होली उत्सव क्या हैं,और क्या है इसका आध्यात्मिक रहस्य?
आज होलिका उत्सव है, होली का त्यौहार। ये त्यौहार पूरे देश में लगभग सभी जगह मनायां जाता है, और इसको मनाने की प्रथा सतयुग से चली आ रही है। त्योहारों के मनाने के पीछे कोई न कोई आध्यात्मिक कारण हैं। जितने भी उत्सव भारत में होते हैं, लगभग सभी के पीछे आध्यात्मिक कारण हैं। और सभी त्योहारों के गहराई में जो कहानी है, उसका जब हम आशय समझेंगे, तो उसके पीछे साधना की विधी हैं। मनुष्य कैसे इस पृथ्वी पर रहकर कुशलता पूर्वक जीवन यापन करते हुए, ईश्वर की प्राप्ती करले। वो सम्पूर्ण विधि, प्रत्येक उत्सव, प्रत्येक पर्व के पीछे छुपी हुई है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने, ये सब उत्सव,त्यौहार मनाने की प्रथा रखी। जो भी कहानी बनाई गई , उसके दो रूपक थे। एक तो जो घटना घटी, कि लोग उसको याद करते रहें, और उत्सव मनातें रहें। दुसरी बात, जब उस कहानी को सुनें, समझें, फिर उसपर विचार, मनन करें, और उसकी वास्तविकता जब किसी संत महापुरुष से समझें, तो उसके अंदर जो साधनात्मक गहराई है, जो साधना की विधी है, जिससे जीव ईश्वर को प्राप्त होता हैं, उस विधी को, उनसे समझ लें, और जो जहां है, वही से साधना आरंभ करें, और ईश्वर की प्राप्ती कर लें। तो प्रत्येक उत्सव के पीछे साधना विधी रखी गई। इसलिए पूरी दुनिया को दो भागों में बटा देखते हैं, पूरब और पश्चिम।
पश्चिम में लोगों ने इतिहास बनाया, इतिहास का मतलब जो बीत गया सो बीत गया। अब पुनः नही आयेगा। और पूरब के लोगों ने पुराणों की रचना की। पुराणों का अर्थ होता है, जो अति पुरातन परमात्मा है, उसको छोटी छोटी कहानियों के रूप में प्रस्तुत कर उसको प्राप्त करने की विधि का वर्णन।
जो अति पुरातन परमात्मा है, जिससे पुराना कुछ भी नही है, और जिससे नया भी कुछ नहीं हैं। उसे प्राप्त करने की विधि, कहानियों के माध्यम से प्रस्तुत करना। इतिहास में भी जो घटना घटी, उनमे भी साधना की बातें लिखी गई। उनको भी इस ढंग से प्रस्तुत किया गया, कि किसी भी शास्त्र में जो देवताओं का एवं असुरों का जो रूप हैं, अवश्य ही देवता और असुर थे, पर जिस तरह के बताएं गए, क्या वैसे हो सकते हैं? अवश्य ही राक्षस भी थे, पर जैसे बताए गए क्या वैसे हो सकते हैं? तो ये पुराणों की रचना है, इसमें महापुरूषों ने जो साधना की विधी हैं, उसको छुपाकर प्रस्तुत किया, घटना भी घटी इसमें कोई संदेह नही। पुराण का अर्थ है, जो पुनः पुनः जीवित हैं, जो कभी हुआ, या कभी हो गए,ऐसी बात नहीं, जैसे राम कभी हुए, ऐसी बात नहीं, राम अभी भी है। राम और रावण की कहानी जब आप रामायण में देखेंगे, कभी राम थे, ऐसी बात नहीं, अवश्य ही रहें होंगे। परंतु वो कहानी वो कथानक, रामचरित मानस इस ढंग से लिखा गया हैं कि, वे राम और रावण आज भी हैं, और सदैव ही रहेंगे।
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥ कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥ कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥ ये बातें लिखी गईं हैं। ये इतिहास नही है, कि कभी राम हो गए, रावण हो गए। राम सदैव हैं, ऐसे ही रावण भी सदैव है। ऐसे ही देवता और असुरों की जो पुराणों में कथाएं हैं,ये भी इस तरह की नहीं हैं, कि कभी देवता और असुर थे,आज नहीं हैं। वे सब आज भी हैं। क्योंकि देवता और असुर इस पृथ्वी पर थे, तो अवश्य मनुष्य शरीर में ही रहें होंगे। और मनुष्य तो आज भी हैं। वही दो हाथ पैर वाले वो लोग थे, और वही आज भी हैं। उस तरह की वृत्ति वाले लोग आज भी है। तो ये बातें पुराणों में लिखी गईं, कथानक के माध्यम से। इनके अंदर साधना की विधी हैं। इनके अंदर वो बाते लिखी गई, कि कैसे मनुष्य को भगवान की प्राप्त हो, ये बातें बताई गईं। फिर इन्हीं कुछ घटनाओं को त्यौहारों से जोड़ दिया गया। जैसे आज होलिका उत्सव है, होली का त्यौहार हैं। ये प्रहलाद की जीवनी से संबंधित हैं। जो भक्त प्रहलाद हुए हैं, सतयुग में हिरणाकश्यप के पुत्र, उनके जीवनी पर आधारित, हैं। उनकी साधना, तपस्या उनकी भक्ती पर आधारित है,ये होलिका उत्सव, त्यौहार। जिसको हम तभी से लेकर आज तक मनाते चले आ रहें हैं। कालांतर में बहुत से बातें इससे जुड़ती गईं। लोग चिन्तन करते हैं, तो कुछ न कुछ कहानियां नई, नई जोड़ते जातें हैं। नए नए प्रकार का इसका अर्थ लगाते जातें हैं। लेकिन सत्य ये है कि, ये त्यौहार भक्त प्रहलाद के जीवनी से संबंधित हैं। तो अब हम इस विषय में जानना चाहेंगे कि, प्रहलाद की जीवनी क्या हैं? और उसका साधनात्मक अर्थ क्या हैं? इस होली को मनाने का तात्पर्य क्या है? या फिर किसी भी उत्सव को मनातें हैं , तो उसका मतलब क्या होता है। आज होली है, तो हम इसी विषय पर बताना चाहेंगे। प्रहलाद की जो कहानी है, वो इस प्रकार है कि, हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष दो भाई थे, रामचारित मानस में कहा गया है, कनककसिपु अरु हाटक लोचन, तुलसीदास जी ने अपनी भाषा में कहा है।कनककसिपु माने हिरणाकश्यप, और हाटक लोचन, हिरण्याक्ष को कहा। ये दो भाई थे,इन दो भाईयो के पिछले जन्म की कहानी भी, हम बताते हैं। ये दो भाई जय और विजय नाम के भगवान के द्वारपाल थे, द्वारपाल के पास बहुत पावर होता है, जो द्वार पर रहता हैं,वो भी भगवान के द्वारपाल। सनकादि ऋषि भगवान से मिलने आए, भगवान का दर्शन करने के लिए,तो जय और विजय ने उनको अंदर नहीं जाने दिया तो सनकादि ऋषियों ने श्राप दिया कि तुम निशाचर हो जावोगे और भगवान के हाथों से जब मरोगे, तभी तुम्हारा उद्धार होगा। तो ये हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष, के पिछले जन्म की कहानी है। उस समय ये भगवान के द्वारपाल थे। श्राप लगा दोनों द्वारपाल निशाचर हो गए। जितने भी असुर है, जब वे असुर होते हैं, तो पहले घोर तपस्या करते हैं, देवताओं ने आज तक कोई तपस्या नहीं किया, जबकि देवताओं को बड़ा माना जाता है। इन्द्र इत्यादि देवता केवल नृत्य देखते हैं स्वर्ग में। जितने भी असुर है, सबने शुरूआत में पहले तपस्या किए। तो जीवनी की दृष्टी से देखा जाए, तो असुर ही ज्यादा अच्छे हैं। क्योंकि वे पहले तपस्या करते हैं, फिर अत्याचार करते हैं। देवताओं ने न तपस्या किया और न ही अत्याचार, एकरस है, दोनों में, लेकिन किसी भी परिस्थिती में अपना स्वर्ग नही छोड़ते। और नही छोड़ते इसलिए असुरों को स्वर्ग पर हमला करना पड़ता है, जबरदस्ती छुड़ाना पड़ता हैं। इन्ही देवासुर संग्राम से पुराणे भरी पड़ी हैं। लगभग एक ही प्रकार की कहानी सभी पुराणों में हैं, कि कभी इन्द्र को असुरों ने जीत लिया, और फिर कभी असुरों को इन्द्र ने जीत लिया। तो ये सब कहानियां जो पुराणों में हैं, इसका भी अर्थ वही हैं, कि ये भी अंतःकरण की ही सब घटनाए हैं। मनुष्य के अंदर क्या घट रहा है? उसको कहानियों के माध्यम से पुराणों में बताया गया। कालांतर में पुराणों में कई मनगढ़ंत कहानियां रच दी गई, वो बात अलग हैं। लेकिन जो वास्तविक कहानी है, जो सब जगह पर हैं। तुलसीदास जी ने भी जिनका वर्णन किया हैं, महाभारत में भी वर्णित हैं, वास्तव में उसका रचना महापुरुषों ने किया, और उसके अंदर साधना की विधी प्रस्तुत की। उसको केवल महापुरुष ही समझ सकते हैं, और बता सकते हैं। तो श्राप वस हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष, दोनो निशाचर हो गए, जो पिछले जन्म में जय और विजय थे। निशाचर होने के पश्चात् उन्होने घोर तपस्या किया, और फलस्वरूप वरदान प्राप्त किया। असुर तपस्या के पश्चात वरदान ऐसा मांगते थे, कि कोई उन्हें मार न सके, कोई उनसे जीत न सके, अंत में उन्हें हराने के लिए मारने के लिए, जिन्होंने वरदान दिया,उन्हीं भगवान को प्रकट होकर उनका अंत करना होता था। ऐसा ही लगभग सभी कहानियों में हैं, चाहें राम रावण की हो, चाहें हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष की हो। जितनी भी कहानियां है, सबमें ऐसा ही दिखता हैं, कि भगवान से ही बरदान लिए बाद में भगवान को ही आना पड़ा, उनको मारने के लिए।या फिर भगवान को ही कुछ रचना करना पड़ा, जिनके द्वारा उनको मरवाना पड़ा या मारने का विधान बनाना पड़ा। हर हालत में वे बिना भगवान के नहीं मरते थे। इस तरह की कहानियां आप पुराणों में सुनेंगे। इसी तरह से एक कहानी ये भी है,जिसमें हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष दो भाई हैं, इन्होंने भी तपस्या किया और फिर वहीं काम करने लगे, जैसा अन्य असुर करते हैं। पृथ्वी पर आतंक करना, सज्जनों को दुख देना, वही सब प्रक्रिया।हिरणाकश्यप ने कहा भगवान नाम की कोई सत्ता नहीं हैं, जो कुछ भी हैं, मै ही हू, और कोई भी ईश्वर नही हैं। मेरी ही पूजा करो। अपने पूरी राजधानी में अपने को ही पूजना आरंभ करवा दिया। भगवान की पूजा सब जगह से हटा दिया, डर के मारे सब लोग उसकी पूजा करते थे। तो देवता लोग ऋषि लोग उसकी इस गतिविधि को देखकर परेशान हो गए। फिर सब लोगों ने भगवान से प्रार्थना किया,तो भगवान ने कहा कि चिंता मत करो, धीरे धीरे उसको मारने के लिए वहा पर हम सब व्यवस्था करेगें। फिर एक समय आया, हिरणाकश्यप तपस्या करने निकल गया। उसकी पत्नी कयाधु अपने घर पर थी। इन्द्र ने देखा कि इसकी पत्नी के गर्भ में बच्चा पल रहा हैं, ये जब पैदा होगा तो ये भी असुरों की तरह ये भी हमसे लड़ेगा।असुर का बच्चा असुर ही हो सकता हैं, क्यों न, इसको ले जाकर इसके बच्चे को मार डालें। हिरणाकश्यप तपस्या के लिए गया, और इधर इंद्र ने उसकी पत्नी कयाधु को विमान में बैठाकर आकाश मार्ग से लेकर चल दिया, रास्ते में देवऋषी नारद मिले, उन्होने कहा देवराज ये क्या कर रहें हो? तो इंद्र ने बोला, देवऋषि इसके गर्भ में बालक है, वो भी असुर निकलेगा, और वह भी हमसे युद्ध करेगा, और यदि इसको नष्ट कर देंगे, तो असुरों का वंश ही खत्म हो जायेगा। इसलिए हम इसको ले जा रहें हैं कि, जब बच्चा पैदा होगा, तो हम उसको मार डालेंगे, फिर हम कयाधु को वापस कर देंगे। तो देवऋषी ने उसे अपने ज्ञान दृष्टी से देखा, तो उनको समझाया कि ऐसा भी तो हो सकता हैं कि, जो बालक पैदा हो वो असुर न होकर देवता जैसा हो, भगवान का भक्त हो। क्या पता, भगवान की महिमा को कौन जान सकता है? तो देवऋषी महात्मा ही थे,इंद्र ने उनकी बात मानी, और कयाधु को छोड़ दिया। वो बीच रास्ते में थी, कयाधु अपने घर वापस नही जा सकती थी, देवऋषी नारद ने उसको अपने आश्रम में रखा। जबतक वो बालक पेट में पल रहा था, कयाधु उनके आश्रम में सेवा करती थीं। और देवऋषी नारद उनको कथा सुनाते थे, तो जो बालक था, पेट में समझता गया, भजन विधि, भगवान की भक्ती सब उसको समझ आती गईं। बालक पैदा हुआ, और पैदा होते ही भगवान का नाम लिया। देवऋषी समझ गए कि, जो कथा सुनाई गईं है, उसका असर इसके संस्कार में हैं। जब बड़ा होने लगा, तो भगवान की भक्ती कैसे करते हैं? भजन क्या है, साधना क्या है? सदगुरू थे ही देवऋषी सब समझा दिए, तो वो भक्ती में लग गया। बाप असुर भगवान का विरोधी और बेटा भगवान का भक्त प्रेमी, एक ही घर में,तो बगावत शुरू हो गईं। हिरणाकश्यप भगवान का नाम सुन ही नही सकता था, क्योंकि वो तपस्या ही करता था, भगवान को नष्ट करने के लिए, और प्रह्लाद उसी घर में भगवान की प्राप्ती के लिए भजन करते थे।हिरणाकश्यप जब तपस्या के पश्चात घर पहुंचे तो देखा प्रह्लाद भगवान की भक्ती में लीन हैं, तो उसने अपने पत्नी कयाधु से कहा, क्या सीखा दिया इसको? ये असुर बालक है, इसको आसुरी विद्या सिखाई जाय। असुरो को क्या करना चाहिए? देवताओं से विरोध करना चाहिए, भगवान का नाम नहीं लेना चाहिए। ये सब इसको सिखाओ और असुरो के जो विद्यालय है, उसमे पढ़ाओ, और आसुरी विद्या का उपदेश करो। इस तरह से दुबारा प्रह्लाद को शुक्राचार्य के यहां पढ़ाया गया। तो प्रह्लाद आसुरी विद्या कहां पढ़नेवाला, बल्कि उसके प्रभाव में आकर, असुर बालक भी भजन करने लग गए, भगवान का नाम जप करने लग गए। भगवान की महिमा, सब कुछ विपरीत होने लग गया। फिर प्रह्लाद को उसके पिता, हिरणाकश्यप के द्वारा समझाया गया, कि तुम्हारा भगवान विष्णु हमारा दुश्मन है, उसका नाम मत लो। तुमको हमारे तरह रहना चाहिए, किसी भगवान को मत मान। तो प्रह्लाद तो भगवान के भक्त ही ठहरे, बोले भगवान किसी का दुश्मन हो ही नहीं सकते,लगा विरोध करने अपने पिता से। बाद विवाद फिर बहस होता ही रहा, बहुत समझाया गया प्रह्लाद को लेकिन नही माना, बात बढ़ गईं तो फिर उसके पिता ने कहा ले जाकर इसको पहाड़ पर पटक दो मर जाय,हम इसको नही देखना चाहते।सब लोग ले जाकर हाथ पाव बांधकर पहाड़ से नीचे फेक दिया,लेकिन भगवान का हाथ था, उसके ऊपर, बचा लिए, कुछ भी नहीं बिगड़ा, प्रह्लाद का। जीवित बचकर फिर आ गया। फिर हिरणाकश्यप ने वही बात दोहराया कि भगवान का नाम मत ले। लेकिन प्रह्लाद भजन करते थे, फिर हिरणाकश्यप ने कहा ले जाकर इसे समुद्र में फेंक दो, उसके अनुचर सोता हुआ लेकर गए, समुद्र में फेक दिया। समुद्र में जब नीचे जाने लगा तो भगवान ने अपना हाथ लगाकर उठा लिया, फिर वहां से वापस आ गया, तो हिरणाकश्यप को लगा कि ये क्यों नही मर रहा? तो उसने और कड़ा उपाय किया, हाथियों के नीचे रखकर हाथियों से कुचलवाया, हाथी कुचलते गए लेकिन उसका कुछ नही बिगड़ा, भगवान की महिमा, वहां से भी बच गया। फिर हिरणाकश्यप ने सबसे कठोर एक और उपाय किया। उसकी एक बहन थी होलिका, जिसके नाम पर होली त्यौहार का नाम पड़ा हैं, उसको वरदान था कि, वो जिसको लेकर बैठ जाएगी वो नही जलती थी, और उसकी गोदी में बैठने वाला बालक कोई भी हो जल जाता था। प्रह्लाद को लेकर बैठ गईं बडी प्रसन्नता के साथ, होलिका ही जल गईं, प्रह्लाद बच गए। तब हिरणाकश्यप बड़े आश्चर्य में पड़ा कि लगता है, उस विष्णु की ही करामात है, जो हमारा दुश्मन हैं, निश्चित ही कुछ न कुछ रहस्य है इसमें। फिर स्वयं ही उसने एक उपाय किया कि देखते हैं, तुम्हारा भगवान तुम्हारी रक्षा कैसे करता हैं। अन्तिम उपाय उसने किया। वहा एक लोहे का खंभा था,उसको लाल तप्त करवाया, और कहा कि तुमको इस खंभे से बांधा जायेगा, हमारे सामने, और देखते है, भगवान तुमको कैसे बचाता हैं। खंभा लाल तप्त किया गया। प्रह्लाद छोटे बालक तो थे ही,पांच सात साल के, थोड़ा अदके, लेकिन उन्होने देखा कि उस खंभे पर चिटी चढ़ रहीं हैं, उतर रही हैं, भगवान ने उनको अपनी महिमा दिखाई। प्रह्लाद को दिखाई दिया, शायद हिरणाकश्यप को नहीं दिखाई दिया हो। प्रह्लाद ने जब देखा कि चिटी चढ़ रहीं है, उतर रही है, तो प्रसन्न हुए, अपने मन में सोचा कि जब ये अग्नी से तप्त खंभा इस चिटी का कुछ नही बिगाड़ पा रहा है, तो हमारा क्या बिगाड़ सकता हैं? प्रह्लाद को हिरणाकश्यप ने उस खंभे से बंधवाया। जैसे ही बांधा उनको,खंभे से, नरसिंह भगवान प्रकट हो गए,नरसिंह भगवान का जो शरीर था, नीचे का मनुष्य का था, और ऊपर सिंह का था, इसलिए उनका नाम नरसिंह पड़ा। हिरणाकश्यप को ये वरदान था कि, उसको कोई आदमी नहीं मार सकता, और जानवर भी नहीं मार सकता। तो ऐसी तीसरी रचना भगवान ने की, कि न वो आदमी हैं न जानवर है। दोनो को मिला कर एक रुप तैयार किया, जिसका नाम पड़ा नरसिंह। प्रकट होकर हिरणाकश्यप को अपनी जंघा पर रखकर, उसका अंत किया। फिर प्रह्लाद ने भगवान का दर्शन किया,और भगवान को प्राप्त किया।ये हैं कहानी, जो आप लोगो ने भागवत में सुनी होगी। कथाकारों से भी सुनी होंगी। कही न कहीं सुनी अवश्य होगी। ये घटना सतयुग की हैं। और इसी से संबंधित है ये होलिका उत्सव त्यौहार। होलिका जल गईं न, इसीलिए होली जलाई जाती हैं,ये कहानी हैं। जैसा आप जानते हैं कि शास्त्र दो दृष्टियों से रचा जाता हैं। ताकि ये लोकरीति कायम रहें, कि क्या हुआ, कैसे हुआ, किसने किया, क्या किया? कौन से ऋषि ने क्या किया, किस राजा ने क्या किया? ताकि यशोकीर्ति बनी रहें, और पीछेवाले लोग उनकी तरह शूरवीर बने, उनकी तरह नीतिवान बने। समाज में ढंग से जिया जा सके। ये तो हो गया किसी भी शास्त्र का बाहरी दृष्टिकोण, जिसको लोकरीति कहते हैं। दूसरा होता है, भीतरी दृष्टिकोण जिसे कहते हैं, बेद रीति। इसको यथार्थ कहते है, जो वास्तविक अर्थ हैं। तो लोकदृष्टी के हिसाब से और वास्तविक साधना के हिसाब से शास्त्र की रचना की जाती हैं। तो इसकी वास्तविकता क्या हैं? वास्तव में इस कहानी के माध्यम से ऋषियों ने हमारे लिए क्या प्रस्तुत किया? हम इससे क्या समझे? तो ये होलिका उत्सव इसलिए रखा गया, ताकि जब हम त्यौहार मनायेगे तो पीछे की कहानी भी सुनेंगे पढ़ेंगे, तभी तो ये पता चलेगा कि तब ऐसा हुआ था, इसलिए मना रहें हैं। लेकिन इसके आगे वाली बात बिना महात्माओं के समझ में नहीं आती। दुसरा पहलू होता है,अध्यात्म। अध्यात्म का अर्थ होता हैं, जैसा सभी लोग कहते हैं कि हम अध्यात्म से जुड़े हुए हैं। जो भी जिस संस्था से जुड़ा है, मंदिर से जुड़ा है,दान करता हैं, कहता है कि वो धार्मिक विचारधारा से जुड़े हैं, अध्यात्म से जुड़े हैं, अमुक व्यक्ति अध्यात्म से जुड़ा हैं। अध्यात्म शब्द हर जगह प्रचलित हैं, पर अध्यात्म का जो अर्थ हैं, वो सब लोग नही जानते। अध्यात्म बहुत गहरा हैं, और सब का सब क्रियात्मक हैं। अध्यात्म का अर्थ होता है, आधिपत्य में। सबलोग कहते हैं, भगवान की लीला है, सब श्रृष्टि भगवान चला रहे हैं। सम्पूर्ण श्रृष्टि, सम्पूर्ण जीव जगत किसके अधिपत्य में हैं? माया के आधिपत्य में। तुलसीदास जी कहतेँ हैं, फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा। हम सब किसकी प्रेरणा से काम करते हैं? माया से, बरबस प्रेरित होकर हम सब अपना, अपना काम करते हैं। माया कहा प्रेरणा करती हैं, दिखाई तो कहीं नहीं देती। वैसे तो सब कहते हैं, माया हैं, लेकिन माया दिखाई तो कहीं नहीं देती। माया को किसी ने पकड़ा हैं, टटोल कर किसी ने देखा है? लेकिन कहते अवश्य हैं कि, सब माया हैं। तो माया कहां प्रेरणा करती हैं? काल कर्म और स्वभाव में। काल माने परिवर्तन, कर्म माने जो कुछ कर्म हम करते हैं। स्वभाव माने तीनों गुणों का जो स्वभाव होता है। सत, रज तम, तीन गुण होते हैं। जब सतोगुण होगा, तो माया की प्रेरणा होगी, तो आप भजन करेंगे। ईश्वर की भक्ती करेंगे प्रह्लाद की तरह। जिसको विद्या माया कहते हैं। रजोगुण होगा तो भजन भक्ती करेंगे,मंदिरों में शिर्डी जायेंगे, कही और भी जायेंगे,कोई दान, करेगा, स्कूल खोलेगा, लेकिन बदले में चाहेगा, कि स्कूल पर मेरा नाम लिखा जाय। शिर्डी में धर्मशाला बना दिया, तो उसपर अपने परिवार के सात पीढ़ी तक का नाम लिखा देगा। दान पुण्य, धर्म करेगा, लेकिन अपना यश चाहेगा, तो रजोगुण के अंतर्गत रहेगा। पूजा पाठ, व्रत उपवास भी करेगा। लेकिन बदले में कुछ चाहिए तब करेंगे, नही तो नही करेगे। कुछ मिलेंगा तो मानेंगे भगवान में शक्ती हैं, नही तो कुछ नही हैं। ये रजोगुणी व्यक्ती हैं। ये माया का जो रजोगुण है, वो प्रेरणा कर रहा हैं। उसके वश में होकर व्यक्ती भटकता हैं। देवी देवताओं को पूजता है, कामनाओं के वश में होकर के कामनाओं की पूर्ति के लिए। सतोगुण होगा, तो तपस्यारत होगा। तमोगुण होगा तो मानेगा, भगवान नाम की कोई चीज नहीं हैं, भूत प्रेतो की पूजा करेगा। तमाम प्रकार के अनुष्ठान करेगा, दूसरो को कष्ट देने के लिए, तपस्या करेगा। ये सब तमोगुणी माया हैं। त्रिगुणमयी जो प्रकृति हैं,इसके द्वारा ही ये तीनों गुण हमारे सबके अंदर प्रेरणा करते हैं। इनके वश में होकर ही हमारा स्वभाव बनता हैं। हर व्यक्ती का स्वभाव है, देवी देवताओं की पूजा करना, कामना करना, भूत प्रेतो की पूजा। ये सब स्वभाव में ढल चुका हैं। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं, तीन तरह की श्रद्धा होती हैं। काल कर्म स्वभाव से प्रेरित होकर के माया से प्रेरित होकर के हम कर्म करते हैं। भगवान कुछ नही कराते। फिरत सदा माया कर प्रेरा। काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥ तो हिरणाकश्यप और हिरण्याक्ष की कहानी के शुरूआत पर हम आते हैं। वास्तव में कहां से शुरुआत होती हैं? हिरणाकश्यप का अर्थ क्या होता हैं? पहले इसको हम समझेंगे, माना कि कभी कोई असुर हुआ था, और घटना घटी थी। लेकिन हम उसको पढ़ ले सुन ले,तो हमे क्या मिलेगा? हम उसको पढ़ते रहें, त्यौहार मनाते रहें, रंगों के, और किचड़ो के अलावा कुछ भी नहीं मिलता। और कुछ समझ ही नहीं पाते कि क्या हैं? हिरणाकश्यप का अर्थ होता हैं, हिरण्य माने होता हैं,प्रकृति। हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् । वेदों में आया है। ये जो श्रृष्टि हैं, जिसको हम देखते हैं, आंखों से। इसको कहा गया हैं,हिरण्यगर्भ, और इसी को कहा गया हैं, त्रिगुणमयी प्रकृति। जिसके अधीन होकर जीव माया में भटकता रहता हैं, जन्म मृत्यु के चक्कर में। हिरणाकश्यप हिरण्याक्ष, का अर्थ होता है, अक्ष माने होता हैं, प्रकृतमयी दृष्टी, और अंकुश का मतलब होता हैं शूल, जैसे हाथी के ऊपर बैठता हैं, पिलवान, हाथी के मस्तिष्क पर जब शूल मारता हैं, तो हाथी उसके बस में रहता हैं। और हम लोग माया के वश में कब रहते हैं? जब सत, रज, तम तीन गुण है, और तीनों गुणों से उत्पन्न जो शूल है, दैहिक दैविक और भौतिक जो ताप हैं, इसी को त्रिशूल कहा गया हैं। ये शूल हमको मारता रहता हैं, कौन? माया। काल कर्म और स्वभाव से हम प्रेरित होते रहते हैं। और इसी संसार में जन्म लेते रहते हैं, मरते रहते हैं। तो हिरणअंकुश,प्रकृतमयी दृष्टी से जो हमको शूल जो कष्ट मिलता हैं। उसको कहते हैं, हिरणाकुश। जबतक हम प्रकृति में देखते रहेंगे, जबतक संसार के प्रति हमारा आकर्षण रहेगा, तबतक हमको संसार का शूल प्राप्त होता रहेगा। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम् | तबतक हमको दुख प्राप्त होता रहेगा। तो जो दुःख मिलता है, हमे प्रकृतमयी दृष्टी से, इसी शूल का ही नाम है, हिरणाकुश। मतलब बार बार इस प्रकृति से हमे कष्ट मिलता रहता हैं,जब प्रकृति के वश में होकर हम काम करते हैं। तो अब ये समाप्त कैसे हो? तपस्या तो कर रहा है, लेकिन वरदान मांग लेता हैं, कि कभी नहीं मरू। भगवान का सभी लोग भजन करते हैं, दुनियां मे, लेकिन सब कामना कर लेते हैं, कि इसी संसार में जन्म ले, और मन वांक्षित फल मिले। वस्तु मिल गईं, तो फिर नई कामना कर लेते हैं। और जब कामना किया हैं, तो फिर जन्म लेगा, फिर कभी मरेगा थोड़े ही। कभी मर सकता हैं व्यक्ति? नहीं,मरने के बाद फिर जन्म लेता हैं। माया मरी न मन मरा , मर -मर गए शरीर , आशा तृष्णा न मरी ,कह गए दास कबीर। तो शरीर मर मर के फिर उत्पन्न होता रहता हैं। पर आशा तृष्णा नही मरती है। यही हिरणाकश्यप का वरदान हैं। कि कभी न मरू, न दिन में न रात में। तो हमलोग पूजा पाठ तो करते हैं, भगवान की भक्ती भी करते, हैं, गुरू महाराज मिल गए तो उनकी भी भक्ती करेगें, लेकिन क्या करते हैं? बदले में चाहेंगे कि ये काम हो जाय।जब वो काम हो जायेगा तो फिर दूसरी इच्छा हो जायेगी, चाहेंगे कि अब ये काम हो जाय। मरते समय भी एक इच्छा रहती हैं। मरेंगे फिर जन्म लेंगे उस अधूरी इच्छा की लेकर के। फिर आगे कामना पीछा करेंगी। तो जन्म पर जन्म व्यक्ती लेता रहता हैं, लेकिन ये इच्छाएं उसका पिछा नहीं छोड़ती। कमानाओ के कारण जन्म लेता है। फिर जन्म लेकर कामना करता हैं। कामना क्यों करता हैं? क्योंकि उसका प्रकृति के प्रति आकर्षण हैं। भोगों के प्रति आकर्षण हैं। और ये आकर्षण क्या हैं? ये हिरणाकश्यप का ही छोटा भाई हिरण्याक्ष हैं। और हिरणाकुश क्या हैं? इस आकर्षण से जो हमे कष्ट मिलता हैं। किसी भी वस्तु के लिए मन चलायमान हो गया, और वस्तु मिल गईं, जैसे किसी ने बहुत अच्छा बंगला बना लिया, कार ले लिया फैक्ट्री खोल ली अब किसी ने केस कर दिया ऊपर से, वस्तु तो आ गईं लेकिन अब केस लड़ो फिर से परेशानी,तो ये शूल लगता ही रहता हैं , इसका नाम हिरणाकुश हैं। अब इन सब बिपत्ती से मनुष्य कैसे छूटे? उसके अंदर कौन सी ऐसी विभुति, गुण उत्पन्न हो, कि वो इनसे मुक्त हो जाय। तो जिस मन की दृष्टी, प्रकृतमयी हैं, उसी मन की दृष्टी भगवानमयी हो जाय। बस इतनी सी बात हैं, और कुछ नही है। जिस दृष्टी से हम संसार में संसार को देखते हैं। उसी दृष्टी से इस संसार में परमात्मा दिखाई देने लगे, तो संसार लुप्त हो गया, परमात्मा प्रकट हो गया। अब इसके लिए तपस्या करना पड़ेगा। तो पहले हिरणाकश्यप तपस्या करता था, तो वरदान मांगता था, कि कभी न मरू, न दिन मे न रात में ये उसकी तपस्या थी।अब इसका जो पुत्र हुआ प्रह्लाद, उसकी तपस्या दूसरे प्रकार की हैं। तपस्या दोनो ने भगवान की ही की है, प्रह्लाद भी और हिरणाकश्यप भी, लेकिन इनकी तपस्या अलग प्रकार की हैं।हिरणाकश्यप की तपस्या दूसरो को त्रास देने के लिए हैं,और प्रहलाद की दूसरे प्रकार की हैं। इस कहानी से आप को ये बाते समझने को मिलेगी कि दोनो तपस्या कर रहें हैं और उसी ईश्वर की कर रहे हैं, लेकिन एक त्रास दे रहा हैं, और दुसरा भगवान के भक्तो को मुक्त करा रहा हैं, भजन करा रहा हैं। प्रह्लाद की उत्पत्ति किस प्रकार हुई? जब कयाधु को इन्द्र ले जा रहा था, तो कयाधु, हिरणाकश्यप की पत्नी हैं। हमारी दृष्टी प्रकृतिमयी हैं, हम संसार में भोग विलास करते है,सबकुछ करते है, उधर ही हमारी दृष्टि है, संसार में ही हम कुछ न कुछ प्राप्त करना चाहते हैं, यही सबके पास हैं। लेकिन हर मनुष्य के पास एक ऐसी वृत्ति भी हैं, जो स्वतंत्र होना चाहती है, मुक्त होना चाहती हैं। और सच पूछिए तो संसार में जाने अनजाने में जो कुछ भी हम इकट्ठा करते हैं, मुक्त होने के लिए ही करते हैं।हर व्यक्ती के अंदर इच्छा होती हैं, कि ये हो जाय तो हमको शांती मिलेगी, लड़का पढ़ लेगा तो शांती मिलेगी, कर्ज मुक्त हो जायेगा तो शांती मिलेगी। सबकुछ शांती के लिए ही तो किया जा रहा हैं। पर सब काम होते जाते हैं, फिर भी शांती नहीं मिलती। तो जो प्रकृतिमयी दृष्टी हैं,अर्थात हिरणाकुश इसका जो काम हैं, तपस्या हैं, वो सब इसी में चली जा रही हैं। इसकी जो पत्नी है, वो कयाधु हैं। अर्थात् हमारे अंदर जो हमारी एक वृत्ति हैं,स्वतंत्र होनेवाली वृत्ति, मुक्त होनेवाली वृत्ति जो हर व्यक्ती के अंदर हैं, इसका नाम है कयाधु। बाल्मिकी एक समय में डाकू थे,चोरी करते थे। वही बाल्मिकी एक समय में भगवान हो गए। बाल्मिकी भए ब्रह्म समाना।
यदि ये स्वतन्त्र होनेवाली, मुक्त होनेवाली वृत्ति नही होती, तो वो तो असुर थे, कैसे देवता हो गए, कैसे महापुरुष हो गए? इसी स्वतंत्र वृत्ति का, इसी मुक्त होनेवाली वृत्ति का जो इसी शरीर में रहती हैं, उसी का नाम कयाधु हैं। अर्थात् कयाधु का अर्थ होता हैं, काया के अंतराल में वह वृत्ति जो द्वैत पर विजय प्राप्त करें।
द्वैत क्या हैं? हम अलग हैं, भगवान अलग हैं, इसी को द्वैत कहते हैं। इससे मुक्त होनेवाली जो वृत्ति हैं, वहीं कयाधु हैं। और यहीं वृत्ती हैं, हमारे आपके अंदर। तो व्यक्ती कैसा भी हो, कैसा भी आसुरी प्रवृत्ति वाला हो, कामना करनेवाला कैसा भी हो, जैसा कि प्रकृतमयी दृष्टी सबके पास हैं, लेकिन वो व्यक्ती महापुरुष के सेवा में भी आता हैं। जैसे कयाधु देवरिषि नारद के सेवा में गईं। और जब व्यक्ती महापुरुष की सेवा में आता हैं, जिसका प्रेम लगाव संसार से हैं, महापुरुष की सेवा भी करेगा, तो भी भगवान से अपने शरीर से संबंधित भोग ही मांगेगा। अपने शरीर से संबंधित इच्छाओं की पूर्ति ही करेगा। आजतक सभी महापुरुषों के सामने ऐसे ही लोग बहुत इकट्ठे हुए हैं, पंचानबे प्रतिशत।
दो पांच प्रतिशत बिरक्त होनेवाले लोग आते हैं, जिनको कुछ भी नही चाहिए। तो जब वो व्यक्ती महापुरुष की सेवा करने लगता हैं, उसी व्यक्ती के अन्तराल में उसी के चित्तवृत्ति में सेवा करने वाली वृत्ति में कौन प्रकट होता हैं?
परमात्मा के प्रति प्रेम, प्रकट होता हैं, परमात्मा के प्रति जो प्रेम हैं इसी का नाम हैं, प्रह्लाद।
भगवान शंकर कहते हैं, रामचरित मानस में,
हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
भगवान सर्वत्र समान रुप से व्याप्त है। शंकर जी कहते हैं कि वो प्रेम से प्रकट होते हैं। वहीं प्रेम कयाधु से जन्म लेगा, प्रह्लाद के रुप में, जो कि भगवान को प्रकट करेगा।
कहानी का अर्थ एक ही जैसा है, चाहें वो रामायण की कहानी हो, चाहें वो शंकर पार्वती की कहानी हो, सबके अंदर वही एक ही विद्या बताई गईं हैं। नाम अलग अलग हैं। तो प्रेम ही प्रह्लाद है। प्रेम कैसा, भगवान शंकर के जैसा।
भगवान शंकर से पार्वती ने पूछा,
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई
ये जो दिन रात राम जपते रहते हो, ये राम कौन हैं, राजा का लड़का या कोई परमात्मा। किसकी पूजा करते हों?
तो शंकर भगवान ने कहा नहीं ये कोई राजा का लड़का नही
जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान। सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।
ये कोई राजा का लड़का राम नही है, जिसका मैं ध्यान करता हू। ये मेरा इष्ट हैं।
तो इष्ट कहां रहना चाहिए? हमारा सबका इष्ट मंदिरों में रहता हैं। किसी का संस्थाओं में रहता हैं। शंकर जी का ईष्ट कहा रहता था। “
जो महेश मन मानस हंसा।।
उन्हीं के मन के अंतराल में वो राम रहता था, उसका प्रमाण भी शंकर जी ने दिया। जब सती परिक्षा लेने गईं,
तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना
जब शंकर जी ने भगवान का घ्यान किया, अपने हृदय में, तो सती ने क्या किया? सब जान लिया ।
जब सती मरकर पार्वती हुई, पार्वती ने प्रश्र किया कि राम कौन हैं। तब शंकर भगवान ने देखा कि इसका तो समाधान हो चुका हैं। फिर किसलिए पूछ रही हैं? तो शंकर जी ने फिर भगवान का ध्यान किया, फिर मालुम पड़ा कि दूसरे के हित के लिए प्रश्न किया हैं।
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रश्र जगत हित लागी ।
ध्यान से पता चल गया। तो भगवान शंकर का इष्ट था राम, वो इनके अंदर ही रहता था। हमारे सबके इष्ट बाहर रहते हैं। उसी को प्रेम किया भगवान शंकर ने और उसी को प्रकट किया। उसी की भक्ती में लीन रहते थे। राम तो भगवान थे ही, उनका भजन करने से शंकर भी भगवान हो गए। उनका भजन करने से हनुमान भी भगवान हो गए।
जपेउ पवन सुत पावन नामू ।अपने बस करि राखेउ रामु।।
जिन सबका प्रेम था भगवान के प्रति, ये सब प्रह्लाद थे। तो कहने का अर्थ ये है, कि प्रेम से परमात्मा प्रकट होता हैं। प्रह्लाद ने प्रेम किया और प्रकट किया। प्रेम कैसे किया?
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।*
दिन और रात राम का जप किया।
शंकर भगवान कहते हैं।
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी।
जिस राम नाम के बल से मैं काशी में मुक्ति देता हू। वही मेरा परमात्मा राम इष्ट हैं। ये हैं प्रेम, भक्त और भगवान का। जब किसी के अंदर प्रेम उत्पन्न होता है, तो इस तरह से उत्पन्न होता हैं। जैसा शंकर भगवान कहते हैं। इसी प्रेम को प्रह्लाद कहा गया। ऐसा हो प्रेम प्रह्लाद की तरह से, ऐसा ही प्रेम भरत का भगवान से था। भगवान जब चित्रकूट में थे, भरत मनाने गए। भगवान राम का चरण पादुका भरत जी लेकर आए। और भजन करने लगे तो,
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति। मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति
भगवान की चरण पादुकाओ का पूजा करते थे,घ्यान करते थे, और चरण पादुकाओ से आदेश मिलता था। तो भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि, जब भक्त का प्रेम होता है, भगवान से, तो भक्त ही भजन नही करता, भगवान भी भजन करते हैं। प्रेम का अर्थ ही ये हैं, कि जो कभी दिखाई देने वाली चीज से नही हो सकता। जो अव्यक्त हैं केवल उसी से प्रेम हो सकता हैं। जो दिखाई देनेवाला व्यक्ती है, या वस्तु हैं, उससे प्रेम होता हैं, तो उसका नाम मोह हैं। इसीलिए जो व्यक्ती दिखाई देता हैं, उससे हमारा प्रेम हैं, लगाव है, जब वो मर जाता हैं, तो हमे दुःख होता हैं। परमात्मा से यदि प्रेम हैं, वो अव्यक्त हैं, कभी नष्ट होता ही नही, कभी मरता ही नही हैं। प्रेम जो अविनाशी हैं, वहीं सत्य हैं। उसी प्रेम से परमात्मा प्रकट होता हैं। तो भगवान का आदेश मिलता था, ये भगवान का भजन हैं। और भरत जो भगवान का नाम जपते थे, ध्यान करते थे, ये भरत का भजना हो गया। राम का भजना क्या हैं? जो भरत को मार्गदर्शन कर रहे हैं। भरत क्या सोच रहे हैं, उनको क्या अवश्यकता हैं, जैसे ही वो चरण पादुकाओ का ध्यान किए भगवान उनको बता दीए, स्वप्न में कि आज ये करना हैं, कल ये करना है। ये भगवान का भजन हैं।
*भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।
ये हैं प्रेम भक्त का और भगवान का। भगवान भक्त का प्रेम कैसा होता हैं? कि भक्त भगवान का भजन करता हैं, और भगवान भक्त का करते हैं। दोनों एक दुसरे में समाहित रहते हैं। इसी प्रेम का नाम प्रह्लाद है।
जब प्रह्लाद हमारे अंदर प्रकट हो गया, तब जो हमारी बहिर्मुखी दृष्टी हैं, जो शूल देती हैं, दुःख देती हैं, जो संसार के प्रति आकर्षण हैं, जिसको समाप्त करने में कई ऋषि मुनियों की तपस्या ही भंग हो गईं। अंत में कितने सफल हुए कितने डूब गए। समाप्त नहीं कर पाए। विश्वामित्र इसी दृष्टी के कारण गिर गए, मेनका से विवाह कर लिए, बाहरी दृष्टी थी ,प्रकृतमयी दृष्टी इसी वजह से। पाराशर भी इसी में चले गए। इसलिए हिरणाकश्यप जल्दी मरनेवाला नही हैं,अमर हैं। परंतु जिसके अंदर प्रेम रूपी प्रह्लाद प्रकट हो गया, वो इसको समाप्त कर देगा। तो प्रेममयी वृत्ति ही प्रह्लाद हैं। हमारे अंदर जो प्रेम है, परमात्मा के प्रति, जिससे भगवान प्रकट होते हैं, उसी का नाम प्रह्लाद है। अब ये प्रेम प्रकट हो गया, साधना में हम लगे हुए हैं, फिर इस प्रेमी साधक के सामने, जो साधना करते समय बाधाए आती हैं, उन्हीं बाधाओं को इस कहानी में हिरणाकश्यप के द्वारा जो यातनाएं प्रह्लाद को दी गईं हैं, इस कहानी के माध्यम से बताया गया हैं। बाधाएं प्रह्लाद को ही आई ऐसी बात नहीं हैं। बाधाएं मीराबाई को भी आई, 400,साल पहले विष दिया गया। बाधाएं संत कबीर के सामने आई। उनके पीछे भी लोग लगे, भगवान बुद्ध के सामने आई। संत ज्ञानेश्वर के पिता को ब्राह्मण बनाने के लिए आत्महत्या करने कर पर मजबूर किया, फिर भी नही बनाया, भीख मांगनी पड़ी, और भीख भी नही दिया गया, तो ऐसा कौन सा महात्मा नही है, जिसके सामने बाधाएं नहीं आई।भगवान से प्रेम करने का मतलब ही है, काटो का मार्ग ।, ये फूलो का मार्ग नहीं हैं। तो उस प्रेमी साधक के मार्ग में कौन, कौन सी बाधाएं आती हैं? उसी का विवरण हैं,हिरणाकश्यप के द्वारा दी गईं प्रह्लाद को यातना। तो सबसे पहले उसने समझाया कि इसको ले जाकर के पहाड़ से गिरा दो। पहाड़ किसको कहते हैं? हनुमान जी जब लंका जाने के लिए समुद्र पार कर रहे थे, तो उनके सामने पर्वत आए। पर्वत से कोई मतलब नहीं हैं, लेकिन सामने आ गए आए बोले कि नही जाने देंगे।
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
हनुमान जी पैर से दबा देते थे, चला जाता था, नीचे। फिर मैनाक सोने का पर्वत था, आकर खड़ा हो गया, कि ज़रा विश्राम कर लीजिए फिर खोज कीजिएगा। तो हनुमान जी बोले,
राम काज किन्हें बिना मोहि कहा विश्राम।।
हनुमान जी ने छुआ बोला कि भाई पहले मैं अपना काम कर लूं। तब आकर तुम्हारे ऊपर विश्राम करुंगा। पर्वत से गिराने का अर्थ हैं,
गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला ॥
कौन से दुर्गम शैल है, जो हमको संसार में डूबा सकते हैं, जो साधक को साधना से च्युत करके गिरा सकते हैं? गृह कारज, नाना जंजाला, जिस घर को छोड़ा है, वापस उधर की तरफ मुड़ जाय। तो फिर सबकुछ छूट जाएगा, डूब जाएगा। अर्थात् किसी न किसी सांसारिक कार्य में ग्रसित हो जाय। केवल घर जाने से ही मतलब नहीं हैं। साधु बन जाने के बाद भीं कोई दवाई बेच रहा है, तो कोई स्कूल बना रहा हैं। ये अब भी गृहस्थी है। आकर के भी उलझ गए। तो प्रह्लाद को पर्वत से गिराया गया, लेकिन भगवान ने बचा लिया। क्यों बचा लिया? क्योंकि प्रेम ही प्रह्लाद हैं। समर्पित भक्त, जिसे परमात्मा से प्रेम है, वो बच जायेगा।
प्रेम का अर्थ हमने बताया कि जब साधक भजन करता हैं, तो भगवान भी उसका भजन करते हैं, इसका नाम प्रेम हैं। प्रेम का अर्थ ये नही कि मन्दिर में तमाम लोग जाते है, माताएं जाती हैं, नौ नौ दिन व्रत करेंगी, आसू झरने लगेगी, ओर इसके बाद इच्छा पुरी नही हुई, तो अश्रद्धा हो गई देवी से, कोई मतलब नहीं देवी से,सारा प्रेम समाप्त। यही स्थिती सबकी है, मंदिरों में जायेगे लोग, बड़ी बड़ी यात्राएं करेंगे, आंसू झरते रहेगें, कामना पूरी नही हुई तो यात्रा बंद, जिसके यहां जा रहे होते है वो भी बंद, बोलेंगे ये भी कुछ नहीं,फिर दूसरी जगह जायेंगे। तो ये प्रेम आप लोगों ने देखा हैं। लेकिन भक्त का प्रेम कैसा हैं? आंसू आए चाहें नहीं आए, भगवान का भजन कर रहा है, सुमिरन कर रहा हैं, ना जाने संसार। तो भगवान उसको जो बताते हैं, वो उस भक्त के प्रति भगवान का प्रेम हैं। और भक्त जो नाम का सुमिरन कर रहा है, भजन कर रहा हैं, ये भक्त का भगवान के प्रति प्रेम हैं। तो नाम जप और ध्यान, अर्थात् नाम का जप, ॐ का जप पूर्व के ऋषियों ने जपा है, ओ मतलब वह परमात्मा अहम मतलब आप स्वयं, के अंदर हैं, इसलिए उसका नाम ॐ हैं। जिसने नाम का जप करके उस ईश्वर को जान लिया हैं, उस महापुरुष का रुप भगवान का रुप हैं। जानत तुमही तुमहि होई जाई, बाल्मिक भए ब्रह्म समाना, तो जो महापुरुष शरीर से जीवित हैं, संसार में, वे भगवान के रुप हैं। नाम किसका जपना हैं? ॐ या राम का, रुप किसका देखना है? जो समाज में महापुरुष इस समय जीवित शरीर में हैं, जिनको हम आंखों से देख सकते हैं, और जो प्रतक्ष्यदर्शी हैं, भगवान ने जिस पर हमारा विश्वास दृढ़ किया हैं, उनका रुप भगवान का रुप हैं। इसी नाम और रुप की साधना की जाती हैं, इसी में मन को लगाया जाता हैं। तो पर्वत से गिराना मतलब घर द्वार छोड़ा फिर किसी न किसी काम में उलझ गए। कोई संस्था खोल लिए, और कुछ खोल लिए चले गए,कही फस गए, पहले गियर में ही फस गए आगे बढ़ ही नही पाए, लेकिन यदि प्रेम है, तो भगवान उसे बताएंगे कि तुम उलझ चुके हों, तुम इसका त्याग करो, तुरंत साधक भक्त उसको छोड़ देगा। फिर आगे बढ़ेगा। तो प्रहलाद पर्वत से गिरे लेकिन भगवान ने उन्हें बचा लिया, मरे नहीं, फिर लौट कर आ गए, अर्थात् फिर अपनी साधना में लग गया साधक, उसी प्रेम के साथ। तो ऐसा नहीं हैं कि बाधाएं एक आ गईं फिर साधना समाप्त। लगातार परीक्षाएं होती हैं। जो प्रेमी साधक जितने उत्साह के साथ साधना करता हैं, उसकी परीक्षा भी उतनी कड़ी की जाती हैं। क्योंकि विभूति भी उसको उतनी तगड़ी मिलती हैं। इसलिए जैसी साधना करता हैं, साधक वैसी ही उसकी परीक्षा होती हैं। तो भगवान की तरफ़ से जब दुसरी परीक्षा आई, उनकी प्रेरणा से जब दूसरा व्यवधान आया, तो हिरणाकश्यप ने अपने अनुचरों से कहा कि इसको समुद्र में ले जाकर डूबा दो, अनुचरों ने ले जाकर डूबा दिया, लेकिन प्रह्लाद वहां से भी बचकर चले आएं।समुद्र में ले जाकर डुबाना क्या हैं?
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते।
जो भवसिंधु हैं, उसी को समुद्र कहते हैं। समुद्र क्या है, एक एक बूंद मिलकर समुद्र बनता हैं। एक एक बूंद क्या हैं? एक एक कण हैं, और अनन्त कण मिलकर अनंत जल की राशी हैं, जो समुद्र कहलाती हैं।
तो भव क्या हैं? भव माने शरीर। अब एक व्यक्ती के कितने शरीर हैं? कोई गिन सकता हैं, कब से हम जन्म लेते चले आ रहे हैं? किस किस योनि में जन्म लिए, कोई लेखा जोखा हैं? किसी के पास नही हैं। कब तक यात्रा चलेगी, कितने शरीर मिलेंगे? किसी का लेखा जोखा किसी के पास हैं? नहीं हैं। इसीलिए भव प्रवाह इसी को कहा गया। भवसिंधु अगाध कहा गया, भवसरिता इसको कहा गया, भवकूप कहा गया। चार उपमा तुलसीदास जी के द्वारा दिया गया। एक तो भवसिंधु अगाध, जब भवसिंधु हैं, तो वो अगाध हैं। फिर रामकथा भवसरिता तरनी। वो अगाध सिंधु छोटा हो गया। जब भजन करने लग गया साधक तो भवसारिता बन गया। और भजन किया तो भवकुप बन गया। और चित्त संयमित हुआ संसार से मन सिमट गया।
तो गो पद सिंधु अनल शीतलाई। गाय का जो खुर होता हैं, बरसात में उसमें जितना पानी होता हैं, उसके बराबर हो गया। लेकिन इसके भी आगे जब गया, तो,
नाम लेत भव सिंधु सुखाही, करहु बिचार सुजन मन माही ।।
ये है, भवसिंधु। तो जो प्रेमी साधक हैं भक्त प्रहलाद, उसको जब फेका गया समुद्र में, भगवान ने वहां से भी बचा लिया। भजन करते करते, जब साधक का प्रेम हैं, नाम जप और ध्यान कर रहा है, तब सब सही हैं। लेकिन कभी न कभी जब नाम जप और ध्यान से जब मन उचट जाता हैं। क्यों उचटता हैं?हिरणाकश्यप की प्रेरणा से।
हिरण्य माने प्रकृति होता हैं। जब हमारा ध्यान संसार में किसी वस्तु किसी व्यक्ति, किसी पुरूष कही लग जाता हैं, नाम और रुप को छोड़कर बाहर कहीं लग गया,मकान दुकान कही भी लग गया। एक दो बार सोचा तो कुछ नही लेकिन जब साधक सोचने लग गया, सोचते सोचते घंटो संसार का चिन्तन करने लग गया तो चला गया नीचे समुद्र की तलहटी में। अब वहां से कौन बचायेगा? भगवान।
भगवान माने कोई आकाश में रहनेवाला नहीं। यही गुरू महाराज जिसका हम घ्यान करते हैं। इन्हीं का स्वरूप प्रेरणा करेगा कि घंटो चिन्तन में लगे हो, स्वप्न के द्वारा अंग स्पंदन के द्वारा, भगवान बताएंगे, कि कहा चले गए? कहां भटक गया चित्त? महीनों चिन्तन चल रहा हैं, कभी, तो चला गया समुद्र के अंदर। लेकिन भगवान प्रेरणा कर रहे हैं,धीरे धीरे अपने चित्त को साधक वहां से निकालकर पुनः ध्यानस्थ कर लिया। अपनी जगह पर ले आया। कब? जब हमारे अंदर प्रेम हैं तब।प्रेम का अर्थ हम पहले ही बता चुके हैं, प्रेम का मात्र एक ही अर्ध हैं कि, जिसको भगवान बताएं। भगवान के प्रति प्रेम का केवल एक ही अर्थ हो सकता है, कि जिसे प्रेरणा करके भगवान बताएं, उसी को भगवान के प्रति प्रेम कहेंगे। ऐसा नहीं हैं कि कोई भी प्रेमी हैं, जैसा बाहर देखते हैं, वो सब नही। भगवान जिसको बता रहे हैं, उसी का नाम प्रेम हैं। ऐसा जिसके पास प्रेम हैं, तो ईश्वर की प्रेरणा भीतर से मिलेगी। तो संसार का चिन्तन आयेगा, हो सकता हैं कि साधक घंटो डूब जाय। ऐसा भी हो सकता हैं कि महीनो कोई संस्कार पीछा करे, और संसार का चिन्तन चलता रहे। ये भी संभव हैं, ऐसा भी हो सकता हैं। लेकिन इस परिस्थिती में भी प्रेमी हताश नहीं होता हैं।
मन जाए तो जान दे, दृढ़ कर राखी शरीर।
कितना मन भागेगा,भगवान बताते रहते हैं, धीरे धीरे साधक उसका भी त्याग करता हैं, फिर पुनः संसार के चिन्तन में लगता हैं। तो इस तरह से समुद्र में से भीं भगवान उसको निकालकर ले आए। आगे भी क्रमबद्ध तरीके से एक से एक कठिन परीक्षाएं होती हैं। अब प्रह्लाद को हाथियों से कुचलवाया गया,हिरणाकश्यप के द्वारा। तो हिरणाकुश का अर्थ हैं कि जो हमारी बहिर्मुखी दृष्टी हैं, जब तक हम बाहर देखते रहेंगे बाधाएं आती रहेगी।
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई।
जब सुमिरन और भजन नहीं होता उसी क्षण विपत्ति हैं। तो हाथीयों से कुचलवाने का क्या अर्थ हैं? वास्तव में,
मन करि विषय अनल बन जरई। होइ सुखी जौ एहिं सर परई।
तुलसीदास जी कहते हैं कि यह मन रूपी हाथी विषय रुपी बन में जल रहा हैं। कब सुखी होगा? जब रामचरित मानस के अनुसार भजन करने लगे, तो मन रूपी हाथी सुखी हो जायेगा। तो हाथी का अर्थ होता हैं, कामनायें। कामना दो प्रकार की होती हैं। एक तो
अनंत प्रकार की कामनायें होती हैं, दुसरी होती हैं, काम वासना। स्त्री और पुरुष के प्रति जो आकर्षण हैं,उसका नाम हैं काम। यहां पर विशेष रुप से काम को ही हाथी रूप में बताया गया है। जितने भी ऋषि इस धरती पर हुए इस काम ने सबकी परीक्षा ली। पारासर ने दिन को रात कर दिए। इतनी सिद्धि पा लिए थे कि, जब नाव में बैठे, केवट की लड़की सत्यवती थी उनके साथ, जो बहुत सुन्दर थी, उसके शरीर से सुगन्ध आती थी, पारासर देखे, तो मोहित हो गए बोले कि नाव चलाओ। उस पार कर दिया तो बोले दूसरे पार ले चलो, उस पार से इस पार करते रहे पूरा दिन, मोहित हो देखते देखते, तो सत्यवती ने कहा दिन हैं, लोग देखेंगे, तो क्या किए पारासर ऋषि अपने सिद्धी से कुहरा कर दिए। और फिर उसी पारासर ऋषि से उसी काल में ब्यास पैदा हुए। पारासर की तपस्या नष्ट हो गईं, इसी काम के कारण। अनेक ऋषि इसी काम में जाकर डूब गए, हाथियों ने कुचल दिया। वही घटना प्रह्लाद के साथ घट रही हैं, और वहीं घटना प्रत्येक साधक के सामने तपस्या काल में आती हैं। महात्मा बुद्ध के सामने जब सात साल तक तपस्या करके अन्तिम चरण में पहुंच गए, प्राप्ती होने के करीब थे, तो अनेकों सुंदर स्त्रियां उनके महल में उनके पिता ने जो रख दी थी, सबके साथ रहते थे, बाहर निकलते ही नही थे, तो उनको उस समय जब राजमहल मे बिहार करते थे, अन्तिम चरण में वही दृश्य आकर इस समय आकाश में दिखने लगा। उसी तरह की वासना मन में आने लगी, लेकिन ध्यानस्थ थे, परम् तपस्वी थे, जब मन पुरी वेग से बाहर निकलने का प्रयास करने लगा, घ्यान को छोड़ने की स्थिती में आ गया, तो उन्होने अपने चरणो के दाएं बाएं अंगूठे को दो तीन दिन तक देखते रह गए, ताकि कुछ और न दिखाई पड़े। दो तीन के बाद वो सारा दृश्य समाप्त हुआ। तो बुद्धिष्ठो ने लिखा हैं कि महात्मा बुद्ध की मार पर विजय। उन्होंने काम को मार कहा हैं। जहां तहां बुद्ध के मंदिरों में आप देखेंगे कि बुद्ध ध्यान में बैठे हैं, उनके आस पास चारो तरफ़ सुंदर स्त्रियां लिपटे हुए हैं, कही कही साप लिपटे हुए दिखाई देते हैं, ऐसा चित्र वो लोग मंदिर में रखे हैं । इसका अर्थ ये है कि ये सब वासनाएं अंतिम चरण में उनके सामने भी प्रकट हुए। क्योंकि कोई भी विकार जब समाप्त होने वाला होता हैं, तो अपने पुरे वेग से आता हैं। ठीक इसी तरह से काम जब मुक्त होने की स्थिती में होता हैं, समाप्त होने के स्थिती में होता हैं। तब पूर्ण वेग से साधक के सामने हाजिर होता हैं, कि ये भी देखो, ये भी देखो, किसी से भी तो मन चलायमान होगा। विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे, अच्छी तपस्या कर रहें थे, मेनका गईं, तपस्या भंग हो गईं। तो ये काम का उद्वेग हैं। जब सामने आया, साधक चलायमान हो गया। ये किसकी प्रेरणा हैं? वहीं प्रकृतमयी दृष्टी का। जब हम बाहर देखेंगे ही नही, तो भीतर वासना पैदा हो ही नही सकती। बाहर देखते हैं, तो भीतर से वासना पैदा हो जायेगी। तो ये हिरणाकश्यप की ही प्रेरणा हैं, प्रह्लाद को दिया गया कष्ट। प्रेमी साधक के सामने ये काम पूरे वेग से आता हैं।
तो कई ऋषियों की बात हमने बताई, कि किसके सामने कैसे विकार आया। कहने का अर्थ ये है कि, हमारे सबके अंदर ये विकार हैं। जिस दिन से हम इस मार्ग पर चलेंगे, उस दिन से ये हमारे सामने आ जायेंगे। ये सब हाजिर होंगे। वही बात यहां बताई गईं हैं। तो भगवान की प्रेरणा से इससे भी प्रह्लाद बच गए। रामचरित मानस में आप देखेंगे, मेघनाथ रावण की सेना का सबसे शक्तिशाली योद्धा हैं। और हनुमान जी राम जी के दल के सबसे शक्तिशाली योद्धा। मेघनाथ ने पांच बार लड़ाई किया, रामायण में। तो वास्तव में यही है,कामरूपी मेघनाथ। पुरूष साधन में लगता हैं, तो उसे स्त्री के प्रति खिंचाव होता हैं, आकर्षण होता हैं,और स्त्री साधना में लगती हैं, तो उसे पुरुषो के प्रति आकर्षण, खिंचाव होता हैं। ये बहुत प्रबल शत्रु हैं। ये समझो कि जो इससे बच गया, वो चाहे तपस्या किया या नही किया वो साधु हैं, लगभग समाज के लिए तो साधु ही हैं।
इससे जो बच गया वो निकल गया। तो ऐसा नहीं कि पुरूष के लिए बाधा हैं, दोनो एक दुसरे के लिए बाधा हैं, और दोनो बाधा नहीं भी हैं। मन और चित्तवृत्ति में अगर बस गया, तभी बाधा उत्पन्न होती हैं,चित्तवृत्ती में। हम किसी वासना का चिन्तन करने लगे तो वो कल्पना में आयेगी, फिर बाहर प्रकट हो जायेगी,और जहां दिखाई दिया साधक चल देता हैं। इसी को कहते है काम रूपी हाथी। जब इसका चिन्तन साधक के चित्त में आ जाता हैं, तो इसी को कहते हैं, हाथी से कुचलना, वो दबाने लगता हैं। जो नाम जप था और ध्यान था, वो छूटने लगता हैं। और वासनाओं का चिन्तन चित्त पर भारी पड़ने लगता हैं। लेकिन यदि समर्पित हैं साधक तो भगवान बताएंगे कि चिंता मत करों,डटे रहो। चाहें जो भी आए डटे रहो, भागों मत,आश्रम छोड़ कर मत जाओ, धीरे धीरे सही जम जायेगा सब।
मन जाए तो जाने दे, दृढ़ कर राख शरीर।
यहां पर महापुरुष इस बात को बताते हैं, कि धीरे धीरे काम से साधक छूट जाता हैं। काम से ऊपर उठ गया, वासनाओं का प्रवाह थम गया, शान्त हो गया। इसके पश्चात अन्तिम उपाय हिरणाकुश ने किया, अपनी बहन होलिका को कहा कि तुम प्रह्लाद को गोद में लेकर बैठ जाओ, होलिका उसको लेकर बैठ गईं, लेकिन होलिका ही जल गईं, प्रह्लाद नही जले।
तो ये होलिका क्या हैं? वास्तव में जितनी बाधाएं अभी तक आयी, उन सबका जो सामूहिक रुप हैं, उन सबकी जननी हैं होलिका। यहां महर्षि पतंजलि ने,
तस्य हेतुरविद्या
द्रष्टा दृश्य संयोग की बात बताई। विकारों की बात बताई। उन्होंने कहा मनुष्य भजन क्यों करता हैं? दूसरे शब्दों में रामायण में राम का अवतार क्यों हुआ? आप इस पर विचार करें।
राम का अवतार रावण के लिए हुआ। यदि रावण नही है, तो राम भी नहीं है, रावण हैं, इसलिए राम को अवतार लेना पड़ता हैं, उसको मारने के लिए,अविद्या हैं हमारे अंदर इसलिए विद्या की अवश्यकता पड़ती हैं,तो संपूर्ण विकारों का जो मूल कारण है।
महर्षि पतंजलि ने कहा,
तस्य हेतुरविद्या
सबका जो मूल कारण है, वो अविद्या हैं। विकारों का सूत्र बताया उन्होने कि, जो विकार हैं, काम क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष वो चार अवस्थाओं में काम करता हैं। प्रसुप्त तनु,विछिन्न और उदार। प्रसुप्त रहता हैं पहले, फिर तनु होता हैं, जैसे काम क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष सबके अंदर है, बच्चे के अंदर भी हैं, लेकिन सब सोए हुए हैं, दिखाई देते हैं? एकदम नहीं,लेकिन वही बच्चा जब 18 साल का हो जाता हैं, सब विकार अपने अपने जगह स्थान ले लेते हैं। काम अपनी जगह, क्रोध अपनी जगह, लोभ अपनी जगह। तो जो प्रसुप्त थे, धीरे धीरे प्रकट होने लगते है। और जब व्यक्ती युवा हो जाता हैं, तो सब विकार पूरी तरह से काम करने लगते हैं, जब पूरी तरह से काम करते हैं,तो बिछिन्न अवस्था में होते हैं। ये तो हम बाहर का बता रहें हैं, जो मनुष्यों के अंदर होता हैं।
लेकिन साधक के अंदर इस तरह से नहीं होता। साधक जब भजन कर रहा हैं, तो जब विकार प्रसुप्त है, तो उसका मन नाम में रुप में शांती से लगा हुआ हैं। लेकिन प्रसुप्त विकार जब प्रकट होता है, मन में धीरे धीरे तो छोटा सा रुप लेता हैं।
मन में छोटा सा रुप कैसे लेता है? जैसे कोई भी व्यक्ति किसी भी वस्तु को या किसी भी स्त्री पुरूष को एक बार देख लेगा, एक बार आंखों के सामने से गुजर गया तो कोई बात नही। अगर असंग शक्ती हैं, वैराग्य हैं, तो कोई बात नही, दुनियां गुजरती रहती हैं। लेकिन अगर वही साधक, स्वरूप पकड़कर अपने चित्त में चिन्तन करने लगता हैं, और अगर उसको अपने चित्त का विषय बना लिया, तो वही वासना बीज बन गईं। अभी पेड़ नहीं बनी हैं। लेकिन यदि चिंतन छोड़ ही नही रहा है, बराबर चिन्तन कर रहा हैं, लगातार चिन्तन करने लग गया, तो वो बीज अंकुरित होने लगता हैं। और अंकुरित होने पर भी समाप्त किया जा सकता हैं।
प्रसुप्त क्या हैं?बीज होना,तनु अवस्था क्या हैं? बीज से अंकुरित होना। और जब पेड़ बनने लग गया, तो विछिन्न अवस्था हैं। जब कोई विकार पूर्ण रूप से चित्त में कार्य कर रहा होता हैं। जैसे आप को क्रोध आ गया किसी भी बात पर, उस परिस्थिती में उस घड़ी में किसी से प्रेम उत्पन्न नहीं हो सकता। जब क्रोध है, तो क्रोध ही अपना काम करेगा चित्त में। फिर वासना भी नही आयेगा, कुछ नही आयेगा, लेकिन जब मन में वासना काम करने लग गईं, तब क्रोध नही आयेगी, पिघलने लगोगे, बर्फ की तरह। तब ये विछिन्न अवस्था हैं। किसकी? वासना की,राग की, काम की।
और क्रोध की विछिन्न अवस्था क्या हैं?जब क्रोध कार्य कर रहा हैं, तो किसी से प्रेम नहीं हो सकता हैं। इस तरह से विछिन्न अवस्था विकार की तब होती है? जब वह कार्य कर रहा होता हैं। और चौथी अवस्था हैं, उदार अवस्था। जैसा आप लोग कहते हैं कि भाई वो बहुत उदार हैं, उसने छोड़ दिया। इतनी जगह निकलती थीं, लेकिन छोड़ दिया। यही उदारता हैं, बाहर उदार शब्द का ये मतलब हैं। भीतर उदार क्या होता हैं? जब कोई विकार साधक की आत्मा को अपने से मुक्त करता हैं, तब वो उदार अवस्था में होता हैं। जैसे हमारे अंदर काम हैं, क्रोध हैं, वासनाएं हैं, चिन्तन चल रहा है, सालों तपस्या करते बीत गईं, अन्तिम अवस्था में क्या होता है? वो उदार अवस्था में होता हैं, विकार। जब साधक मुक्त होने की स्थिती में होता हैं, तब विकार पूरी तरह से कार्य करके समाप्त होने के स्थिती में होता है। जब विकार समाप्त होने की स्थिती में होता हैं तब वह उदार अवस्था में होता हैं। इस समय वह मुक्त कर रहा हैं,किसको? आत्मा को। उसकी यही उदारता हैं, कि आत्मा को अपने से मुक्त कर रहा हैं। उदार अवस्था में पहुंचकर साधक विकारों से मुक्त हो जाता हैं। सभी विकारों की जननी कौन है? अविद्या।
“अविद्या क्षेत्रमुत्तरेषां
प्रसुप्ततनुविच्छिन्नोदाराणाम्”
चार अवस्थाओं में जो विकार कार्य करता है, तपस्या काल में, इन चारों विकारों की जननी क्या हैं? अविद्या हैं। और इसी अविद्या को होलिका कहते हैं। ये होलिका जो हिरणाकश्यप की बहन है, यही अविद्या हैं। और अविद्या की परिभाषा किया महर्षि पतंजलि ने कि अविद्या क्या हैं? अनात्म असत्य और सुख। दुख हैं,लेकिन हम उसको सुख मानते हैं। दुःख को सुख मानना अविद्या हैं। शरीर हैं, हमारा जो कि नष्ट होनेवाला हैं,जोकि असत्य हैं लेकिन हम इसको सत्य मानते हैं, ये भी अविद्या हैं। अनात्मा को आत्मा मानते हैं, अर्थात् शरीर को आत्मा मानते हैं, आत्मा की कोई खबर नहीं हैं। बातें आत्मा की करते हैं, आत्मा अविनाशी है,आत्मा मरती नही हैं, लेकिन शरीर में कोई धक्का मार दिया तो तुरन्त क्रोध आ जायेगा, केस चल जाता हैं। बाते आत्मा की लेकिन संबध शरीर से हैं। दृष्टी पूरी शरीर पर केंद्रित हैं, और शास्त्रों में पढ़ते हैं आत्मा,सुनते हैं, आत्मा कथा के द्वारा। आत्मा की कोई खबर नहीं, नब्बे प्रतिशत शरीर छाया हुआ है चित्त पर। तो अनात्मा को आत्मा हमने मान रखा हैं। और जो वास्तविक सुख हैं, उसका पता नहीं हैं, लेकिन दुःख को सुख मान रखा हैं। वास्तव में इंद्रिय और विषयो के संयोग उस भोगकाल में तो अच्छा लगता है, वह सुख, लेकिन परिणाम में दुख हैं। और इसी सुख को हम सुख मानते हैं। तो अविद्या का अर्थ होता है, अनात्मा को आत्मा मानना। और दुःख को सुख मानना। अहित को हित मानना असत्य को सत्य मानना। ये अविद्या हैं। ये सारी अविद्या की प्रक्रिया कहां से शुरु होती हैं? स्वयं हमारे शरीर से। हम अपने शरीर को सबसे पहले सत्य मानते हैं। शूरू से अंत तक की योजना बनाते हैं। जब बड़े होंगे तो हमे पढ़कर क्या बनना हैं। जीवन भर का पूरा चार्ट बना लेते है। कई बार तो ऐसा होता हैं कि बिगाड़कर के फिर से दुसरी योजना बनाते हैं। कितने लोग तो योजना बनाते ही रह जाते हैं, कार्य कर ही नही पाते।
ये किसके कारण हैं, ऐसा क्यों हो रहा है? क्योंकी हमने शरीर को सत्य माना है,जो कि स्थाई है ही नहीं।
शरीर सत्य है कि नहीं? इसको हम देखना चाहेंगे। तो वास्तव में शरीर कैसे असत्य हैं? जैसे कि हम जन्म लिए फिर बड़े हुए, जवान हुए, प्रौढ़ हुए फिर बृद्ध हुए, अगर ये शरीर सत्य हैं, तो बचपन से जवान कैसे हो गया, और अगर सत्य है, तो जवान से बृद्घ कैसे हो गया? ये जो निरंतर परिवर्तन हो रहा हैं, इसको भी हम देख रहे हैं। फिर भी हम इसको सत्य मानते हैं, इसका ही नाम अविद्या हैं। तो इसको सत्य मानना और इसी इच्छापूर्ती के लिए प्रयासरत रहना, इसको अविद्या कहते हैं, और इसी से सारे विकार उत्पन्न होते हैं। शरीर की इच्छा की पूर्ती के लिए हम चलते हैं, कामना पूर्ती के लिए चलते हैं, व्यवधान आ गया, तो क्रोध पैदा हो गया, और इच्छा की पूर्ती हो गईं तो लोभ पैदा हो गया। संपूर्ण विकारों की जननी ये अविद्या हैं। अविद्या का अर्थ है, असत्य को सत्य मानना। और जो स्थूल वस्तुएं आंखो से दिखाई देती हैं, उसको हमने सत्य मान रखा हैं। ये अविद्या हैं, और इसी से सारे विकार उत्पन्न होते हैं। ये होलिका (अविद्या) हिरणाकश्यप की बहन है। जब हमारी दृष्टी प्रकृतमयी हैं, तो हमारी वृत्ति प्रकृति में से प्रकृति को ही सत्य मानेगी, जब हमारी दृष्टी शरीर पर ही केंद्रित हैं,तो शरीर को ही सत्य मानेगी। सत्य मानकर उसके लिए प्रयासरत रहेगी। तो होलिका ने किसका आज्ञा पालन किया हिरणाकश्यप, का। और प्रह्लाद को लेकर बैठ गई और जल गईं। तो होलिका का अर्थ होता है, असत्य को सत्य मानना, होलिका जला देती थीं,तो ये कौन सा अग्नि पैदा करती है हमारे अंदर? वास्तव में अग्नी दो प्रकार की हैं। एक योग रुपी अग्नी दूसरा विषय रूपी अग्नि।,मन कर विषय अनल बन जरही, पहले जो आया विषय रूपी अग्नि। अग्नी का मतलब होता हैं, तेज़। विषय रूपी अग्नि का क्या मतलब हो सकता हैं। विषय रूपी अग्नी का मतलब होता हैं,
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग। भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥
दीपशिखा जो होता हैं, दीपक को जब जलाते हैं, तो ऊपर जो लौ उठती हैं, उसे शिखा कहा जाता हैं। तो तुलसीदास जी उपमा दे रहे हैं, साधक के लिए बताते हैं, कि जो युवती का तन है, वो दीपशिखा के समान हैं। युवती का मतलब स्त्री नही हैं यहां पर।
हमारी जो चित्तवृत्ति हैं, जब किसी विष्ठय को लेकर चंचल हो गई, जैसे कि मैंने बताया कि, किसी विकार को लेकर जब मन चिन्तन करने लगा, तो वो जवान होने लगता हैं, उस विकार की शक्ती उसमे आने लगती हैं। तपस्या की जो उर्जा हैं, वो विकार के चिन्तन में खर्च होकर के, विकार मजबूत होने लगता हैं, चित्त पर भारी पड़ने लगता हैं। तो वो युवती होती जा रही है। कौन? चित्तवृत्ति। तो तुलसीदास जी कहते हैं,कि हे मन पतंगा मत बन। जितना वासनाओ का चिन्तन करेगा, उतना ही जलता जायेगा, तू विषय में।
विषयों के चिन्तन से बच। कैसे बचें?भजहि राम तजि काम मद, इस कामना का त्याग करो, जिसका चिन्तन कर रहे हो। जिस युवती का चिन्तन कर रहे हो, इसका त्याग करो, और राम का भजन करो।
कैसे? करहू सदा सत्संग। एक सेकेंड के लिए भी, सत्य को मत छोड़ो, नाम रुप को मत छोड़ो, निरन्तर लगे रहो। ये हैं, राम का भजन। यदि किसी विषय के चिन्तन में लग गए तो विषय रूपी अग्नि प्रज्वलित हो गई। पहले शरीर के अंदर, फिर मन के अंदर फिर आत्मा के अंदर।
*बिषई जीव पाइ प्रभुताई।
पापवंत कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।*
अनेक उदाहरण दिया, तुलसीदास जी ने। जब विषयों का चिन्तन तेजी पकड़ लेता हैं, तो उसे विषय रूपी अग्नि कहते हैं। कब तेजी पकड़ता हैं,जब अविद्या हमारे अंदर कार्य करती हैं, तब। अविद्या कब काम करती हैं,जब हमारी दृष्टी बहिर्मुखी होती है, प्रकृतमयी होती हैं, जब शूल देनेवाली होती हैं, तो अविद्या काम करती हैं। तो ये विषय रूपी अग्नि, अविद्याजनित अग्नी इसको होलिका कहा गया हैं। दुसरी तरफ क्या हैं? योगरूपी अग्नी, ज्ञानरूपी अग्नी।
भगवान कृष्ण कहते हैं
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।
भली प्रकार आरम्भ की हुई प्रक्रिया अर्थात् साधना, नाम का जप और ध्यान। प्रेम के साथ जो साधना आरंभ की जाती हैं इसको भगवान कृष्ण कहते हैं, यस्य सर्वे समारम्भाः
इस स्थिती में पहुंच गई, साधक इस स्थिती में खड़ा हो गया, साधक इस स्थिती में पहुंच गया,। कहां?
कामसङ्कल्पवर्जिताः । जैसे कहीं लिखा रहता हैं। निषेध प्रतिबंधित क्षेत्र। प्रवेश निषेध हैं, प्रतिबंधित क्षेत्र में। साधना करते करते ऐसा क्षेत्र आ गया, साधक का चित्त इतना निर्मल हो गया जहां वासनाओं का प्रवेश ही नहीं है। वर्जित हो गया क्षेत्र। किसके लिए? कमानाओ के लिए, वासनाओं के लिए। चित्त इतना, धानस्थ और समाधी के गहराई में उतर गया, कि वासनाएं उसमे टकरा ही नही सकती। तब ऐसी स्थिती में कौन सी अग्नी प्रकट होती हैं? ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं ,
तब ज्ञान और योग की अग्नि प्रकट होती हैं। तो एक तरफ अविद्या जनित अग्नी, विषय रूपी अग्नि जो कि चली आ रही है, साधक के अंदर, तो जब साधक मुक्त होने की स्थिती में होता हैं, तब विषयों की तरंगे भी बहुत जोश से आती हैं। लेकिन साधक समर्पित हैं, योग में प्रवृत्त हैं, तो योग की अग्नि है, ध्यानस्थ चित्त हैं, समाधिस्थ चित्त है, तो उसको चलायमान नही कर पा रहा है। उधर विषय की अग्नी इधर योग की अग्नि दोनों में टकराहट होती हैं, तो योग की अग्नि इतना प्रबल हो जाती हैं,कि अविद्या रूपी होलिका जल जाती हैं। जैसा परमहंस महाराज कहते है, होली अविद्या फूक के हो गए गुप्तानंद, समझे कोई सुघड़ विवेकी क्या समझे मतिमंद
तो अविद्या रूपी होलिका समाप्त हो गई, योग रूपी अग्नी में। और इधर योग की अग्नी प्रकट हुई फिर ज्ञान रुपी अग्नी भी प्रकट हो जाता हैं।
योगरुपि अग्नी किसमे बदलती है? ज्ञानरुपी अग्नी में। योगरूपी अग्नी और ज्ञानरुपी अग्नी में एक कदम का अंतर हैं।
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
इस तरह से सीढ़ी हैं, पहले धर्म का आचरण साधक कर रहा है। फिर उससे क्या होता है? वैराग्य होता हैं। जैसे आप नाम जपोगे, घ्यान करोगे, धर्म का आचरण करोगे तो वैराग्य होता जायेगा। वैराग्य से क्या होगा? योग होगा। योग अर्थात् जब बाहर संसार में मन नही जायेगा, तो वैराग्य है, तो मन जायेगा कहां? मन योग में लगेगा।
योग क्या हैं?सूरत का मन की दृष्टी का नाम और रूप के चिंतन में स्थिर हो जाना। जब स्थिर हो गई दृष्टी तो योग रूपी अग्नी। और जब योग में स्थिर हो गई अविद्या शान्त हो गई, तो योग ते ज्ञाना, तो ज्ञान रुपी अग्नी।
ज्ञान रूपी अग्नि क्या हैं? जिस तत्व को साधक जानना चाहता था, जिससे वो प्रेम कर रहा था, जिसके लिए साधना कर रहा था, उस परमतत्व का ज्ञान हो जाना। तो ज्ञानरुपी अग्नी कहां प्रकट हुई? उस खंभे में प्रकट हुई, जिस खंभे से प्रह्लाद को बांधा गया था। वो खंभा क्या हैं? स्तंभ वृत्ति। महर्षि पतंजलि ने तीन वृत्तियों का वर्णन किया हैं। वाह्य अभ्यंतर स्तम्भ वृत्ति।
वाह्य वृत्ति मतलब जब काम क्रोध लोभ मोह में,हमारा मन जा रहा हैं। अभ्यंतर वृत्ति मतलब जब राग द्वेष से मुक्त होने के लिए, विवेक वैराग्य आदि का चिंतन कर रहा है, ब्रह्म विद्या का चिंतन कर रहा हैं। स्तंभ वृत्ति क्या हैं, जब दोनों का चिंतन नहीं है। कोई संकल्प नहीं, श्वास नाम जप में स्थिर हो गई। श्वास अंदर गई तो ॐ बाहर आई तो ॐ, एकदम बास की तरह स्थिर हो गई। परमहंस महाराज जी कहते हैं, श्वास जब बास की तरह स्थिर हो जाय,तेल धारावत, मन जब श्वास में प्रवाहित हो गया, और श्वास में ॐ ॐ ॐ, के अलावा दुसरा संकल्प आ ही नही रहा हैं। केवल नाम का ही शब्द सुनाई दे रहा हैं। इसी को परावाणी कहते हैं इसी को अनहद कहते हैं। श्वास की इस अवस्था का नाम क्या हैं?
स्तम्भ हैं। ये किसके द्वारा तप्त हैं? ज्ञान की अग्नी के द्वारा। हिरणाकश्यप ने विषय रुपी अग्नी उसमे लगाई, लेकिन प्रह्लाद को चिटी उसमे दिखाई दी। संपूर्ण विषय रूपी अग्नी, पहले, योग रुपी अग्नी फिर ज्ञान रुपी अग्नी मे बदल गई। ज्ञान रूपी अग्नी क्या हैं? जिस परमात्मा को हमे जानना हैं, उस परमात्मा की जानकारी हमे मिलने लगे, चित्त शांत हो गई और भगवान की अनुभूति मिलने लगी, भगवान की महिमा समझ में आने लगी। प्रह्लाद ने भगवान की महिमा देखी कि स्तंभ पर चिटी चढ़ रही हैं, तो विश्वास ही गया, कि खंभे में आग नही भगवान हैं, उस खंभे से बंध गए और भगवान प्रकट भी हो गए। तो जब ज्ञान देते है,भगवान, अनुभूति होती हैं, साधक को तो विश्वास हो जाता हैं, कि भगवान हैं। और जब विश्वास हो गया, ध्यानस्थ चित्त हो गया, योग पूरा हो गया, तो वो परमात्मा इसी श्वास के अंतराल में प्रकट हो जाता है, साधक के ह्वदय में। और जब भीतर ईश्वर प्रकट हो गया, तो बाहर भी ईश्वर सर्वत्र हैं। जिस तत्त्व को साधक जानना चाहता था, उसकी जानकारी हो गई। उसका नाम क्या था? नरसिंह भगवान। नरसिंह का अर्थ होता हैं,
बंदऊ गुरू पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरी, महामोह तम पुंज जासु बचन रविकर निकर।
तुलसीदास जी कहते हैं, मैं ऐसे सदगुरू की बंदना करता हूं, कैसे सदगुरू की? जो नर रूप में हरी हैं। जो नर रूप में सिंहवत हैं। भगवान के स्वरूप हैं। हरी का मतलब सिंह भी होता हैं, हरी का मतलब भगवन भी होता हैं, एक प्रतीक दिया गया हैं। सिंह क्या होता है? जंगल का राजा होता हैं? किसी भी पशु से उसको कोई भय नहीं होता। इसी तरह महापुरुष भी संसार में निर्भय होते हैं। मुकतम् किम लक्षणम, निर्भयम। तो जो प्रेमी साधक प्रह्लाद था, भगवान को प्रकट कर लिया। भगवान उसकी भक्ती से कूपप्रसन्न होकर खंभे से प्रकट हो गए। अर्थात् जब श्वास स्थिर हो गई, तो श्वास के अंतराल में जो छुपी हुई सत्ता हैं, उसी का नाम है, रामेश्वर, उसी का नाम हैं, परमात्मा, उसी का नाम है, राम। श्वास में प्रकट हो गया। प्रकट ,क्या होता हैं? भगवान की जानकारी। साधक ने देखा तो क्या हुआ।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
भगवान आपको वही जानता है, जिसको आप जना दें। अर्थात् आरंभ से साधक ईश्वरीय प्रेरणा में चल रहा था, भगवान के मार्गदर्शन में चल रहा था। क्यों चल रहा था? भगवान को जानने के लिए। कितनी बाधाएं आई प्रह्लाद के सामने, सबको काटता चला गया। किसकी प्रेरणा से? भगवान की प्रेरणा से। अंत में अंतिम बांधा भी पार करके कहां पहुंच गया? जानत तुमही तुमाहि होई जाई। अंतिम संस्कार भी समाप्त हुआ। और जिसको जानना चाहते थे, वो परमात्मा जानने में आ गया।तो कैसा हो गया, कृपा सिंधु नर रूप हरी।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।
ज्ञानरुपी अग्नी में कर्म जल गए।
ये हिरणाकश्यप क्या था? ये हमारे कर्मो के संस्कार हैं, जो हमें बाहर देखने के लिए मजबूर करते हैं,
जन्म लेंगे तो बाहर देखेंगे ही, और बाहर देखेंगे, तो दुःख पाएंगे ही। ये दृष्टी शूल देने वाली हैं, इस दृष्टि को कब समाप्त किया गया? प्रेम की,पराकाष्ठा में,योग की पराकाष्ठा में, जब ज्ञान हो गया।
किसका? जिसका हम भजन कर रहे थे, वो प्रतक्ष्य देखने में आ गया। अब उसकी अग्नी प्रज्वलित हैं, विकार समाप्त हो गया। अन्तिम संस्कार भी समाप्त हो गया। अर्थात् जो प्रकृतमयी दृष्टी थी, जो जन्म मृत्यु के चक्र मे फेकती थी, वो दृष्टी ही समाप्त हो गई। नरसिंह भगवान ने हिरणाकश्यप का बध कर दिया। तब वो साधक कैसा हो जाता हैं? तो प्रहलाद भगवान के धाम चला गया। अर्थात् भगवान के रूप में साधक विलीन हो जाता हैं। साधक भक्त सदा सदा के लिए खो जाता हैं, भगवान ही शेष रह जाता हैं। इसी को नरसिंह अवतार कहते हैं। ये होलिका उत्सव, त्यौहार के पीछे इतनी बडी , कहानी,और इस कहानी के पीछे इतनी गहरी साधना छिपी हैं। जो हमारे ऋषियों ने कहानी के माध्यम से हम सबके लिए प्रस्तुत किया। जिसको हमलोग पढ़ते हैं, उत्सव मनाते हैं। यही इसका आशय हैं, तो होली मनाने का अर्थ हैं कि,अविद्या को जला देना।
योगरूपी अग्नी में ज्ञान रुपी अग्नी में अविद्या को जला देना। दूसरा जो पहलू हैं, रंग चढ़ाना या कीचड़ चढ़ाना। तो बाहर क्या होता हैं? बाहर हर व्यक्ती एक दुसरे पर अपना अपना रंग चढ़ाते हैं। बाप और बेटे का संबन्ध होता है, पति और पत्नी का संबन्ध होता हैं, दोनो एक दुसरे को समझाते हैं। वो सोचता हैं कि वो मेरी बात मानकर चलें, वो सोचती हैं कि वो मेरा बात मानकर चलें। यहीं एक दुसरे का रंग हैं। बाप बेटे का भी यही रिश्ता हैं, बाप सोचता हैं कि बेटा मेरे अनुसार चले, बेटा सोचता हैं, बाप मेरे हिसाब से चले। ये दोनों अपना अपना रंग चढ़ाते हैं। तो ये संसार के रंग हैं। लेकिन यहां होलिका में महापुरुषों का कौन सा रंग है, भगवान का रंग कोन सा हैं?
इत्र गुलाल,ज्ञान रोरी और खेलते भर भर के झोली।
कौन सा गुलाल है? ज्ञान का। ज्ञान का रंग,जैसा कि अनादि काल से चढ़ता चला आया हैं। वास्तव में इस देश में जो रंग चढ़ा हैं, तप का वो ज्ञान का ही चढ़ा हैं। दुसरे रंग तो जबतक है तभी तक बाद में विवाद है, मर गया तो समाप्त। रोज चढ़ते हैं रोज उतरते हैं। तो ज्ञान का रंग कौन चढ़ाता हैं? महापुरुष। जिसने ईश्वर को देखा हैं, वही ईश्वर को बता सकता हैं। सब लोग ईश्वर को नहीं बता सकते हैं। कोई बिरला महापुरुष ही उस ईश्वर प्राप्ती की साधना का ज्ञान का रंग आप पर चढ़ा सकता हैं। तो महापुरुष जो उपदेश देते हैं ज्ञान का, यही होली हैं उनकी, और यहीं ज्ञान के उपदेश को जो हम ग्रहण करतें हैं, यहीं उनके द्वारा फेका हुआ रंग हमारे उपर चढ़ गया। हम भी अपना रंग फेकते हैं, हमारे अंदर जो इच्छाएं हैं, हम चाहते हैं कि ये पुरी हो जाय वो पूरी हो जाए ये हमारा रंग हैं, लेकिन ये उनपर नही चढ़ता है, तो हमारा स्वभाव हैं , रंग फेंकना।
तो कौन सा रंग चढ़ता हैं? जो महापुरुष उपदेश देते है, और हम भजन करने लग गए , उनका रंग चढ़ने लग गया। वास्तव में यही असली होली है। बाहर जो रंग की होली हम खेलते है, उसका भी यही मतलब हैं। इसका वास्तविक अर्थ ये हैं कि, हम ऐसी विधी सीखें ऐसा ज्ञान सीखें कि ईश्वर को जान ले। अविद्या को योग रुपी अग्नी में जलाकर के परमात्मा की प्राप्ती कर लें। यही इस त्यौहार के मनाने का आशय हैं। यहीं होलिका उत्सव हैं, यहीं होली का आध्यात्मिक स्वरुप हैं।
।। ॐ।।