गुरु पूर्णिमा क्या है, और क्यों मनातें हैं?
गुरु पूर्णिमा क्या है, और क्यों मनातें हैं?
गुरु पूर्णिमा का जो उत्सव मनाया जाता है, प्रति वर्ष, भारत में, इसकी शुरुआत महर्षि वेदव्यास ने की। पहले जितने भी शास्त्र थे, गुरु शिष्य परम्परा में पढ़ाए जाते थे, उनको महर्षि वेदव्यास ने पांच हज़ार वर्ष पहले पुस्तक के रूप में लिख दिया। इसके पहले शास्त्र मौखिक थे, गुरु शिष्य परम्परा में रटाएं जाते थे।
चार वेद, छः शास्त्र थे, उपनिषद् भागवत महाभारत और महाभारत में एक अध्याय के रूप में गीता। ये सब जब लिखकर पूरा हुआ, तो उनके शिष्यों ने महर्षि वेदव्यास की पूर्णमासी के दिन पूजा की। उसी को गुरु पूर्णिमा के रूप में हमलोग मनातें हैं। इसके पहले भी गुरु शिष्य परम्परा में गुरुओं की सदगुरुओं की पूजा होती थीं। लेकिन त्यौहार का रूप ब्यास पूर्णिमा के बाद से हुआ, गुरु पूर्णिमा के रूप में, ये इतिहास हैं, गुरु पूर्णिमा का।
और उसके बाद से ही गुरु पूर्णिमा मनाई जानें लगी। हर आश्रम में गुरु पूर्णिमा मनाई जाती है।
इसका आध्यात्मिक अर्थ क्या है, हम क्यों जाते हैं, आश्रम में, महापुरुष के पास, क्या लेने के लिए जातें हैं, क्या नहीं है, हमारे पास, जिसके लिए हम लोग गुरु पूर्णिमा मनाते हैं, गुरु की पूजा क्यों करतें हैं?
सभी कहते हैं, गुरु की पूजा करो, गुरु बनाओं, तुलसीदास जी ने तो यहां तक कहा कि,
गुरुबिन भव निधि तरै कोई, जौ विरंचि शंकर सम होई ।।
बिना गुरु के कोई तर नही सकता है। ब्रह्मा और शंकर के समान ही क्यों न हो। सदगुरु नहीं मिला तो उद्धार नहीं होगा।
और हमारे देश भारत में ही सद्गुरु परम्परा है, अनादि काल से ये जो गुरु शब्द है, भारत की देन है। भारत में ही ऋषि मुनि, सदगुरु हुए हैं, और यहां पर ही सबसे ज्यादा मात्रा में महात्मा हुएं हैं। ये पूरा देश ही गुरुओं का हैं।आध्यात्मिक परम्परा यहां पर है। साधना की परंपरा यहां पर है। पूर्णिमा के दिन आप देखेंगे जो चंद्रमा होता है, ओ पूरी तरह से खिला हुआ होता है। इसके पहले जो द्वितीया का चंद्रमा होता है, वो बहुत छोटा होता हैं। लेकिन जो पूर्णमासी का चंद्रमा होता है, पूरा खिला हुआ होता है,इतनी रोशनी होती है कि, अगर आपकी आंखें अच्छी हों तो आप किताब पढ़ सकते हैं। इसलिए गुरु पूर्णिमा, वो गुरु जो पूर्णत्व को प्राप्त हो। किसकी पूजा करना है? जो पूर्णत्व को प्राप्त हैं। जिसका मन संपूर्ण वासनाओं से मुक्त हो गया हैं, जिसने भगवान की प्राप्ती कर ली है। जो ईश्वर के प्रकाश से प्रकाशित है। ऐसा पूर्णत्व प्राप्त जो महापुरुष है, वही सदगुरु हैं।
और उसकी ही पूजा गुरू पूर्णिमा के दिन की जाती है। आपने शंकर जी का फोटो देखा होगा, उनके मस्तक पर टेढ़ा चंद्रमा होता है, गंगा बह रही है, उनके जटा से। ये जो शंकर जी का स्वरुप है, पूर्ण सदगुरू का स्वरुप है।
शंकर जी कौन हैं? सदगुरू हैं।
जिसका मन पूर्ण हो गया है, जिसने पूर्णत्व को प्राप्त कर लिया हैं, उसको हम सदगुरू कहते हैं। उसकी पूजा की जाती हैं, गुरु पूर्णिमा के दिन। उन महापुरुष के पास कौन आता है, पूजा करने के लिए? तो इस संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं, एक जिनको अपनी इच्छाओं की पूर्ती करनी है, और एक वे जिनको अपनी इच्छाओं का त्याग करना हैं। ये दोनों प्रकार के लोग महापुरुष के पास आतें हैं। त्याग करने के लिए आतें हैं, उनको साधु कहते हैं,महात्मा कहतेंं है। और इच्छाओं की पूर्ती के लिए आतें हैं, वे सद्गृहस्थ होतें हैं। ये दो प्रकार के लोग महापुरुष के शरण में आतें हैं।जो सच्चे सदगुरू होते हैं, वो दोनों को देखतें हैं, और जैसे जिसकी श्रद्धा होती है, वैसी उसकी इच्छा की पूर्ती होती है। और जो बिरक्त महात्मा आतें है, उनकी विरक्ती बढ़ती है, और आगे बढ़ते हैं,गुरु के गुरूत्व को प्राप्त करने के लिए। और जो सद्गृहस्थ आते हैं, धीरे धीरे उनकी इच्छाओं की पूर्ती होती है,फिर उनकी भी इच्छाओं का त्याग होता हैं। ये क्षमता सदगुरुओ में होती है, इसलिए हम सदगुरु की पूजा करने के लिए आते हैं। लेकिन पूर्णत्व को प्राप्त करना, जैसे भगवान शंकर के मस्तक पर टेढ़ा चंद्रमा है।
एक तो वो महापुरुष जिसका मन पूर्णिमा के चंद्रमा के तरह पूर्ण हो गया हैं, भगवान को जिसने प्राप्त कर लिया है, वो सदगुरु हैं। और एक वो शिष्य जिसका मन टेढ़ा है, अभी वो अपूर्ण है। जो द्वितीया का चंद्रमा, है, वो कैसा है? अपूर्ण है। पुरी तरह खिला हुआ नही रहता हैं। हम सब क्या हैं? अपूर्ण है,हम सब क्यों पूजा करने जातें हैं सदगुरु की? ताकि हम भी पूर्ण हो जाएं, हमारे अंदर कोई कामना न रहे, या तो इसका त्याग हो जाय, या तो इसकी पूर्ती हो जाय। हमारा सबका मन टेढ़ा है। लेकिन सदगुरु सम्पूर्ण कलाओं से विकसित होते हैं, पूर्णत्व को प्राप्त हैं,हमको इस स्थिती को पाना है, हमे पूर्णत्व की स्थिती को पाना है, गुरु के गुरूत्व को पाना है, भगवान को पाना है, इसलिए हम महापुरुष के पास आते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि, गुरुत्व को प्राप्त करने की । पूर्णत्व को प्राप्त करने की साधना कैसे प्राप्त होती है? ये साधना, पूर्णत्व प्राप्त तत्वदर्शी सद्गुरु, से जागृत होती है। तो हम गुरु पूर्णिमा के दिन उनका दर्शन करते हैं, और यदि हमारी श्रद्धा स्थिर हो जाती है, तो वो साधना हमारे अंदर जागृत हो जाती है। इसलिए गुरु के बारे में कहा गया है कि,
श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती ।
सदगुरु कैसे होते हैं? जिनके चरणों का स्मरण करने से दिव्य दृष्टी का संचार होता है।
जिनके चरणों के स्मरण करने से दिव्य दृष्टी का संचार हो जाता है, वहीं गुरु सदगुरू हैं। सब गुरु सद्गुरू नही हैं। सदगुरू पूर्णत्व को प्राप्त हैं। अब ऐसे सद्गुरू की पहचान हमको कैसे होगी?
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही।।
ऐसे विशुद्ध सद्गुरू हमको तभी मिल सकते हैं, जब भगवान हमारे ऊपर कृपा करें।
भगवान कृपा कब करेंगे?
मन कर्म वचन छाडि चतुराई, भजत कृपा करि हहिं रघुराई।
मन कर्म वचन से हम भगवान के प्रति जब समर्पित हो जातें है, तो वो कृपा करके, ऐसे सद्गुरू हमको प्रदान कर देते है। तो मन कर्म वचन से हमको किस परमात्मा के प्रति समर्पित होना हैं? जो हमारे अंतःकरण में हैं।
*ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।
ईश्वर हमारे सबके हृदय में रहता है, लेकिन भ्रम वश हम भटकते ही रहते हैं,बाहर के देवी देवता में।
तो हमें पूर्ण सदगुरु के दर्शन के लिए, पूर्ण सदगुरु की पहचान के लिए,हमे सदगुरू मिले इसके लिए,सबसे पहले क्या करना है? अपने ही हृदय स्थित ईश्वर के प्रति समर्पित होना हैं। हमारी श्रध्दा स्थिर हो गईं, हृदय स्थित ईश्वर में तब हमको उनकी कृपा से सद्गुरु मिलेंगे, और जब सद्गुरु मिल गए, हमको तो उनके चरणो का ध्यान करना है,और जब ध्यान करेंगे, तो जो गुरु को प्राप्त करने की साधना है, जो पूर्णत्व को प्राप्त करने की साधना है, इसकी जागृति हमारे भीतर हो जायेगी। इसी साधना की जागृति के लिए हम सदगुरु की पूजा करतें हैं, गुरू पूर्णिमा के दिन। अब ये साधना किस तरह से जागृत होती है, कैसे इसका ज्ञान होता हैं, क्या क्या, हमारे अंदर परिवर्तन होता हैं? इसके लिए गीता में कहा गया है, कि
उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।
ये जो परमात्मा हैं, उपद्रष्टा के रूप में हमारे सबके अंदर द्रष्टा के रूप में है। हर जीव के अंदर ईश्वर हैं,
ईश्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी।।’
प्रत्येक जीव क्या हैं? ईश्वर का ही अंश है, वो चेतन है, अमल हैं, सहज सुख की राशी हैं, लेकिन,
सो मायाबस भयउ गोसाईं। लेकिन माया के वश में हम सब अचेत पड़े हुए हैं, सोए हुए हैं।
*एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी,
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।*
ये जगत एक रात्री हैं, इसमें सभी प्राणी अचेत पड़े हुए हैं, सोए हुए हैं।
सोए हुए का ये मतलब नहीं कि कोई अपने बिस्तर पर सोया हुआ हैं, जो जागे हुए हैं, वो भी सोए हुए हैं। कैसे सो रहें हैं? जैसे हम घर से चलतें है, तो सुबह से शाम तक कितने विचार करतें हैं? कोई न कोई बात सोचते रहते हैं। तो हम जगे हुए है, बाहर शरीर से, लेकिन हम सोए हुए हैं। किसमे? संसार के चिन्तन में। ये काम करना है, वो काम करना है, ये काम नही हुआ वो काम नहीं हुआ। तो सुबह से शाम इन्ही विचारों में समय बीत जाता है।
“मोह निशा सब सोवन हारा।* देखहि स्वपन अनेक प्रकारा॥”
मोह रूपी रात्रि में सभी अचेत पड़े हुए हैं। और अनेक प्रकार के स्वप्न देख रहें हैं। एक स्वप्न तो जब आप रात को सोते हैं,चार पांच घंटे तब देखते हैं, थोड़ा देर का स्वप्न आ गया, सुबह उठे तो अपनी जगह पर। सपने में कोई अमीर हो जाता हैं, पैसे वाला हो जाता हैं, और अच्छे अच्छे जगह पर घूमता हैं, और जागता हैं, तो अपने बिस्तर पर। कुछ नहीं मिलता, ये सपना दो चार घंटे का हैं। और ये सपना कितने समय का हैं? अस्सी साल का हैं। इसमें जीवन भर आप कुछ न कुछ काम करोगे, ये काम करना हैं,नही हुआ, वो काम नहीं हुआ, अंत में क्या पाओगे? कुछ नहीं। अस्सी वर्ष तक व्यक्ति काम करता हैं, सुख की प्राप्ती के लिए प्रयास करता हैं। लेकिन मिलता क्या हैं? कुछ नही। अंत में खाली हाथ जाना पड़ता है। इसलिए ये सपना अस्सी साल का हैं, और वो सपना तीन चार घंटे देखते हो आप। दोनों ही स्वप्न हैं। भगवान शिव कहते है।
उमा कहऊँ मैं अनुभव अपना, सत हरि भजन, जगत सब सपना। भगवान शंकर क्या कह रहें हैं, हे पार्वती मैं अपना अनुभव बताता हुं,ये संसार क्या हैं? ये सब सपना है। और सत्य क्या है इसमें? परमात्मा और उनका भजन ये सत्य है। ये कैसा सपना हैं? इस संदर्भ में एक कहानी सुनाता हूं। परियों के देश में परी होती हैं,इसकी एक कहानी बनी है, कि परियों के देश में एक लड़की चली गईं स्वप्न में, छोटी बच्ची थी, वहां गईं तो उसने देखा, बहुत अच्छी अच्छी मिठाई रक्खी है, सब खाने पीने की व्यवस्था हैं, बहुत अच्छा उसका निवास हैं, उसको भूख लगी हैं, स्वर्ग में जाने के बाद।
परी स्वर्ग में रहतीं हैं,तो उसने सोचा कि मैं मिठाई खालूँ, छोटी बच्ची थी, जब मिठाई खाने की बात उसके मन में आया, तो एक परी ने उसको कहा कि, आओ ये मिठाई रखी हैं, लो खालो, उसके आगे थाल लेकर खड़ी हो गईं। तो वो छोटी बच्ची उस मिठाई के पास से दो फुट दूर है, दौड़ रही है, सुबह से दौड़ना शुरू किया दोपहर हो गया, दोपहर होते होते उसने पूछा कि ये कैसा तुम्हारा देश हैं? कैसा तुम्हारा घर है, यहां पर मैं सुबह से दौड़ रही हूं भूखी प्यासी, मेरे पास मिठाई रक्खी हैं, लेकिन मैं, छू नहीं पा रही हूं। तो उस परी ने हंसते हुए कहा कि ये कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं, जिस धरती से तुम आई हो यहां पर, वहां पर भी ऐसा ही है। वहां पर भी सुबह से शाम तक व्यक्ती दौड़ता हैं, सुख की प्राप्ती के लिए, और अस्सी वर्ष नब्बे वर्ष जीवन के अंतिम श्वास तक दौड़ता हैं, लेकिन वही दो फुट की दूरी बनी रहती हैं। कभी किसी को सुख नहीं मिलता। जो कहानी तुम यहां देख रही हैं स्वर्ग में सपने में ऐसा ही वहा धरती पर भी है , लोग दौड़ते रहते हैं, लेकिन मिलता कुछ नहीं है।
तो इस समय का सदुपयोग कैसे हो? हमको सुख और शांति मिले कैसे? इसके लिए गुरुपूर्णिमा है। तो जो पूर्णत्व प्राप्त सदगुरु, महापुरुष हैं, यदि हमे उनकी पहचान हो गईं, उमके प्रति हम समर्पित हो गए, और हमारे अंदर साधना की जागृति हो गई, तो ये जो मृगतृष्णा हैं, जहां कुछ नही मिलता हैं, वही सबकुछ मिलने लगेगा। सदगुरु अगर मिल गए, उनके प्रति श्रद्धा और विश्वास हो गया, तो सब कुछ मिल जाता हैं। बहुत से लोग इस दुनियां में हुए हैं, प्रायः सभी लोग इस संसार पाने का अथक प्रयास करते हैं, जीवन भर प्रयत्न करते हैं, लेकिन संसार को प्राप्त नही कर पाते। और इसी संसार में रहकर के भगवान को प्राप्त करने के लिए जो प्रायस करता हैं, सद्गुरू को के गुरूत्व पाने के लिए जो प्रयास करता हैं, पूर्णत्व को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है, तो उसको भगवान मिल जाते हैं। और जिसको भगवान मिल गए, उसको संसार भी मिल जाता हैं। और जिसको भगवान नही मिले उसको संसार भी नहीं मिलता। इस तरह की कहानी है ये।
साधना कैसे जागृत होती हैं? तो जब हमारी श्रध्दा स्थिर हो जाती हैं, सदगुरु के प्रति। पहले हृदय स्थित ईश्वर में, ऐसा हम माने कि परमात्मा हमारे हृदय में रहता हैं, वहां हमारी श्रध्दा स्थिर हो गईं, फिर हम नाम का जप करने लगे।
जागने का पहचान क्या हैं? एक तो आप शरीर से जगे हुए रहते है, तो आप सबकुछ देख सकते हैं, काम कर सकते हैं। ऐसे ही जब आत्मा की जागृति हो जाती है, तो हम भूत, भविष्य और वर्तमान देख सकते हैं। अपना भविष्य देख सकते हैं। और ऐसा कौन सा व्यक्ती है, जो यह नहीं चाहता है कि हम अपना भविष्य जान लें। दस दिन बाद की बात को दस दिन पहले जान लें। ऐसा सब चाहते हैं। ऐसा कौन सा व्यक्ति है, जो निर्णय लेता हैं, और यह नहीं चाहता कि हमारा निर्णय सही हो, लेकिन गलत हो जाता है, हर व्यक्ती यहीं चाहता हैं कि हमारा निर्णय सही हो,लेकिन निर्णय सही तब होता हैं, जब आत्मा की जागृति हो जाती हैं, भगवान की जागृति हो जाती है तब। इसी को साधना की जागृति कहते हैं, और इसी को जीव की जागृति कहते हैं। हम सब अचेत हैं, तो हम कब जगते हैं?
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी
जागे हुए की पहचान क्या हैं? जब आप नाम जपने लगें, तब समझोंं कि जागृति की शुरूआत हो गईं। नाम जप चार प्रकार से होता है। बैखरी मध्यमा पश्यन्ती और परा। बैखरी का मतलब होता हैं, बोल के जपना, जैसे ॐ, पूर्व काल के ऋषियों ने ॐ का जप किया, भक्तिकालीन महात्माओं ने राम शब्द का जप किया। दोनों का अर्थ एक ही है, ओ माने वह परमात्मा, अहम मतलब आप स्वयं। अहम माने हर व्यक्ति, परमात्मा का निवास हर व्यक्ती के अंदर होता हैं। राम का मतलब भी वहीं है,रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।
जिसमें योगी लोग रमण करते हैं। जो सबके हृदय में रमण करता है वो राम हैं। तो किसी एक नाम का जप हम शुरु करें, क्योंकि जागने की शुरूआत क्या है, नाम जिह जपि जागहि जोगी। जीभ से नाम का जप करें, तब आप जगे है, नहीं तो जागते हुए भी सोए रहो। नाम का जप पहले बोलकर के, बैखरी फिर मध्यमा पश्यन्ती फिर परा, जैसे ॐ ॐ ॐ ॐ, पंद्रह बीस मिनट समय निकालकर के ॐ का जप बोलकर के करें, क्योंकी संसार में समय निकालना पड़ता है, रहता नहीं हैं। फिर धीरे धीरे ॐ का जप करें होठ का सहारा लेकर, फिर श्वास को देखें, श्वास चौबीस घंटे चलती हैं, भीतर परमात्मा से जुड़ी हुई हैं, और बाहर संसार से जुड़ी हुई हैं। इसी श्वास के रहते रहते, आप लोग सबकुछ कर लेते हो, जब तक श्वास है, तभी तक आप संसार में हो। और जब श्वास नही तो, न परमात्मा न संसार कुछ नहीं । इसी श्वास को महापुरुषों ने माला बनाया। एक तो माला हाथ में फिरती हैं, वो फिरती रहती है, और मन भागता रहता हैं। ये जो श्वास की माला है, ये चौबीस घंटे फिरती है, इसको क्या कहते हैं? निरंजन माला घट मे फिरे दिन रात। ये दिन रात फिरती हैं, आप सो जाओगे, तभी भी श्वास चलती हैं। श्वास चलना बंद हो गया, तो समझो, आप दुनियां से गए। तो इस श्वास को माला बनाओ, पहले हमने जीभ को माला बनाया, जीभ से नाम जपते थे, ॐ ॐ, फिर धीरे धीरे कंठ से ॐ ॐ । और फिर ये जो श्वास आ जा रही है, इसको देखो। इसको कल्पना से देखो, विचारों से देखो। अंदर आई कितना रुकी,फिर बाहर गईं बाहर कितना रुकी। इस श्वास को समझो। श्वास आती है अंदर, तो केवल श्वास ही नहीं आती हैं, श्वास के साथ पूरा संसार अंदर चला जाता हैं। संसार के विचार अंदर चले जाते हैं। श्वास चलती रहती है, और हम सोचते रहते हैं, की आज ये करना है, कल वो करना हैं, दस दिन बाद ये करना हैं। ये सब कहां जाता है? श्वास के साथ अंदर चला जाता हैं। और जब बाहर आती है, तो यही सब बाहर निकलकर आ जातें हैं। तो हम श्वास के साथ यही फेकते रहते है, और ग्रहण करते रहते 1हैं। पूरे संसार के विचार। इसलिए संसार से जुड़ें हैं तो भी श्वास है, और इसी श्वास से परमात्मा से भी जुड़ सकते हैं। इसी शरीर के द्वारा हम परमात्मा में खड़े हो सकते हैं।
हम संसार में हैं, लेकिन यदि श्वास को देखने लगे, तो इसी श्वास के द्वारा हम परमात्मा में खड़े हो सकते हैं, तो श्वास को देखो। जब श्वास को आप देखेंगे, तो श्वास आपको आंखों से नहीं दिखेगी, श्वास को देखने के लिए मन की दृष्टी चाहिए। मन की दृष्टी मतलब सुरत। मन की दृष्टी क्या होती हैं, जैसे आप यहां बैठे हुए हैं, और आपके कान में आकर कोई बोल दे कि गांव में चोरी हो गईं, या कोई बीमार पड़ गया, तो यहां मैं बोलता रहूंगा अपको कुछ सुनाई नहीं पड़ेगा। जिसका आदमी का चोरी हुई है,वो जगह जहां से पैसा गायब हुआ हैं वह जगह आपको दिखाई देगा यहां पर, घर का पुरा नक्सा दिखाई देगा। इसको कहते हैं, सुरत, मन की दृष्टी। श्वास इसी सुरत के द्वारा देखी जाती है। इस सुरत को स्थिर करो, कहां स्थिर करें? श्वास में। श्वास अंदर गईं तो ॐ, दुसरे विचारों को मत आने दो,श्वास बाहर आई तो ॐ, दुसरे विचारों को मत आने दो। तो जो परमात्मा द्रष्टा के रूप में है,द्रष्टा के रुप में, मतलब जैसे लाईट जल रही है, तो चाहें गाना सुनो या सत्संग, चाहें गीता पढ़ो या उपन्यास पढ़ो पेपर पढ़ो लाईट मना नहीं करेंगी। ऐसे ही परमात्मा आप सबके अंदर हैं, वो उपद्रष्टा के रूप में है, कुछ नही बोलता, न भला न बुरा। चाहें आप अच्छा करो या बुरा वो नही रोकेगा। लेकिन जब आप हृदय स्थित ईश्वर में श्रद्धा स्थिर करके नाम जपने लगोगे, तब वो परमात्मा बोलने लगेगा। तो इस परमात्मा के बोलने को क्या कहते है? अनुभव की जागृति। इसी को कहते हैं अनुमंता। और इसी को कहते हैं, गुरूर ब्रह्मा, गुरु ब्रह्मा है वो कैसे है? ब्रह्मा का काम क्या हैं? श्रृष्टि की रचना करना। तो यहां पर क्या होता है, जब उपद्रष्टा परमात्मा जागृत होता हैं, तो वो अनुमति देने लगता हैं। अनुमति का मतलब होता है, जब आपको कोई टोकने लगे कि ये करो, ये मत करों।
तो वह परमात्मा त्रिकालज्ञ हैं, सर्वज्ञ है, और हमारा हाल क्या हैं? हम अपना हाथ ज्योतिषी को दिखाते हैं, कि देखो क्या लिखा है, और वह परमात्मा जो सब जानता है, वह हमारे ही अंदर है। अगर वो जागृत हो जाय, तो हमे किसी को अपना हाथ दिखाने की जरूरत नहीं है। वो खुद ही तुम्हे बतायेगा कि तुम्हे ये करना है, ये नहीं करना हैं। तो जब तुम नाम जपने लगोगे, श्रद्धा स्थिर हो जायेगी हृदय स्थित ईश्वर में, अंदर के परमात्मा में, तो वो परमात्मा बोलने लगेगा, अनुमति देने लगेगा, कि ऐसा करो ऐसा मत करो।
अनुमति किस तरह से देता है परमात्मा? उसकी किस तरह की भाषा होती हैं, क्या वह आदमी की ही तरह बोलता है? ऐसा नहीं हैं। भगवान चार प्रकार से बोलते हैं। अंग फड़कन के द्वारा, स्वप्न के द्वारा, सुशुप्ति सुरा अनुभव और समसुरा अनुभव के द्वारा। चार प्रसार से भगवान बात करते हैं। चार प्रकार से अमुभव की जागृति होती हैं। अनुभव का मतलब ये नहीं कि हमे पढ़ाने का अनुभव है, हमे खेती का अनुभव हैं। कोई कहता हैं कि मुझे दस साल से गाड़ी चलाने का अनुभव हैं, ये अनुभव नहीं। अन माने अतीत भव माने संसार। जो संसार से मुक्त कर दे वो जागृति। भव माने संसार, तो क्या हैं संसार? संसार का मतलब ये नहीं जैसा ये पेड़ खड़े हैं, मकान खड़े हैं, किसी का मकान खड़ा हुआ हैं, रोड है, जिस पर सब चल रहें हैं, ये दुनियां जो दिख रही हैं, ये संसार नहीं हैं। ये तो विस्तार है, हमारे मन के संसार का। तो फिर संसार क्या हैं? भव माने होना। हम जो होना चाहते हैं, वो हमारा संसार हैं, हम जो करना चाहते हैं,वो हमारा संसार हैं, हम जो हो चुके हैं वो हमारा संसार है, हम जो कर चुके है, वो हमारा संसार है। इसलिए भव माने होना, भव माने करना। इसलिए अनु और भव, जो हमारे जीवन में घटना घटनी चाहती है, जो घटित होना चाहता हैं,जो दुःख आना चाहता है, उसको आने से पहले ही हम जान लें। इसको कहते हैं अनुभव की जागृति। ऐसी जागृति हो जाय, भगवान हमे ऐसा बताने लगें कि जो होना हैं, जो घटना घटनी चाहती हैं, उसे हम पहले जान लें, इसको कहते हैं अनुभव। इसी को कहते हैं आत्मा की जागृति, इसी को कहते हैं जीव की जागृति, साधना की जागृति, कुण्डलिनी जागृति इसी को कहते है। तो जब आप नाम जपोगे, श्रद्धा स्थिर हो जायेगी, तब भगवान अनुमति देने लगेंगे। तो पहला काम क्या करेंगे? जो इस संसार में सदगुरू हैं, जिसने भगवान के मार्गदर्शन में चलकर के परमात्मा की प्राप्ती कर ली हैं, जो पूर्णत्व को प्राप्त हो गया है, जिसके मन की सम्पूर्ण कलाएं खुल गईं हैं, जिसने कामनाओं को जीत लिया है, जिसका मन पूर्णमासी के चंद्रमा की तरह परमात्मा के प्रकाश से प्रकाशित हो गया है, जिसके मन में कोई वासना नहीं हैं, ऐसे महापुरुष की पहचान भगवान हमको देंगे, स्वप्न के द्वारा, अंग स्पंदन के द्वारा। तो इसको क्या कहते हैं? उपद्रष्टा से अनुमंता होना। भगवान बता देते हैं, अनुमति देने लगते हैं, तब सदगुरू की पहचान हो जाती हैं। और जब सद्गुरु की पहचान हो जाती हैं तो जो उपद्रष्टा परमात्मा है, जो नहीं बोल रहा था, वो बोलने लगता हैं। स्पष्ट रूप से बोलने लगता हैं। भगवान पहचान करा देते हैं, और फिर जब हम उनका ध्यान करते हैं, श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
जब हृदय से भगवान प्रेरणा करके जिसे मिलायें वो सदगुरू हैं,सब गुरु नहीं। जिसकी पहचान भगवान कराएं वो सदगुरू मिल गया, फिर नाम का जप आप करेंगे,और उनके चरणों का ध्यान आप करेंगे तो आत्मा की जागृति हो जायेगी। दिव्य दृष्टी की जागृति हो जायेगी । दिव्य दृष्टी का मतलब अलौकिक दृष्टी। जिसको हम अभी तक नहीं जानते थे, वो चीज जानने में आने लगती हैं, इसलिए दिव्य दृष्टी कहा गया। तो जब अनुमति देने लग गया, इसी को ब्रह्मा की श्रृष्टि की रचना कहते हैं। किसकी रचना हो रही हैं, सद्गुणों की रचना। हम जिस चीज को नहीं जानते थे, वो सद्गुण हमे सदगुरू की कृपा से प्रकट हो गईं। लेकिन सद्गुणों को हमें बढाना हैं, विवेक वैराग्य, सम, दम, तेज, प्रज्ञा सत्य इन्द्रियों का संयम ये जो सद्गुण हैं, इनका विकाश कैसे हो हमारे अंदर? तो हम वही साधना करेंगे नाम का जप और सदगुरु के चरणों का ध्यान। यही
साधना करते, करते ये अनुमंता की स्थिती हैं, भगवान मार्गदर्शन कर रहे हैं, इससे भी आगे की स्तर में जब साधक चला जाता हैं, तो भर्ता की स्थिती में हो जाता हैं, विष्णु के स्तर में हो जाता है, भर्ता माने विष्णु , जो भरण पोषण करता है, पालन करता हैं, विश्व में अणु रूप से व्याप्त हैं,परमात्मा की वो सत्ता जो विश्व के कण कण में व्याप्त है, अणु रूप में व्याप्त हैं। और जो साधक भजन कर रहा हैं, उसका योगक्षेम करता हैं। जब तक आप भगवान से मिल नही जाते, योगक्षेम का मतलब योग माने मिलन, और क्षेम माने आपकी पूरी व्यवस्था करता हैं। नाम जपने वाला साधक, हृदय में सदगुरू का घ्यान करने वाला साधक जब तक पूर्णत्व को प्राप्त नही हो जाता, भगवान को प्राप्त नही कर लेता, तब तक उसको क्या जरूरत हैं? वो सब भगवान देते है। मार्गदर्शन के द्वारा, उसका भरण पोषण करते हैं, उसको जिस चीज़ की अवश्यकता हैं, वो सब देते हैं। इसको कहते हैं भर्ता, ये विष्णु का स्तर हैं। जैसे आप देखते हैं कि कोई छोटा बच्चा हैं , जब वह अग्नी देखता है या सर्प देखता हैं, तो वह दौड़ते दौड़ते जाता हैं पकड़ने के लिए, तो वहां उसकी मां ये नहीं कहती हैं कि सर्प है मत छू, क्योंकि वह तो छह महिने का है, उसे क्या मालुम कि सर्प क्या है, उसके लिए तो खिलौना है, दौड़कर माता उसे उठा लेती है।
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई।
जब बच्चा जाता है, अग्नि या साप को पकड़ने के लिए तो माता ये नही कहती कि रुको, रुको , क्योंकि वो जानती है कि वो समझेंगा ही नही, दौड़कर उठा लेती है। ऐसे ही भगवान जिसमें साधक का हित होता है, भर्ता की स्थिती में विष्णु के स्थिती में, भगवान वही करते हैं, दुसरा कुछ नहीं करते। जैसे देवरिषि नारद थे, वो विवाह करना चाहते थे, शिलनिधि राजा की की राजकन्या से, भगवान ने नहीं करने दिया। नारद की इच्छा की पूर्ती नहीं हुई, जो भगवान चाहते थे वो हुआ। ये भर्ता की स्थिती थी। अनुमंता की स्थिती में अपने इच्छाओं की पूर्ती करने में साधक की रुची रहतीं हैं, लेकिन जब भर्ता का स्तर आ गया, विष्णु का स्तर आ गया, जब गुरु विष्णु के रूप में काम करने लग गया, जैसे पहले ब्रह्मा के रूप में काम करता था, अनुमति देता था कि ये करो ये मत करों, ये सही है ये गलत हैं, भगवान बताते थे, अंग स्पंदन के द्वारा स्वप्न के द्वारा, वहीं स्थिती आगे बढ़ गईं, भर्ता की स्थिती आ गई, अब भगवान यहां सिर्फ बता बताते ही नही हैं, उसको करातें भी हैं। उसको करने भी नही देते। जिस साधक की कोई इच्छा होती है, उसकी वो इच्छा पूरा नहीं करते, वो जो चाहते हैं, वही करतें है। इसलिए गुरूर विष्णु, और जब भरण पोषण करने की क्षमता आ गई, तो फिर इसके बाद आता है भोक्ता। भोक्ता क्या होता है, जब आप भगवान को भोग लगाते हैं, भगवान को थाली में रखकर, जो आपके घरों में मन्दिर है उसमें, जब कथा होती है, तब वहां खानें वाला कोई हैं नही है,लेकिन आपकी श्रद्धा है, आप भोग लगाते हैं।
लेकिन भोक्ता की स्थिती में यहां खानेवाला हैं,भोक्ता। आप जो भोग लगा रहें हैं, उसका उपभोग करनेवाला है।
कौन है? भर्ता भोक्ता महेश्वरः। क्या है भोग, भगवान का भोजन क्या है, क्या खाते हैं भगवान? तो जो नाम का जप कर रहें है, सदगुरू के चरणों का ध्यान कर रहें है। इन्द्रियों का संयम कर रहें हैं, भगवान के मार्गदर्शन में चल रहे हैं। ये जो साधना कर रहें हैं, यही भगवान का भोजन है। इसी का हम भोग लगाते हैं, यहीं हम चढ़ाते हैं, इसको ग्रहण कौन करता है? हमारे अंदर जो सूक्ष्म रूप में सदगुरू हैं। भगवान की प्रेरणा से सद्गुरु की पहचान हुई, फिर सदगुरू मिले, उनके चरणों का हम ध्यान करने लगे। एक सदगुरू तो बाहर बैठे हैं, शरीर रूप में। और दुसरे सदगुरु सूक्ष्म रूप से हमारे भीतर बैठें हैं। हमारे हृदय में रहतें हैं। वहीं सदगुरू इन सबको ग्रहण करते हैं। नाम के जप को, और जो यज्ञ करता है, जो ध्यान करता है, जो दान देता है, जो मन को समर्पित करता है,इन सबको वो सदगुरु ग्रहण करता है। तो उसको कहते हैं, भोक्ता। यज्ञ और तपों का भोक्ता मै हूं। भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं, यज्ञ दान और तप का भोक्ता मैं हूं। तो यज्ञ का मतलब नाम का जप, दान माने मन का समर्पण और तप माने मन सहित इन्द्रियों का संयम करें। ये जो कुछ साधक करता है , भगवान की प्राप्ती के लिए, पूर्णत्व की प्राप्ती के लिए , उन सबको भगवान ग्रहण करते हैं। सूक्ष्म रूप से जो सद्गुरु हैं , हमारे शरीर में ही अव्यक्त रूप में रहते हैं। आत्मा से अभिन्न होकर के रहतें हैं, वो इसको ग्रहण करतें हैं। और जहां ग्रहण किया तो भोक्ता हो गया, महेश्वर हो गया। अभी तक क्या था? प्रकृति के वश में था, अब क्या हो गया? स्वामी हो गया। इसी को शिव कहते हैं, शंकर कहते हैं, महेश कहते हैं। महेश का मतलब होता हैं, जब जप, तप, यज्ञ पूरा हो गया, अब उसको करना नहीं है, तो शुभ और अशुभ संस्कारों का संहार हो गया, शुभ वे जो भगवान के तरफ ले चलते थे, अशुभ वे जो संसार के तरफ ले जाते थे, दोनों का संहार हो गया।जप तप करने की भी अवश्यकता नहीं रह गईं । तो जो जन्म मृत्यु के कारण थे, उन संस्कारों का संहार हो गया, इसलिए शंकर। शंकर क्या करतें हैं? संहार करतें हैं, विष्णु क्या करतें हैं , पालन करते हैं। पालन मतलब जो साधक को अवश्यकता थी, उसका मार्गदर्शन करते हुए साधना कराया, वो विष्णु हैं। और अंत में उस साधना का, उपभोग किया , तब वो शंकर हो गए। ग्रहण कर लिए, साधना पूरी हो गई, तब शंकर की स्थिती आ गई, शंकाओं से अतीत हो गए। प्रकृति का स्वामी, अपने मन का स्वामी हो गया। इन्द्रियों को जीत लिया इसलिए महेश हुए। लेकिन इससे भी आगे की स्थिती में,
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥
कैसे यह जीवात्मा इसी शरीर के रहते रहते परमात्मा हो जाता है, वो बात इस श्लोक में बताई। भगवान के अनुमती के अनुसर चलते चलते ऐसी स्थिति आ गई, जप तप व्रत सब पुरा हो गया। संहार हो गया, जन्म मृत्यु के कारण सब समाप्त हो गया। शंकर की स्थिती आ गई। लेकिन यहां पर भी यदि साधक की सदगुरू से दूरी बढ़ गईं तो उसका उद्धार नहीं होगा,
“गुरु बिन भवनिधि तरइ न कोई, जौ बिरंचि संकर सम होई ।
अभी पहुंचा नहीं हैं, अभी और भी एक स्थिती बाकी हैं। जब इस भगवत्ता से भी कोई मतलब नही रह जाता, जब आप भगवान हो गए, भगवत स्वरूप हो गए इससे भी आपका कोई प्रयोजन नहीं रह जाता हैं, इससे भी आपका लगाव समाप्त हो जाता हैं, तब इससे आगे की स्थिती में वही जीवात्मा परमात्मा हो जाता हैं। उसी को कहा गया है,*परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः। इस तरह से यह जीवात्मा सदगुरु के मार्गदर्शन में चलते चलते अपने पूर्ण स्थिती को प्राप्त कर लेता हैं। तत्त्व को जान लेता है, तो यहीं जीवात्मा परमात्मा हो जाता हैं। एक सदगुरु था जिसकी शरण में हम गए, हमारा मन टेढ़े चंद्रमा की तरह था, अपूर्ण था, हम सदगुरू के प्रती समर्पित हुए, हमने नाम का जप आरंभ किया, हम अपूर्ण थे इसलिए समर्पित हुए, नाम जपते जपते साधना जब हमारी पूरी हो गईं, नाम का जप पूर्ण हुआ, भगवान की प्राप्ती हो गईं, तो हमारा मन जो द्वितीया की चंद्रमा के तरह टेढ़ा था, वो पूर्ण रूप से खिल गया, वो सोलहों कलाओं से, संपूर्ण कलाओं से खिल गया। ये संपूर्ण कलाएं क्या थी, चंद्रामा आप देखते है पूर्णमासी को न, पूरी तरह से खिला रहता है, और द्वितीया को देखते हैं तो नही खिला रहता। तो हम सबका मन क्या हैं, द्वितीया का चंद्रमा, उसको भगवान शंकर ने धारण किया। तो हमारे मन को कौन धारण करता हैं? कौन हमारे मन में प्रेरणा करके साधना कराता है? जो सदगुरू पहले से मौजूद हैं, जिसकी शरण में हम गए। किसलिए गए? कयोंकि हम अपूर्ण थे, क्या मिलेगा? हम भी पूर्ण हो जायेंगे, साधना की पराकाष्ठा में। कौन सी साधना से? ईश्वर के मार्गदर्शन में चलते, चलते। पहले उपद्रष्टा फिर अनुमंता फिर भर्ता भोक्ता, महेश्वरः।
भगवान के मार्गदर्शन में चलते चलते जो शिष्य था, वो भी पूर्णत्व को प्राप्त हो गया। उसका भी मन सम्पूर्ण कलाओं से विकसित हो गया। संपूर्ण कलाएं क्या थी, मन की कला क्या हैं? मन चौबीस घंटे सोचते रहता हैं, अनेक प्रकार से, ये उसकी कला हैं। ये अनेक प्रकार से जे कामना करता है, सोचता हैं, ये सब समाप्त हो जाय, और सारी कामनाओं का निरोध हो जाय, संपूर्ण वृत्तियों का निरोध हो जाय, तब मन की जो शक्ति हैं, एकाग्र हो जाती हैं। परमात्मा में हमारा मन स्थिर हो जाता हैं, स्थिर मन में क्या होता है, परमात्मा का प्रतिबिंब बनने लगता हैं। चंद्रमा का अपना प्रकाश नहीं हैं। चंद्रमा जो चमकता हैं, इसके अंदर अपना कोई प्रकाश नही हैं, वो सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करके रात को प्रकाशित होता हैं, चमकता हैं। ऐसा ही हमारा मन जव कमानाओ से मुक्त हो जाता हैं, सदगुरू की प्रेरणा से तो भगवान के प्रकाश को अवशोषित कर लेता हैं। परमात्मा को अपने में धारण कर लेता हैं। अपने में प्रवाहित कर लेता हैं, और फिर वह पूर्ण प्रकाश स्वरूप हो जाता हैं,संपूर्ण कलाओं से विकसित हो जाता हैं। संपूर्ण कला क्या थी, कला माने हमारी प्रकृति, हमारी चित्तवृत्ति जब उनका निरोध हो गया, तो ये चित्त वृत्तियां प्रकाशित हो गईं परमात्मा को इस मन ने धारण कर लिया। पूर्णत्व को प्राप्त हो गया। एक शिष्य सदगुरु के द्वारा सदगुरू हो गया। पहले वो शिष्य था, अपूर्ण था, सदगुरू का घ्यान करते करते नाम जपते जपते वो भी पूर्णत्व को प्राप्त हो गया। ये हैं, गुरू पूर्णिमा की साधना, इसलिए हम गुरु पूर्णिमा मनातें हैं,कि हमे भी पूर्णत्व प्राप्त गुरू मिले, जिसका मन पूर्णत्व को प्राप्त हो, जिसने परमात्मा की प्राप्ती कर ली हो। और उसकी शरणागति में समर्पित होकर हम भी उनका ध्यान करें, सेवा करें,नाम का जप करें, हम भी पूर्णत्व की प्राप्ती कर लें। ये है गुरु पूर्णिमा की साधना हैं। तो तव जब पूर्णात्व को प्राप्त कर लेता हैं, तो जैसा गुरू वैसा शिष्य, दोनो एक जैसे हो जातें हैं। तो इसीलिए
श्री गुरु पद नख मनि गन जोती सुमिरत दिव्य दृष्टि हियं होती।
इसलिए सद्गुरु के प्रति हम समर्पित होते हैं, और गुरू पूर्णिमा मनाते हैं। जो जीवात्मा था वो परमात्मा का स्वरूप हो गया। जो सदगुरू था, जिसके प्रति वो समर्पित हुआ, ये साधक, शिष्य भी सदगुरू हो गया। इसलिए गुरू पूजा हम करते हैं, मनाते हैं, कयोंकि हम भी गुरू के गुरुत्व को प्राप्त कर ले, पूर्णत्व को प्राप्त कर ले, और जब तक ये साधना चलती रहती है, गुरू पूर्णिमा चलती रहती है, जिस दिन भगवान की प्राप्ती हो गई, पूर्णत्व को प्राप्त हो गया, उस दिन साधना पूरी हो गईं । ये साधना हमे पूर्णतव प्राप्त सदगुरू के द्वारा ही जागृत होती है, इसी के लिए हम गुरू पूर्णिमा मनाते हैं।
ॐ श्री सदगुरू देव भगवान की जय।।
।। ॐ।।