प्रमुख केंद्र हैं हमारे शरीर का। ये श्वास है, तभी तक हम जीवित रहते है। श्वास हैं तो हम संसार में काम कर सकते हैं। श्वास हैं तभी तक परमात्मा का भजन भी कर सकते हैं। और यदि श्वास निकल गईं तो कुछ नही कर सकते। इसलिए श्वास क्या हैं? एक सीढ़ी है। एक सेतू है। बाहर हम संसार से जुड़े हैं, और भीतर परमात्मा से। और इस श्वास पर चढ़कर ही हम दोनो से जुड़ सकते हैं। इसलिए श्वास हैं, तो पूरे शरीर में लेकिन श्वास के जानें आने का रास्ता क्या हैं? नासिका के अग्र भाग से प्रवेश करती है, तालु का स्पर्श करते हुऐ मेरुदंड का स्पर्श करते हुए नाभि तक आती हैं,और फिर उसी रास्ते से होकर बाहर चली जाती है। इसी को पश्यन्ती कहते हैं। पश्य माने देखना। किसको देखना इसी श्वास को।अब जितने भी शिव तत्त्व को प्राप्त करने वाले ऋषि हुए, इस देश में और दूसरे देशों में, सभी ने इस श्वास का जप किया। पश्यन्ती का जाप किया, श्वास का जप किया, इसलिए ये शिव तत्त्व को प्राप्त करने की सबसे प्रमुख साधना हैं। और इस साधना को जो वृत्ति करती हैं, वो पार्वती हैं, यही प्रेममयी वृत्ति हैं। महात्मा बुद्ध ने इसी को अनापान कहा हैं, पानापान कहा हैं, श्वसन क्रिया कहा हैं। उनको जब साधना करनी हुई, शिव तत्त्व को प्राप्त करना हुआ, तो उन्होने फिर क्या किया? अपने श्वास को देखा, इसी पश्यन्ती से साधना शुरू किया। बैखरी, मध्यमा उन्होने नहीं जपा। ॐ के नाम का जप नही आता हैं। लेकिन तिब्बत के शास्त्रों में ॐ का जप आता हैं। इसलिए पानापान कहा। प्राण माने वह श्वाष जों अंदर जाती हैं, अपान माने वह श्वास जों बाहर आती हैं। तो श्वास को देखो,कि श्वास अंदर कब गईं, उसके साथ, साथ अंदर तक जाओ, अंदर कितनी रुकी, इसको समझों, कब बाहर गईं उसके साथ साथ बाहर तक आओ। श्वास के साथ साथ जाओ, श्वास के साथ साथ आओ। और ये काम किससे होगा? और श्वास को आप कैसे देखेंगे? मन की दृष्टी से, सुरत से। सुरत का मतलब होता है, जैसे आप यहां बैठे हुए हैं, घर पे आपने कही पैसा रखा हुआ हैं, फोन आ जाय कि पैसा चोरी चला गया, तो हम कुछ भी बोलते रहें, आपको सुनाई नही देगा। पैसा कहां रखा था,सब दिखाई देगा। इस दृष्टी को सूरत कहते हैं। ये जो श्वास है, इसी दृष्टी से देखा जाता हैं, इसलिए इसको पश्यन्ती कहते है। इसमें भी मन लग जाता हैं, लेकिन विभव, भगवान की विभूतियों का का दर्शन होने लगता हैं। भव भव विभव तीसरा स्तर हो गया, पार्वती के नाम जप का। प्रेम से जो हम नाम जप रहें हैं, तो यहां पश्यन्ती माने तीसरा स्तर। इसमें भगवान की विभूति आने लगती हैं, लेकिन इसमें भी कभी कभी संसार का चिन्तन आ जाता हैं। इसलिए बिभव। फिर इसके बाद नाम का जप इतना अच्छा हो गया, इतनी अच्छी उन्नति हो गईं कि श्वास को देखकर एक बार सुरत लगा दिए, तो लगातार श्वास चलती रहती हैं, अंदर आई तो ॐ बाहर गईं तो ॐ, दूसरे विचार विघ्न पैदा नही करते। इसको कहते हैं परावाणी का जप, इसी को कबीरदास जी के द्वारा अनहद कहा गया हैं। इसको परावाणी कहते हैं, यहां आकर के चित्त वृत्तियों का निरोध हो जाता हैं। जो प्रेममयी प्रवृत्ति जिस तत्त्व को खोजने के लिए नाम जप कर रही थी, वह तत्त्व परावाणी के बाद प्राप्त हो जाती है। तो नाम जपते जपते जब श्वास में, मन स्थिर हो गया दुसरे विचार शान्त हो गए, इसको पराभव कहा गया। जो भव था, संसार था, जो हमारे मन में कुछ न कुछ विचार आता रहता था, वो यहां आकर शांत हो गया, अब हमको कुछ नहीं होना हैं,सारे संस्कार कट गए। इसी के साथ ही परावाणी पूरी हुई, प्रेममयी प्रवृत्ति पार्वती की साधना पूरी हो जाती है। और शिव तत्त्व की प्राप्ती हो जाती है। तो उन्होने तपस्या में क्या क्या किया? पहले बारि बतासा, हवा का आहार किया, मतलब श्वास के द्वारा नाम का जप किया, इसलिए कछु दिन भोजन बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपवासा। उपवास का मतलब होता है, समीप, किसके समीप? आत्मा के समीप । जब आप नाम जपोगे श्वास प्रश्वास के द्वारा, तो एक और घटना घटती हैं। जिस तत्व को प्राप्त करने के लिए हम नाम का जप कर रहें थे, हृदय स्थित ईश्वर में श्रद्धा रखकर। वो शिव तत्त्व जागृत हो जाता हैं। जागृत होकर भगवान हमको पढ़ाने लगते है, उसी को अनुभव कहते हैं। भव माने संसार, अन माने अतीत, संसार क्या हैं, मुक्ती क्या हैं? ये बात भगवान बताने लगते हैं। साधना में दो क्रियाएं की जाती हैं। एक तो प्रेम के साथ नाम का जप। और जब आप नाम का जप करोगे तो जिस शिव तत्त्व को आप पाना चाहते हों, वही शिव तत्त्व जागृत होकर बताने लगता हैं,कि ये गलत है, ये सही है,ये करो ये मत करों, इधर चलो इधर मत चलो। ये सब बातें वो शिव बताने लगता हैं।भगवान के बताने के इस क्रम को अनुभव कहा गया, भव क्या है उससे मुक्ती क्या हैं? ये बात भगवान प्रकट होकर बताने लगते हैं। यद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता, अनुभव गम्य भजहि जेहि संता। ब्रह्म अखंड और अनंत है, लेकिन वहां तक पहुंचने का रास्ता क्या हैं? अनुभव हैं। जिस स्तर पर हम नाम जप रहें हैं, हमारा प्रेम हमारे नाम का जप इतना उन्नत हो कि भगवान हमको उस स्तर पर आकर मार्गदर्शन करने लगे, पढ़ाने लगें, चलाने लगे। इसी का नाम हैं अनुभव। वो शिव तत्त्व जागृत हो जाता हैं तो जब हम उसी परमात्मा के निर्देशन में चलने लगते हैं, तो पराभव कारण, भव से पार हो जातें हैं, और फिर निर्देशन करने वाला वो शिवतत्त्व जो हमे नाम जपा रहे थे, भगवान,चला रहे थे, वो शिवतत्त्व हमे प्राप्त हो जाता हैं।कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा, उप माने आत्मा, और बास, आत्मा के समीप, आत्मा कहो, शिव कहो और प्रकृति की सीमाओं से अतीत है इसलिए शिव, अंतःकरण में रहता हैं इसलिए आत्मा, शिव तत्त्व,एक ही बात हैं। कब हम उस आत्मा के समीप बास करते हैं? जब भगवान जागृत होकर हमको बताएं, और उनकी बात को हम समझें, इसका नाम है उपवास। जैसे, जैसे बताते जाएं,हम समझते जाएं, तो उनके समीप हमारा बास होता जाता है। और जिस चीज को,भगवान छोड़ने के लिए बोल रहें हैं, उसको हम छोड़ते जाएं। तो ये है,किए कठिन कछु दिन उपवासा। फिर, बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस संबत सोइ खाई ॥
तीन सहस्त्र संबत का मतलब होता हैं, तीनों गुणों की हजारों प्रवित्तियां। पत्ते का अर्थ आप जानते हैं, कि पत्ता निकलता जाता हैं, चाहें बेल का पेड़ हो चाहें पीपल का पेड़ हो, चाहें किसी का भी पेड़ हो, पत्ता सूखकर गिरता जाता हैं, मतलब नया पत्ता आ गया। ये शरीर सूखकर गिर गया, मतलब नया शरीर आ गया। तो पत्ता सूखकर गिरना या शरीर सूखकर गिरना, ये क्या हैं? ये है संस्कार। ये जो तीन हजार वर्ष तक बेल पत्र खाये, ये बेल पत्र खाने का मतलब है, तीनों गुणों से उत्पन्न, जो प्राकृतिक संस्कार थे, वो सब कटते चले गए, समाप्त होते चले गए। यही पार्वती का बेल पत्र खाना। इसलिए सब बेल पत्र चढ़ाते हैं। बेल पत्र चढ़ाने का मतलब, श्रद्धा से पत्र पुष्प फल जल, हम जो कुछ भी चढ़ाते हैं, भगवान ग्रहण करते हैं। लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना ही है कि हम अपने संस्कारों को चढ़ाएं, अपने विचारों को चढ़ाएं। जो दूषित विचार है, हमारे मन में, नाम जप के अलावा जो कुछ उठता है,वो सब भगवान के प्रति समर्पित कर दें। इसलिए हम बेल पत्र चढ़ाते हैं। तो तीनों गुणों से उत्पन्न जो प्राकृतिक संस्कार थे, धीरे धीरे सब समाप्त हो गए। इसलिए बेल पत्र खाती थी पार्वती, फिर उसका भी त्याग कर दिया। जब संस्कार समाप्त हो गया तो,जन्म मृत्यु का कारण समाप्त हो गए। तो उमही नाम तब भयो अपर्णा,प्रकृति से परे हो गए, और उसके बाद फिर अकाशवाणी हुई।
भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि। परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥
अब आपका मनोरथ पूर्ण, हो गया, अब आप तपस्या बंद करो, त्रिपुरारी मिल जायेंगे।
हमारे अंदर सत रज तम तीनों गुणों का पुर बसा हुआ हैं। कभी सात्विक चिन्तन, कभी राजसी चिन्तन, कभी तामसी चिंतन ये सब चलता रहता हैं।
त्रिपुरारी मतलब जिसने तीनों पूरो का अंत कर दिया। तब पार्वती जी को शंकर जी मिले।
तो पार्वती जब नाम का जप करते करते तीनों गुणों से उपर उठ गईं, तो उनके हृदय में जो आत्मा का स्वरुप था, उसी का नाम शिवतत्त्व था, बाहर कोई अलग शंकर नहीं हैं । जिनसे पार्वती का विवाह हुआ।
अब शिवरात्री क्या हैं?
ये जगत एक रात्री के तुल्य हैं।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।
संपूर्ण प्राणी इसमें सोए हुए हैं। सोए हुए का ये मतलब नहीं कि कोई अपने बिस्तर पर सो रहा है, वही सो रहा हैं। हम सभी सोए हुए हैं।
मोह निशा सब सोवानिहारा, देखई स्वप्न अनेक प्रकारा।
सोने का अर्थ होता हैं कि, जब व्यक्ती चल रहा है तो भले ही गाड़ी से चल रहा हैं, किसी भी जगह यात्रा कर रहा हैं, उसके मन में कोई न कोई विचार चल रहा हैं, सोच विचार में सोया हुआ हैं, कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं हैं, जिसके मन में कोई विचार नही चल रहा हैं।
तो वो जों विचार चल रहा हैं, वो किसका हैं? या तो उसे कुछ पाना हैं,या होना हैं,या खो चुका है, उसका चल रहा हैं।
वो विचार क्या है? संसार हैं। वो कहां सो रहा है आदमी? उस विचार में सो रहा हैं, उसका मन उसमे लगा हुआ है, तो वहां सो रहा हैं।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
अब इसमें से जागृत कौन हो जाता हैं? जो संयम करने लग गया। तो कौन संयम करता हैं?
नाम जीह जपि जागहि जोगी।
जीभ से नाम का जप करने लग गया, फिर धीरे धीरे वो योगी हो जाता है। परमात्मा से मिलने लगा, इसलिए योगी हैं । योग माने मिलन, परमात्मा से मिलन के लिए प्रयास करने गया, इसलिए योगी हो गया। भगवान शिव का एक नाम क्या हैं? आदियोगी है,आदि योगेश्वर। संसार मे, प्रकृति का परमात्मा से मिलने की जो विधि हैं वो योग हैं, वो सुलभ कराया तो किसने? भगवान शंकर ने। वो आदि सद्गुरु हैं, सबसे पहले सद्गुरु। इसलिए सद्गुरु को शिव कहा गया। इसलिए जब नाम का जप करोगे, तो फिर धीरे धीरे जागृति हो जायेगी। तो जागृत कौन होता हैं?
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी ॥
जो नाम का जप करता हैं, जो योगी हैं, जो भगवान से मिलने के लिए चल रहा हैं, वो जागृत हैं, बाकी सब सोए हुए हैं। शिव तत्त्व को जिसने प्राप्त कर लिया साधना करके, वो क्या हो गया संसार में जागृत पुरूष हो गया। ये जगत क्या है, रात्रि हैं। लेकिन उसके लिए क्या हैं? संसार एक दिन के समान हैं।
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
सर्वत्र ईश्वर ही ईश्वर, संसार समाप्त हो गया। जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया शिव तत्त्व को प्राप्त कर लिया, उसकी जहां भी दृष्टी पड़ती है, जह तह देखि धरई धनु बाना,
वो भगवान को ही देखता हैं। उसमे संसार रह ही नहीं जाता, संसार में वो देखता हैं,क्यों कि वो जागृत है, इसलिए जगत रुपी रात्रि शिवरात्रि हो जाती हैं, जब शिव तत्त्व को प्राप्त कर लेता हैं तब। इसके पहले तो अंधेरा ही अंधेरा है, जिसने शिवतत्व को प्राप्त कर लिया, प्रेम के द्वारा नाम जपते हुए,
संपूर्ण संस्कारो को काट दिया, शिव तत्त्व को प्राप्त कर लिया, अपने हृदय स्थित परमात्मा को पा लिया। उनके लिए ये जगत रुपी रात्री शिवरात्रि हैं।
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा
फिर भोग विलास, शिवरात्री उसको कहा गया। तो कोई भोग विलास बाहरी सामग्री नही होता हैं। ये प्रकृति जिसकी साधना करते करते इस शरीर में क्या हैं, प्रकृति और पुरूष दोनो हैं।
प्रकृति क्या है, हमारा शरीर प्रकृति हैं, हमारा मन प्रकृति हैं।
और पुरुष क्या हैं? इस शरीर के इस मन के अंतराल में, जो परमात्मा हैं, जो
शिव तत्त्व है वो पुरुष हैं। इसलिए हर आदमी का शरीर क्या होता हैं?
अर्ध नारीश्वर होता हैं। आधा स्त्री आधा पुरुष होता हैं। इसलिए भगवान शिव का एक रुप क्या हैं? अर्ध नारीश्वर हैं। प्रेममयी प्रवृत्ति क्या थी? वो प्रकृति थी, साधना करना क्या था, वो हमारी प्रकृति थीं, साधना किससे कर रहे थे, शरीर के द्वारा मन के द्वारा, इन्द्रियों का संयम किया, ये सब क्या हैं? प्रकृति हैं।
ये स्त्री संज्ञा हैं, ये पार्वती हैं।
आधा पार्वती और आधा शंकर अर्ध
नारीश्वर हैं। जब ये प्रकृति साधना करते, करते पुरुष में विलीन हो गईं, परमात्मा में बिलीन हो गईं, तो फिर वो शिव तत्त्व में स्थित हो गईं, तब प्रकृति और पुरूष एक दूसरे में विलीन हो गई। इसलिए ये अर्ध नारीश्वर हैं, आधा स्त्री आधा पुरुष। तो हर व्यक्ति का शरीर भी ऐसा ही होता हैं। आधा स्त्रियां और पुरुष दोनो भिन्न भिन्न होते हैं,प्रकृति और आधा पुरुष होता हैं। लेकिन हर पुरुष के अंदर 40%स्त्री और 60%पुरुष होते हैं। ऐसे ही हर स्त्री के अंदर 40%पुरुष और 60%स्त्री होती हैं, जो शरीर की बनावट हैं, उसमे भी ऐसा ही हैं। लेकिन यहां पर शरीर की बात नहीं हैं। ये आत्मा ही पुरुष हैं।
और स्त्री का शरीर हो या पुरुष का शरीर हो, दोनो ही प्रकृति हैं।और ये
प्रकृति कब बिलीन हो जाती हैं? जब मन का निरोध हो गया, चित्तवृत्तियां शांत हो गईं। जब नाम जपते जपते, शिव तत्त्व को हमने प्राप्त कर लिया, तो अर्ध नारीश्वर, तो प्रकृति पुरूषत्व में विलीन हो जाती हैं। और जब प्रकृति पुरूषत्व में विलीन हो जाती है, तो सर्वत्र परमात्मा का ही प्रसार देखता हैं।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।
जो सर्वत्र मुझ परमात्मा को देखता है, सम्पूर्ण भूतो में, और सम्पूर्ण भूतो को श्रृष्टि को परमात्मा के अंदर देखता हैं, वो सब यथार्थ देखता हैं। तो जब परमात्मा का दर्शन होता हैं, तो संपूर्ण श्रृष्टि में परमात्मा दिखाई देते हैं, ऐसा नहीं कि मन्दिर में दिखते है, खेत में नही सब जगह दिखाई देते हैं। सर्वत्र जहां परमात्मा दिखाई देने लग गए, तो वो व्यक्ती वो साधक शिव तत्त्व में स्थित हो जाता हैं। फिर ये जगत रुपी रात्रि शिवरात्रि हो जाती हैं। वो इस संसार रूपी रात्री में देखने वाली दृष्टी उसके पास आ जाती हैं, त्रिकालज्ञता आ जाती हैं। और शंकर जी के पास क्या था? तीसरा नेत्र।
ओम त्रयंबकम यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम उर्वारुकमिव वंदना मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
जो महा मृत्युंजय मंत्र जप करतें हैं लोग मृत्यु को टालने के लिए। त्रयंबकम यजामहे, का मतलब होता हैं, तीन नेत्रों वाले। तो ऐसा कोई शंकर जी नही हैं, शरीरधारी जिनके मस्तक के बीच तीसरा नेत्र हो, जो खुलता हो, ऐसी बात नहीं हैं,तीसरे नेत्र का मतलब होता है, विवेक दृष्टी।
विवेक दृष्टी का मतलब होता हैं, जिस दृष्टी से कामनाएं नष्ट हो जाती हैं। इसलिए शंकर जी ने क्या किया?कामदेव को जला दिया। जब कामदेव चला शिव जी की समाधि को डिगाने के लिए वो तपस्या में बैठे थे, सब लोग काम के वश में हो गए। शंकर जो के सामने जैसे हि काम पड़ा,उसको देखकर तीसरा नेत्र खुला और काम भस्म हो गया। तो तीसरे नेत्र का मतलब होता हैं, जो शिव तत्त्व मे स्थित हो गये, सद्गुरु हो गए,महापुरुष हो गए, जिसकी प्रकृति शांत हो गई, उनका जो विवेक होता हैं, विवेकी संत बसही जेहि देश, विवेक दृष्टी इतनी प्रबल होती हैं, कि किसी प्रकार की कामना, वासना उनके अंदर प्रवेश नहीं कर सकती। कामानाओ को वश में करके ही उनके अंदर विवेक दृष्टी आई है। सम्पूर्ण कमानाओ को जो त्याग कर देता है, तब व्यक्ति स्थितप्रज्ञ कहलाता हैं। गीता में कहते हैं, कि जिस स्थिती में पुरुष सम्पूर्ण कमानाओ का वासनाओ का त्याग कर देता हैं, तब वो स्थितप्रज्ञ कहलाता हैं। जब कामनाओं का त्याग कर दिया, फिर विवेक दृष्टी आ जाती हैं। ये विवेक दृष्टी क्या हैं? शिवजी का तीसरा नेत्र है। और फिर किसी भी प्रकार की कामना जल कर राख हो जाती हैं, ये तिसरी दृष्टी आती ही तब हैं, शंकर जी ने काम को जलाया, तो काम जलाने का मतलब है, कि जो शिवतत्व में स्थित होनेवाला महापुरुष हैं, उसके पास उस स्थिती के आने के पहले ही जितनी कमानाएं हैं, सब जलकर भस्म हो जाती हैं, तभी वो जाकर शिव तत्त्व में स्थित होता हैं। किस दृष्टी के द्वारा? विवेक दृष्टी के द्वारा। विवेक दृष्टी होती क्या हैं? विवेक का मतलब ये नहीं है, जैसा लोग कहते हैं कि,आपने विवेक से काम करो ऐसी बात नहीं हैं। लक्ष्मण हमेशा राम के साथ रहते हैं। अनुभव रूपी राम, विवेक रूपी लक्ष्मण। अनुभव माने भगवान क्या बता रहें, विवेक माने उसको समझना। विवेक दृष्टी का अर्थ होता हैं, जो भगवान भीतर से बता रहे है, जो शिव तत्त्व आपको प्रेरणा कर रहा हैं, उसको जो समझने वाली शक्ती हैं, उसका नाम विवेक है। भगवान ने बताया, उसको समझा और जो आनेवाली चित्त में कामनाएं हैं, उसका त्याग कर दिया, वो भस्म हो गईं। तो ये जो विवेक दृष्टी हैं, अनुभव से संयुक्त दृष्टि हैं, उसको हम कहते हैं, तीसरा नेत्र, इसी को त्रिकाल दृष्टी भी कहते हैं। तो तीसरा नेत्र शंकर जी ने खोला कामनाएं भस्म हो गईं। विवेक दृष्टी जिसके पास हैं, कामनाएं भष्म कर सकता हैं। कोई भी साधक है,महापुरुष हैं, विवेक के आते ही उनकी कामनाएं समाप्त हो जाती है। इसलिए वे तीसरा नेत्र धारण करतें हैं।
त्रिशूल धारण करतें हैं। सत, रज, तम तीनों गुणों से उपर उठ गए, तीन प्रकार का ताप होता हैं, शूल होता हैं, दैहिक, दैविक भौतिक। ये जो तीन प्रकार का जों शूल है, उसको जिसने समाप्त कर दिया है। उसके हाथ में त्रिशूल रहता हैं। तीनों शूलो से ऊपर उठ जाता हैं। शिव काशी में भी निवास करते हैं, इसका भी उल्लेख आता हैं, काया रूपी काशी। शरीर के रहते रहते ही शिव तत्त्व की स्थिती प्राप्त होती हैं, मरने के बाद नहीं। इसलिए शंकर जी काशी में रहते हैं। शिवतत्त्व स्थित जो महापुरुष हैं, इस काया रुपी काशी में रहते हैं। इस काया में ही शिवतत्व की प्राप्ती होती हैं। फिर कैलाश में भी रहते हैं। एक ही ब्यक्ती दो जगह कैसे रह सकता हैं? काशी में भी रहते हैं, कैलाश में भी रहते है,व्यक्ति तो एक ही जगह रहेगा। दो जगह कैसे रहेगा? तो कैलाश का मतलब होता हैं, केवल और वास जो कुछ बचा खुचा हैं, नाम जपते जपते ऐसी स्थिती आ गईं, केवल और लय, सब कुछ प्रकृति का विलय हो गया। कैवल्य पद की प्राप्ती हो गई। सब कुछ समाप्त हो गया, प्रकृति विलीन हो गईं, उस समय जो स्थिती होती हैं, वो कैवल्य स्वरूप होता हैं। उसी का नाम कैलास पर्वत हैं। वो अचल स्थिती हैं। पर्वत माने अचल। जो कुछ प्रकृति हमारे अंदर हैं, वो पूरी तरह से विलीन हो जाती है। तो उसको कैवल्य पद कहते है,और कैवल्य पद को ही, कैलाश पर्वत कहते हैं। इसलिए कैलाश पार भी शिव का निवास। जो प्रकृति की सीमाओं से असीम तत्व हैं, जब सम्पूर्ण प्रकृति विलीन हो जाती हैं, तभी जाकर के वह कैवल्य पद को प्राप्त होता हैं, वहीं कैलाश हैं, इसलिए शंकर जी कैलाश पर भी रहते हैं। फिर स्मशान में भी रहते है। स्मशान क्या होता हैं? एक तो आप बाहर स्मशान देखते हैं, मुर्दो को जलाने की जगह। ये मुर्दा आता कहां से हैं, हमारे अंदर एक एक संस्कार एक एक शरीर है, हमारे अंदर के जितने भी संस्कार है, जब वे सब कट जातें है, तो हमारा ये हृदय क्या हो जाता हैं? स्मशान हो जाता है। जिसके हृदय में सम्पूर्ण कामनाएं समाप्त हो गईं, जन्म मृत्यु के सारे संस्कार कट गए, उसका हृदय क्या हो गया? स्मशान हो गया। फिर उसमें शिवतत्व का शंकर जी का निवास होता हैं, फिर वो महात्मा, संपूर्ण शंकाओं से अतीत ही जाता हैं, इसलिए शंकर भी कहते हैं उनको। शिव तत्त्व में स्थित है इसलिए शिव कहते हैं। शिव कहां रहते हैं?स्मशान में। जब हृदय स्मशान हो, जाता है, जन्म मृत्यु के कारण संस्कार हैं, इस शरीर के कारण जो संस्कार हैं, वो जब जल जातें है, तब हमारा हृदय स्मशान हो जाता है। फिर उसके बाद शिवतत्व की प्राप्ती हो जाती हैं। तो शिव कहां रहते हैं? स्मशान में। ये तत्त्व उसी को प्राप्त होता है, जिसका हृदय
स्मशान होता हैं। इसके बाद वो सर्पों की मालायें पहन रखी हैं। सर्प माने संशय होता है।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता।
जैसे हमारे मन में संशय आते हैं,
जिसने सम्पूर्ण संशय समाप्त कर लिया, संशयो का अंत कर दिया है,
वो शंकर की स्थिती प्राप्त कर लिया, शिव की स्थिति प्राप्त कर लिया। इसलिए उन्हें किसी भी संशय से भय नहीं हैं, इसलिए सर्प लपेटे रहते हैं। बिभुति लपेटे रहते हैं, बिभूती मतलब ऐश्वर्य।
, जिमि सरिता सागर महुं जाही। जद्यपि ताहि कामना नाहीं।। तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएं। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएं।
जो धर्मशील है, जिसने परमात्मा को प्राप्त कर लिया हैं,उसको किसी भी चीज की अवश्यकता नहीं रहती है। लेकिन सारे भोग ऐश्वर्य सब उसके पास जाते है, किसी की भी अवश्यकता नहीं रहती इसलिए उनके पास जाती हैं। विभूति लपेटने का मतलब है कि सम्पूर्ण विभूति वहां पर छाई रहती हैं।
रिद्धि सिद्धि तह सेवा करिहै धरी दासी का भेष, विवेकी संत बसही जेहि देश।
विवेकी संत कहो, शिव स्वरूप सदगुरू कहो, शिवतत्व महापुरुष कहो एक ही बात हैं।
इसके बाद ज्योतिर्लिंग, ज्योतियों का भी परम् ज्योती परमात्मा, हैं।
ये स्थापना का मतलब हैं, जितने भी ज्योतिर्लिंग हैं जो पत्थर के बनाएं गए हैं, 12 ज्योतिर्लिंग हैं। तो ज्योतिर्मय परमात्मा, गीता में कहा गया है,
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्।।
वह परमात्मा क्या हैं? ज्योतिस्वरूप हैं, इसलिए ज्योतिर्लिंग, स्त्रियों के चिन्ह पाए जाते हैं, तो स्त्री लिंग, पुरुषों के चिन्ह पाए जाते हैं, पुरूष लिंग, नपुंसक के चिन्ह पाए जाते हैं तो नपुंसक लिंग। ऐसे ही वह ज्योतिर्मय हैं, परमात्मा। ज्योती को आपने बाहर देखा है, दिए की लौ। कोई भी आप आग जलाओगे, एक आकार ले लेती है, उसको ज्योति कहते हैं। ऐसे ही परमात्मा क्या हैं, उसमे प्रकाश निकलता है, तो परमात्मा कौन सा ज्योतिस्वरूप हैं? ज्ञानस्वरूप हैं। ज्ञान की ज्योती। वो ज्ञान हैं, अज्ञान नही हैं, तो ज्योतिस्वरूप हैं, इसलिए ज्योर्तिलिंग हैं। वह परमात्मा ज्योतिर्मय हैं, ज्योतिस्वरूप है,उसका बोध कराने के लिए ज्योर्तिलिंग हैं। महापुरुष जिन्होंने शिवतत्व को प्राप्त किया, गांव, गांव घर, घर नहीं जा सकते, इसलिए ज्योतिर्मय परमात्मा हैं, एक हैं, उसका बोध कराने के लिए 12 ज्योर्तिलिंग की स्थापना की गई, ताकि लोगो को पता चल जाय कि इसका
चिन्ह हैं। ये किसी इंद्रिय या शरीर के किसी भाग का चिन्ह नही हैं, पत्थर की मूर्ती जैसे लोग कहते हैं कि इंद्रिय का फोटो हैं। किसी इन्द्रिय का फोटो नहीं हैं, वैसे ही हैं जैसे स्त्रीलिंग, पुरूषलिंग, जैसा हमने बताया, वह ज्योतिस्वरूप हैं, परमात्मा, वह परमात्मा एक हैं, इस बात का बोध कराने के लिए द्वादश ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई। इस तरह से भगवान शंकर का अनेक प्रकार का स्वरूप हैं, जो सद्गुण पाए जाते हैं,उसका वर्णन हमने किया। डमरू लिए रहते हैं, उनके डमरू से सभी विद्याएं निकली। डमरू का मतलब होता हैं, दृढ़ता। जो परमात्मा की भक्ती में दृढ़ हो गया, भगवान को जिसने प्राप्त कर लिया, को कुछ भी उसके मुख से निकलेगा, वो भगवान की वाणी ही निकलेगी। सभी विद्याओं का स्रोत है डमरू। भगवान की प्राप्ती के बाद जो वाणी निकलती हैं, वो विद्या हैं, भगवान की वाणी हैं। इसलिए डमरू बजाते हैं, त्रिशूल धारण करतें हैं , सर्प लपेटते हैं, सभी बातो को लगभग हमने बता दिया पुरी तरह से। यहीं भगवान शंकर का स्वरूप हैं, लेकिन ऐसी बात नहीं है कि भगवान शंकरजी कहीं रहते हैं, कैलाश में काशी में, ये जितनी भी बाते बताई गई सब आपके अंदर हैं।प्रत्येक व्यक्ती के हृदय में जो शिवतत्व हैं, उसके अंदर ये सभी सद्गुण, सभी लक्षण पाए जातें हैं। प्रेममयी प्रवृत्ति ही पार्वती हैं। प्रेम के साथ जो भी नाम का जप करेगा, उसको इस शिवतत्त्व की प्राप्ति होगी, जिसके अंदर ये सारी विभूतियां हैं। इसलिए भगवान शिव का मतलब है, प्रकृति सीमाओं से असीम तत्त्व। वो कहां रहता हैं, हमारे हृदय में रहता है, उसे कैसे पाना हैं? हृदय में श्रद्धा रखकर नाम का जप करना हैं। नाम का जप करने वाली प्रवृत्ति क्या हैं? पार्वती। इसलिए पार्वती का शिव से विवाह हुआ, विवाह माने सम्बंध होता हैं। जिस दिन से हम श्रद्धा स्थिर करते हैं, हृदय स्थित ईश्वर में नाम का जप आरंभ करते हैं, उसी दिन से हमारा संबंध, प्रकृति से परे जो असीम तत्व शिव हैं, उससे जुड़ जाता हैं। लेकिन पूरी तरह से सम्बंध कब जुड़ता हैं? जब हम शिव तत्व में स्थित हो जातें हैं, उसे हम प्राप्त कर लेते हैं। जब हम पूरी तरह से शिव को प्राप्त कर लेते हैं, तब शिव से विवाह हो जाता है,उनसे सम्बंध जुड़ जाता हैं, यही शिव पार्वती विवाह हैं, अब फिर जब संबंध जुड़ गया परमात्मा से उसके पश्चात जगत रुपी रात्री शिवरात्रि हो जाती है। यही शिवरात्री हैं,सर्वत्र ईश्वर का वास देखता हैं।
।। ॐ।।