देवप्रबोधनी एकादशी क्या है?
चौबीस एकादशी होती है, वैष्णव महात्मा चौबीस एकादशी व्रत रहतेंं हैं। और संन्यासियों में भी ये व्रत रखा जाता है। इस एकादशी व्रत के मनानें की परम्परा की शुरूआत परमहंस महाराज जब अनसुईया में रहा करते थे, उस समय किसी ने आकर कहा कि आज देवप्रबोधनी एकादशी है। तो परमहंस महाराज जी ने कहा कि बैरागी लोग चौबीस एकादशी करते हैं, तुम लोग एक भी नहीं करोगे? ऐसा विचार उनके मन में आया और व्रत रख दिया गया। जब व्रत रखा गया तो बहुत सारा प्रसाद फलाहार बनाया गया, उसमें भोजन से अधिक खर्चा आया। एकादशी पूर्ण हुआ तो परमहंस महाराज ने कहा कि एकादशी व्रत में प्रतिदिन के भोजन से चार गुना खर्च अधिक आया, तो भोजन से ज्यादा खर्च आना ही है। क्योंकि सब कुछ बनना है, देशी घी में,हलुआ बनाओं या खीर बनाओं।
तो ये परम्परा एकादशी मनाने का देश में बहुत प्राचीन हैं। इस व्रत को मनाने के पीछे की कहानी ये है कि, एकादशी व्रत राजा अम्बरीष ने रक्खा था। और जैसा व्रत का नियम हैं कि, व्रत के दुसरे दिन इसका परायण किया जाता हैं। उनके गुरु थे, दुर्वासा ऋषि। तो उस समय के नियम के अनुसार ऐसा था कि, पहले दुर्वासा को भोजन कराएं तब परायण पूरा हो। परायण का समय था, सुबह सात बजे। दुर्वासा समय पर नहीं पहुंचे, और परायण का समय निकलता जा रहा था। अम्बरीष ने तुलसी का पत्ता खाकर परायण पूरा किया। दुर्वासा आए तो उन्हें बहुत क्रोध आया, कि मेरा शिष्य मेरे बिना आज्ञा के परायण पूरा कर लिया। मुझको निमंत्रण देकर खिलाया नहीं। क्रोध आया तो उन्होनें अपने जटा से एक बाल निकालकर उसका कृत्या बनाया, और अम्बरीष के पीछे छोड़ दिया।अम्बरीष भगवान के भक्त थे, हाथ जोड़कर खड़े थे। जब कृत्या अम्बरीष के तरफ गईं, तो भगवान का चक्र अम्बरीष के रक्षा में उतर आया, और चक्र जब कृत्या के तरफ गया, तो कृत्या उलटकर दुर्वासा के तरफ़ चल दी। पिछे पिछे चक्र, उसके आगे कृत्या, उसके आगे दुर्वासा।
दुर्वासा ऋषि द्वारा उत्पन्न की हुई कृत्या, उन्हीं के पीछे दौड़ पड़ी, उन्हीं को समाप्त करने के लिए। और अम्बरीष की रक्षा में भगवान का सुदर्शन चक्र था, उसने कृत्या का पीछा किया, और कृत्या दुर्वासा का। इसी तरह एक साल तक भ्रमण करते रहें, ऋषी दुर्वासा। फिर नारद ने उनको सुझाव दिया कि जाकर अम्बरीष के चरणों में गिरो, तो ये चक्र और कृत्या आपका पिछा छोड़ेंगे। तो दुर्वासा जब राजा अम्बरीष के पास पहुंचे, उनके चरणों में गिरने के लिए, तो अम्बरीष, उनके भक्त थे, शिष्य थे, ऋषी दुर्वासा उनके चरणो में क्या गिरते,अम्बरीष ही उनके चरणों में गिर गए। इसके बाद सुदर्शन चक्र और कृत्या से उनका पिछा छूटा। ये तो एक कहानी है, एकादशी व्रत से जुड़ी हुई, पर ये परायण के समय की घटना है।
अब एकादशी व्रत क्या हैं, जो अम्बरीष ने किया, और क्यों किया? हम क्यों करते हैं, इस व्रत को?अम्बरीष ने किया, महर्षि दुर्वासा के साथ घटना घटी, इस घटना को युगों बीत गए। किस लिए इन उत्सवों को मनाया गया? किस लिए ये एकादशी व्रत रखा गया? इसी एकादशी को देव प्रबोधिनी एकादशी भी कहते हैं। देव प्रबोधिनी एकादशी का मतलब होता हैं, देवताओं का ज्ञान होना। देवताओं का ज्ञान का मतलब क्या हैं? देवता आंतरिक दैवी संपद का नाम हैं। और एक बाहर काल्पनिक देवता भी है, उनके बारें में पूरी दुनियां जानती हैं, कि कौन कहां का देवता है। इसके बारें में प्रबोध करना या जानकारी लेना कोई खास बात नहीं हैं। वास्तव में देवी संपद को अपने हृदय में जानना, दैवी गुणों का अपने मन में बोध होना।
बोध होना और सुनना जानना बाहरी रूप से अलग अलग बात है। बोध का अर्थ होता हैं, कि जैसे कोई सद्गुण, दैवी संपद हैं, जैसे एक परमात्मा में श्रध्दा का स्थिर होना दैवी संपद हैं। बोध होने का अर्थ हैं कि एक परमात्मा में आपकी श्रद्धा स्थिर हुई। और भगवान ने बताया कि हां तुम्हारी श्रद्धा स्थिर हुई। इसको कहते हैं, बोध होना। वैसे ही दैवी संपद के जितने लक्षण हैं, वो हमारे अंदर आएं और भगवान हमको बताएं कि हां ये दैवी संपद तुम्हारे अंदर आ गया। इसको कहते हैं, देव प्रबोधिनी, दैवी संपद को बढ़ाने वाली, और दैवी गुणों का बोध करानें वाली। एकादशी व्रत में और क्या क्या किया जाता हैं? जैसा कि लोग फलाहार करते हैं, और पारायण करते है, दान भी देते हैं, कुछ लोग ऐसा भी करते है। पर ये परम्परा, महर्षियों में और अम्बरीष राजा के काल से ही चली आ रही है। इसका अर्थ क्या हैं? ये केबल परम्परा ही नही है। जो महाराजा अम्बरीष को ईश्वर की प्राप्ति हुई थी। उस एकादशी व्रत से, लोग उस विधी को जानें कि व्रत की विधि क्या हैं, कैसी एकादशी है, जो राजा अम्बरीष ने की थी। उसको लोग समझें और अपने अंदर उस एकादशी व्रत को करें। वास्तव में जब सत्य का ज्ञान हमको नहीं रहता हैं, तो केवल परंपराओं का ही ज्ञान रहता है, परंपराओं को ही ढोते रहतें है। तो उसी को लोग कहते हैं कि हमने व्रत किया, धर्म किया, पर उनके अंदर का सत्य खो गया होता हैं। बहुत समय बितने के पश्चात् केवल परंपराएं ही हाथ में रह जाती हैं, सत्य खों जाती हैं। यही इस एकादशी व्रत के पीछे भी हुआ। अम्बरीष का व्रत क्या था, लोग नहीं जानते, लेकिन उपवास अवश्य करतें है। भूखा रहते हैं, फलों का भोजन करते हैं, ये सब होता है। पंरतु वो भूखा रहना क्या हैं? केवल भूखा रह जानें मात्र से, कोई किसी की रक्षा करने नही आ सकता हैं। हजारों लाखों लोग व्रत रखते हैं, और संकट में रहते हैं, लेकिन कभी किसी की रक्षा करने कोई चक्र नही आया। कई बार लोग परायण के समय से पहले परायण कर लिया होगा, लेकिन कभी किसी ने, किसी को श्राप देने नही आया। तो कभी ये घटना घटी लेकिन दुबारा क्यों नहीं घटी? दुबारा एकादशी व्रत तो हुए लेकिन घटना वैसी नहीं घटी, इसका अर्थ ये होता है कि इसके पीछे एकादशी व्रत का जो रहस्य है, जो इसकी विधि है, कि कैसे इस व्रत को करना है, उसको हम नहीं जानते, और जो इस व्रत करने की ऊपरी परम्परा है, वो हमारे हाथ में रह गया है। परंपराओं के रहने से सबसे बड़ा एक लाभ होता है, कि लोग व्रत करते करते, कभी न कभी व्रत करने की सत्यता के तह तक पहुंचते हैं। व्रत का अर्थ क्या है, उसको समझते हैं। और उसके पश्चात जब व्रत का अर्थ समझ में आ गया तो वास्तविक व्रत भी समझ में आ जाता हैं। फिर परम्परागत इस व्रत को करने से जो असली एकदशी है, उसके विषय में हमे जानकारी मिलती है। पुण्य अर्जित करते, करते कभी सदगुरू हमे मिलेंगे, कभी उनसे एकादशी व्रत के महत्व को समझने को मिलेगा कि एकादशी क्या है,समझने के पश्चात् फिर अपने अंदर वो एकादशी शुरु हो जायेगा। तो चार पांच बातें इसमें थी, कि एक तो इसमें फलाहार किया जाता हैं, दान किया जाता है, परायण किया जाता हैं, ये सब बातें होती हैं,किसी भी शब्द के मूल में रहस्यात्मक अर्थ होता है, इसलिए शब्द या कोई नाम त्यौहार का रक्खा गया, उसके पिछे आध्यात्मिक अर्थ छिपा होता हैं। और उसी आधार पर त्यौहार मनाया जाता हैं। जैसे एकादशी, जिसका मतलब होता हैं, ग्यारह। तो ग्यारह क्या हैं? हमारे शरीर में दस इंद्रियां हैं, और एक मन हैं, ये ग्यारह हैं, इसको एकादश कहते हैं। इसी दस इंद्रिय और एक मन के आधार पर हमारी क्या स्थिती हैं? एकादशी, में दशी मतलब होता हैं दशा, मनुष्य के पास क्या है? यहीं इंद्रियां हैं और मन हैं । और इन इंद्रिय और मन की एक दिशा हैं, एक निर्णय है, जो जीवन भर व्यक्ति करता है वही दिशा है जिसने मनुष्य चला करता हैं। कोई व्यापार करता है, कोई नौकरी करता है, कोई और कुछ करता हैं । ऐसे हर व्यक्ति के अलग अलग निर्णय है। उसी निर्णय पर वो चलता हैं। फिर उस निर्णय के अनुरूप चलने पर उसकी एक दशा होती है, उसकी एक निश्चित स्थिति होती हैं कि मैंने ये काम किया इसका परिणाम ये निकला। लोग कुछ न कुछ काम करते हैं, जो कार्य किया जाता है, वो दिशा हैं। जिस बात का, जिस काम का व्यक्ती निर्णय लेता हैं , वो उसकी दिशा हो गई। और उस निर्णय की पूर्ति में जो काम करता है, काम करने के पश्चात् उसकी वो इच्छा पूरी हो जाती है, तो वो उसकी दशा होती है, जैसे कोई विद्यार्थी पढ़ रहा है, तो पढ़ने के लिए जो मार्गदर्शन मिल रहा हैं, उसको तो वो एक दिशा हैं। जो उसको घरवाले दे रहें हैं, शिक्षक दे रहा है, वे उसको उसको दिशा दिया। जैसे किसी को डॉक्टर बनाना चाहा, किसी को इंजिनियर बनाना चाहा, किसी को कलेक्टर तो उसको एक दिशा दिया, उस पर विद्यार्थी चला, पढ़ाई की, और डॉक्टर, इंजीनियर या कलेक्टर बन गया, और बनने के बाद जो उसकी परिस्थिती हैं, उसको दशा कहते हैं। तो विद्याध्ययन के पश्चात् जो उसको प्राप्त हुई हैं, उसका वो भोग कर रहा है, वो हैं, दशा। ऐसे ही एकादशी व्रत का अर्थ होता हैं कि एक निश्चित दिशा में दृढ़ संकल्प होकर के चलना। तो कौन सी दिशा में चलना हैं? किसी न किसी दिशा में तो व्यक्ती चलता ही हैं, क्या वो एकादशी व्रत हैं? नहीं। जिसमे दश इंद्रियां और मन स्थिर हो जाय,शांत हो जाय, और जो प्रत्येक मनुष्य की जो दुर्दशा हैं, हम चलते हैं एक दिशा में, लेकिन प्राप्त होते हैं, दुर्दशा को। कोई अच्छी दशा को नही प्राप्त होते। हर व्यक्ती अंत में परेशान ही दिखाई देता है। चाहें वो कितने भी बड़े पद पर चला जाय, राष्ट्रपती हो या प्रधानमंत्री या छोटे पद पर चपरासी हो, किसी को शांति नही हैं। सबको आंतरिक दुर्दशा प्राप्त हैं। तो ऐसी कौन सी दिशा हमारे सामने हो, जिसपर हम चले, और हमे स्थाई दशा प्राप्त हो। जिससे कि हमारी फिर दुर्दशा न हो। बार बार जन्म फिर मृत्यु,फिर दुख फिर सुख यहीं दुर्दशा हैं। तो इस दुर्दशा से निकल कर के सही दशा, सही स्थिति जन्म मृत्यु से मुक्त हो जाय।, अपने स्वरूप को प्राप्त कर ले।
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥
सुतीक्षण से भगवान राम मिलतें हैं,सुतीक्षण ने जब देखा भगवान राम को तो उनके प्रेम में इतने मग्न हो गए कि तुलसीदास जी लिखतें हैं, कि कहि न जाइ सो दसा भवानी॥
एक तो ये दशा है, भगवान के प्रेम में मग्न होने की, और एक दुर्दशा हम रात दिन हम अपने साथ देखते हैं, हर व्यक्ती देखता है। तो इस जीव की जन्म मृत्यु के चक्र में जाने वाली दुर्दशा से निकालकर के जो सही स्थिति, प्रेम मग्न दशा, परमात्मा की प्राप्ती, अपने स्वरूप की प्राप्ती करा देती है, उस निश्चित दिशा में चलने का नाम एकादशी व्रत है। जो संसार में जन्म मृत्यु के चक्र से छुड़ाकर, के हमे स्थाई दशा एक स्थिती अपने स्वरूप में स्थिती प्रदान कर दे। उस दिशा में चलने को कहते हैं, एकादशी व्रत।
तो वो दिशा कहा से आरंभ होती है? जिस महापुरुष ने अपने स्वरूप की स्थिती पा ली है, जो जन्म मृत्यु के बन्धन से छूट गया हैं, जो सम्पूर्ण दुर्दसाओं से मुक्त हो गया हैं। ऐसे तत्वदर्शी सदगुरू के प्रति जब हम समर्पित होते हैं, तब हमारे अंदर उनका जो मार्गदर्शन हमे मिलता हैं, वो एक निश्चित दिशा हैं। और उस मार्गदर्शन पर जब हम चलतें हैं, तो जो हमारे अंदर से प्रकट होकर जो दिशा निर्देश देते हैं, वो एक निश्चित दिशा है, उस पर हमे चलना होता हैं। जैसे कि स्थान, स्थान पर दिया। कई उदाहरणों में दिया गया गया है। कागभुशुण्डि जब अपने गुरू महाराज से मिले, तो उनकी एक दिशा थी। और जब गुरू से उन्होने ज्ञान समझा, उसके पश्चात जब श्राप लगा तो वो एक दशा थी। इसके बाद हजार जन्म भोगने के पश्चात जब उनके घर वालो ने पढ़ाना चाहा, तो उन्होने पढ़ने से इनकार कर दिया, और कहा,
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई। हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई।।
तो हजार जन्म के पश्चात् साधन करते करते जब उनको एक दशा प्राप्त हुई, कौन सी दशा? भगवान के प्रेम में मग्न होने की दशा।
एक समय था, जब उनको सर्प बनना पड़ा, गुरु को दंडवत प्रणाम नही किया, भगवान का श्राप उनको मिला, इसके पश्चात् उन्ही कागभुशुण्डि जी को ऐसी स्थाई दशा प्राप्त हुआ कि उन्होनें गरुण का संदेह दूर किया। तो एक समय में व्यक्ती ज्ञान की न्यूनतम सीमा में है, शूद्र तन में थे, अपने गुरु का भी उन्होने अपमान किया। और एक स्थिती में आकर के वे संसयो का निवारण कर रहे हैं। तो एक दशा वो थी, और एक दशा ये हैं। ठीक ऐसे ही भगवान बुद्ध और महावीर अपने घर का त्याग करते हैं, एक दशा ये है कि वे राजा के लड़के हैं, सारे भोग और ऐश्वर्य को देखकर उनको ग्लानि होती है, एक उनकी ये दशा हैं। तो राजा का लड़का होना एक दशा है, और तपस्या करना दूसरी दशा। एक निश्चित ईश्वरीय मार्गदर्शन में तपस्या करना ये एक दशा हैं। तो जो मार्गदर्शन मिल रहा है, वो दिशा हैं। और जो तपस्या के परिणाम में उनको स्थिती मिली वो उनकी दशा हैं, ये उनकी स्थिती हैं। महर्षि वाल्मिक चोरी करते हैं, डाका डालते हैं, ये एक दशा है उनकी, सप्तऋषि जब उनसे मिलते हैं, मार्गदर्शन करते हैं, दिशा निर्देश देते हैं, उस निर्देश पर जब वो चलते हैं, तो वाल्मिक भए ब्रह्म समाना। ये उनकी एक दशा हैं। इसी को कहते हैं एकादशी व्रत।
जो एक स्थाई दशा,स्थाई स्वरूप हमे प्राप्त हो जाय, फिर वो कभी न बदले। परन्तु वो स्वरूप एक निश्चित निर्देशन, में चलकर ही हमे प्राप्त होता है। इसका कोई बाहरी साधन नही है, स्वयं वो एक परमात्मा निर्देशन करे, फिर उनके निर्देशन में आप चले।
तभी उस परमात्मा को आप जान सकते हो। और जानने के पश्चात् आपकी जो स्थिती होती हैं, ईश्वर के निर्देशन में चलकर, उसी को एक दशा कहते हैं। तो ये एकादशी व्रत दस इंद्रियां और एक मन ग्यारह, इनके अन्तराल में रहकर हमें व्रत करना है। परन्तु ये व्रत कब होता हैं, जब कोई महापुरुष मिल गए हों, जिन्होंने व्रत करके दशो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो। जिन्होंने एक परमात्मा में स्थिती प्राप्त कर ली हो, एक स्थाई दशा जिनको प्राप्त हो गईं हो। ईश्वरीय मार्गदर्शन में चलकर के जिन्होंने ईश्वर को जान लिया हो।
ऐसे महापुरुष जब हमको मिलते है, हम उनके प्रति समर्पित होते हैं, उनमें श्रध्दा स्थिर करते हैं, तो हमारे हृदय से जो दिशा निर्देश मिलती हैं, वो एक निश्चित दिशा हैं, तब आत्मजागृती होती हैं, जैसा सुग्रीव से भगवान राम ने कहा, कि
*सखा सोच त्यागहू बल मोरे, सब विधि घटब काज मैं तोरे।*
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, जो अनन्य भाव से मुझको भजता है, मैं अज्ञान से उत्पन्न अन्धकार को दूर करके, ज्ञान रूपी दीपक से प्रकाशित करता हूं।योग में प्रवेश वाली बुद्धी देता हूं।
तो योग में प्रवेश वाली बुद्धी भगवान की देन हैं, अर्थात् भगवान स्वयं मार्गदर्शन करते हैं,जब सद्गुरु के प्रति हम समर्पित होते है, हमारी श्रध्दा स्थिर होती है, तो हमारे हृदय से हमारी ही आत्मा जागृत होकर के मार्गदर्शन करने लगती हैं। जब तक भीतर से भगवान की बात समझ में नहीं आती, तब तक जो गुरू महाराज बाहर से बता रहे हैं, उसी दिशा में हमे चलना हैं। उस दिशा में चलना अपने दशो इन्द्रियों और मन को गुरु के आदेश के अनुसार ले चलना एकादशी व्रत है।
व्रत क्यों कहा गया? व्रत का अर्थ होता हैं, किसी संकल्प को पूरा करने के लिए प्रण करना। तो संकल्प क्या हैं? एक ईश्वर को प्राप्त करना। अब इसमें व्रत क्या हैं? जो भीतर से भगवान दिशा निर्देश दे रहें हैं, बता रहें हैं,उनकी बात को समझना और समझ करके उसका पालन करना, ये व्रत हैं, तो बाहर से क्या निर्देशन देते हैं, गुरू महाराज और क्या भीतर से भगवान निर्देश देते हैं? व्रत में क्या किया जाता है?व्रत में फलाहार किया जाता हैं, फलाहार करने का अर्थ होता हैं, फल की इच्छा का त्याग करना।
जैसे हमारी दसों इंद्रियां और एक मन ये निरंतर भोजन कर रहें हैं। कहां भोजन कर रहें हैं? संसार में। मन का काम है, विचार करना, सोचना,योजना बनाना। इन्द्रियों का शरीर का काम है, पदार्थ इकठ्ठा करना, ये निरंतर अपने अपने विषयों में रमण कर रहें हैं, इनका भोजन कर रहें हैं। हर इंद्रिय का, मन का, अपना विषय है, उसी को ये खा रहें हैं दिन रात।
तो इन इन्द्रियों को और मन को हमें व्रत कराना हैं। क्या व्रत कराना हैं ?
कि इनका संयम कराना हैं, कि ये मन और इंद्रियां अपने विषयों के तरफ न जाय। जो फल हमारें,मन एवं इंद्रियां चाहतें हैं, उसका हमे त्याग करना है। तो इन दसों इन्द्रियों एवं मन और इनके जो विषय हैं, उनका त्याग करना, फलाहार करना हैं।
क्योंकि ये जो चाहते हैं,फल चाहते हैं, कामना की पूर्ती चाहते हैं, तो इनकी कामना की पूर्ती न करने देना, इसका नाम व्रत हैं। ये निर्देश कौन देता है, ये दिशा कौन देता है? सदगुरू देते हैं। कि दसों इन्द्रियों का संयम करो, मन का संयम करो, तब तुम्हे स्थाई दशा प्राप्त होगी, तब एकादशी व्रत पूरा होगा। तो व्रत क्या हैं? उपवास करना।
उपवास करने का अर्थ होता हैं, (उप+वास) उप माने आत्मा, जो सबके अंदर है, वास माने समीप, आत्मा के समीप रहो।
तो आत्मा के समीप रहने का मतलब, सद्गुरू का जो आदेश है, उसके पास रहो,या अंदर से जो भगवान आदेश दे रहें हैं, उसके पास रहो, उसके पास रहने का मतलब होता है, व्रत करना। भगवान के आदेश के अनुसार चलने का अर्थ होता है, ईश्वर प्राप्ति के लिए जो कुछ आवश्यक है, उसकी पूर्ती करना,उस संकल्प को पूरा करना, तो उसमें आवश्यक क्या हैं, कि इंद्रियां अपने विषय को छोड़े, मन अपने विषय को छोड़े। इन्द्रियों और मन के द्वारा विषय न ग्रहण करने का नाम है, व्रत। इंद्रियां और मन दिन रात भोजन करने में लगे हुए हैं, इसी को छोड़ना हैं, इसको हम नही छोड़ पाते, और बाहरी शरीर का भोजन छोड़ देते हैं। मन और इंद्रियां अपना अपना भोजन लेते रहते हैं, कभी बंद नही करते, तो असली व्रत शुरु ही नही हो पाता, नकली व्रत शुरु हो जाता हैं। वास्तव में जो बाहरी व्रत मनाया गया,उसका उद्देश्य ये था कि, भीतर से व्यक्ती फलाहार करे, अर्थात फल की इच्छाओं का त्याग करे, ये कब संभव है, जब सद्गुरु मार्गदर्शन दें, हम उनके प्रति समर्पित हों, सद्गुरू की हमे पहचान हो, उसके साथ साथ भीतर से हमारी आत्मा हमारा मार्गदर्शन करें। उस मार्गदर्शन को कहते हैं, एक निश्चित दिशा। जैसे भगवान राम ने सुग्रीव से कहा,
सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
मैं सोच करके देता हूं, तुम सोचो मत, सोचना ही तो दिशा निश्चित करना है। बुद्धी जब सोचकर निर्णय लेती है, उसी को दिशा कहते हैं, उसी दिशा में मनुष्य चलता है। भगवान यहां कहते हैं, कि तू मत सोच, मैं सोचकर दे रहा हूं, तू केवल उसे बुद्धी में धारण कर। तो भगवान जो सोचकर दे, वही हमारी दिशा बन जाय। उसी दिशा में, अपने शरीर को, मन को , इन्द्रियों को चलाए। ये दस इंद्रियां और एक मन उसी दिशा में चले, तो इन ग्यारहों का एक निश्चित दिशा में होना एकादशी व्रत।
और क्या करना है? फलाहार करना हैं, फल की इच्छा का त्याग करना है। विषयों का त्याग करना हैं।
किसके समीप रहना है,उपवास? आत्मा के निर्देशन में, गुरु महाराज के निर्देशन में भगवान के निर्देशन में चलेंगे, तो हम किसके पास में हैं? आत्मा के पास में हैं, उपवास में हैं। उप माने आत्मा, वास माने समीप। तो आत्मा के निर्देशन में जब हम चलते हैं तो, आत्मा के पास में हैं। इसलिए इसको उपवास, या व्रत कहा गया। अंत में चलकर के जब दसों इन्द्रियों का संयम हो गया, ईश्वरीय निर्देशन में चलकर व्यक्ती ईश्वर को जान लिया, तो उसे स्थाई दशा प्राप्त होती हैं,जो बुद्ध को प्राप्त हुई, महावीर को, भगवान राम की भगवान कृष्ण, संत कबीर, गुरु नानक इन सब महापुरुषों ने एकादशी व्रत किया। दुनियां में कोई भी ऐसा महापुरुष नही हुआ जिसने एकादशी व्रत नही किया हो। पर आप कहेंगे कि कबीर दास कहा उपवास,करते थे,तो ये आपका एकादशी व्रत नही हैं। ये मन सहित इन्द्रियों का संयम वाला, ईश्वर के निर्देशन में चलने वाला
एकादशी व्रत उन्होने किया, और सभी महापुरुषों ने किया। बाहर वाला तो कदाचित किसी महापुरुष ने किया हो किसी ने भी नही किया, बुद्ध ने कोई भी ऐसा उपवास नहीं किया, जो उपवास किया वो अपने मन से किया, एकादशी के दिन नहीं किया, जिसको आप रखते हैं, परन्तु भीतरी एकादशी व्रत प्रत्येक महापुरुष ने किया। क्योंकि भीतरी एकादशी व्रत किए बिना कोई महापुरुष सिद्ध हो ही नहीं सकता, कोई स्थाई दशा को प्राप्त हो ही नहीं सकता हैं। महात्मा बुद्ध सात साल की तपस्या के बाद उन्होने कहा के कि मैंने अविनाशी पद को प्राप्त किया, जो मुझसे पूर्व ऋषियों ने प्राप्त किया। अविनाशी पद एक स्थायी दशा हैं। यही एकादशी व्रत का परिणाम हैं। दस इंद्रियां और एक मन जब संयमित हो गए, एक निश्चित दिशा, और तपस्या में चलकर के तो एक स्थाई दशा महात्मा बुद्ध को, संत कबीर को प्राप्त हुई। संत कबीर भी एक निश्चित दिशा में चले, मार्गदर्शन में चले, उन्होने अपने भजन में कहा हैं, शब्द से प्रीत करे सो पावे, जो शब्द से प्रेम करेगा वो भगवान को पायेगा। शब्द क्या हैं? शब्द भगवान की वाणी हैं, शब्द हमारा आदि हैं, पल पल करीहौ याद , जो आदि है, अनादि हैं, परमात्मा उससे ये शब्द प्रसारित है। ये किस लिए शब्द आपको मिल रहा हैं? कि इसको पल पल याद करो। जो कुछ भी काम करना हैं, किधर चलना हैं, तो भगवान ने क्या शब्द दिया, क्या निर्देशन दिया, उसको अपनी स्मृति में याद करो, वही आपकी निश्चित दिशा हैं। उसी दिशा में मन को और इंद्रियों को चलना है। इसी का नाम एकादशी व्रत हैं। यही संत कबीर ने किया, गुरुनानक ने किया, सबने किया। कोई भी महात्मा इस एकादशी व्रत को पूरा किए बिना, महापुरुष नहीं हो सकता हैं, चाहे दुनियां के किसी भी कोने में हुआ हो। परन्तु अब ये परम्परा केवल हिंदुओ की लगती है, इस व्रत के हिसाब से, लेकिन इस व्रत को किया हर महापुरुष ने, बाहरी व्रत नहीं, भीतरी व्रत। इस तरह से ईश्वरीय निर्देशन में चलना एक दिशा हैं, और चलकर के ईश्वर को प्राप्त कर लेना एक दशा है, एक स्थिती हैं। और इस मार्गदर्शन में चलना ही एकादशी व्रत हैं। गुरू महाराज से प्राप्त मार्गदर्शन हो, उसके साथ साथ भीतर से भगवान बताएं, यही निश्चित दिशा हैं, इसी को भगवान राम सुग्रीव से कहते हैं, कि मैं जो कहता हूं, वहीं कर, और इसी को भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, कि तु मेरे आदेश का पालन कर। जो मैं कहता हूं वो कर। भगवान कृष्ण के आदेश का पालन अर्जुन ने किया, उसकी भी दशा सुधर गई। युद्ध के शुरुआत में अर्जुन भी भ्रमित था। भगवान की बात माना, युद्ध आरम्भ हुआ, फिर शांति की स्थापना हुई। तो दशा बदल गई ईश्वरीय निर्देशन से, तो हमारी जो निश्चित दिशा हैं, जिसमे हमे व्रत करना है, उपवास करना हैं, त्याग करना हैं, वो भगवान का आदेश हैं, गुरु महाराज का आदेश है, जो हमारी दिशा हैं, और उसमें चलकर के स्थिती प्राप्त कर लेना दशा हैं। यहां व्रत पूरा हो गया। अब अम्बरीष राजा का जो कथानक है, उसको भी हम समझते हैं, कि इसका अर्थ क्या हैं?
अम्बरीष का अर्थ है, अम्बर माने आकाश ईश का मतलब होता हैं, इच्छा, आकाश इच्छा दो अलग अलग शब्द हैं। क्या मतलब हुआ इसका? जब आप रामायण पढ़ते हैं, तो उसमें आप पाएंगे, नीलाम्बुज श्यामल कोमलांगम सीतासमारोपित वामभागम् | पाणौ महासायकचारूचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ||
ये भगवान के विषय में कहा गया हैं, ये नीला जो आकाश हैं, इसको कहा गया है, विष्णु। इसी विष्णु को ही राम कहा गया हैं। तो आकाश का अर्थ होता है, विष्णु हो जाना,आकाशवत हो जाना। विष्णु का मतलब होता हैं, विश्व में अणु रूप से व्याप्त सत्ता। जो कण कण में व्याप्त परमात्मा है, उनका एक नाम विष्णु हैं। जो अणु रूप से व्याप्त हैं, इसलिए उनको विष्णु कहते हैं। क्यों अणु रूप में व्याप्त हैं? वास्तव में आकाश सर्वत्र व्याप्त हैं, आपके शरीर के अंदर भी हैं, बाहर भी हैं, एक एक कोशिका के अंदर है, एक एक जीवाणु के अंदर है। कोई भी ऐसा कण नहीं हैं, पूरी पृथ्वी में जिसमे आकाश न हो, अंदर भी आकाश है, बाहर भी आकाश हैं। जैसे पृथ्वी के अंदर पानी बहते हैं, झरने बहते है, तो बिना आकाश के बह ही नहीं सकते। इसलिए अन्दर भी आकाश है, बाहर भी आकाश है। तो आकाशवत होने की इच्छा अम्बरीष हैं।आकाशवत होने का मतलब क्या होता हैं, क्या है आकाशवत होना? हवाई जहाज रात दिन चलते रहते हैं, वो सब तो आकाशवत हैं, लेकिन उनको तो कुछ मिलता नहीं हैं। वास्तव में,बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा।।
आकाश का मतलब क्या हैं? जब सभी इच्छाएं आपके अंदर से समाप्त हो गई, तब आप आकाश हो गए, इसके संदर्भ में क्या उदहारण देते हैं? कि जैसे रात्रि के समय बादल नहीं है, जब आप ऊपर देखते हैं , तो तारें चमकते हुए दिखाई देते हैं। वही वर्षात के समय में बादलों से आकाश ढक जाते हैं, तो हरिजन इव परिहरि सब आसा।। जिस समय मनुष्य इच्छाओं का त्याग कर देता हैं, तब ओ अकाश हो जाता हैं। आकाश होने का अर्थ होता है कि,
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ॥
बिना आकाश के कोई स्वतंत्रता नहीं पा सकता हैं। आपको चलना है तो चलने के लिए आकाश चाहिए। यदि आप मकान बना रहें हैं, और अगर कमरे के दिवाल के बीच में स्थान नहीं है तो, उस मकान का कोई अर्थ नहीं है। फिर वो मिस्र के पिरामिड जैसा हो जायेगा, उसमे आप रह नही सकते हैं।अगर मकान को पूरा भर दोगे तो। आकाश का बड़ा महत्त्व हैं, यदि कमरों में जगह खाली नहीं है, उसे आपने फर्नीचर से कपड़ो से भर दिया, एक आदमी को बैठने का स्थान नहीं है, तो उस मकान को बनाने के बाद भी उसका कोई मतलब नहीं है। महल, फ्लैट जो बिकते हैं, एक करोड़ दो करोड़ के मुंबई में, उन सबमें क्या बिकता हैं? आकाश बिकता हैं, दीवाल नही बिकता, आकाश का महत्त्व हैं, जो उसमे खाली स्थान हैं,300 फीट का उसका महत्त्व हैं। इसी तरह से आकाशवत होने की इच्छा, का मतलब ये नहीं कि कोई आकाश में उड़ने लगे कोई,आकाशवत होने का अर्थ होता हैं कि आपके मन में संकल्प इच्छाएं, कोई आशा न रहे, तो आप आकाश हो गए, ऐसे भक्त को कहते हैं, हरिजन इव परिहरी सब आशा, वो विष्णु हो गया,वो भगवान से जुड़ गया, भक्त हो गया। भक्त का अर्थ हैं, परमात्मा में विलीन हो गया। तो अम्बरीष भी भगवान के भक्त हैं, जो एकादशी व्रत कर रहें हैं। भक्त का मतलब है, जुड़ जाना और विभक्त का मतलब अलग। ऐसा जुड़ जाएं कि भगवान और भक्त में कोई अन्तर न रहे। दोनों एक हो जाएं, जानत तुमही, तुमही होई जाई। जब दोनों मिलकर एक हो जातें हैं, तो साधाक आकाशवत हो जाता हैं। फिर इस आकाश के अंदर जो घटना घट रही है,महापुरुष को पता चलता हैं, भूत भविष्य वर्तमान की। क्योंकि जो भी घटना घट रही है, सब आकाश के अंदर हैं, कोई भी उससे बाहर नही है। चाहें सूर्य समाप्त हो रहा हो नया सूर्य बन रहा हो, चाहे पृथ्वी समाप्त हो रही हो नई पृथ्वी बन रहीं हो। चाहें मंगल ग्रह पर जीवन हो। चाहे जो भी घटनाएं आकाश में घट रही हो सब महापुरुष को पता चल जाता हैं, कयोंकि जो आकाशवत हो गया, वो आकाश ही हों गया है, उसको सबकुछ मालुम रहता है।आकाशवत होने का अर्थ है, ईश्वर की प्राप्ती, सीधा सा मतलब ये है, उसको कहते हैं, अम्बरीष।
अम्बरीष अभी कर रहे हैं व्रत, इसलिए अभी आकाशवत होने की इच्छा है। व्रत कब किया जाता हैं, जब किसी इच्छा की पूर्ती करनी होती हैं। समाज में भी कोई दाढ़ी बढ़ा लेता है, कोई संकल्प लें लेता है, पानी नहीं, पियेंगे खाना नही खायेंगे, जैनी लोग संकल्प लें लेकर तीन तीन महिने पड़े रहते हैं, ये उनका व्रत हैं। इसका अर्थ है कि जब आपको आकाशवत होना है, तो आकाशवत होने की जो भी मांग हैं, जिस उपाय से आप आकाशवत हो जाएं, उसका आचरण करना व्रत हैं।
अर्थात् परमात्म चिन्तन साधना।आकाशवत होने का अर्थ है, संकल्प रहित होना, संकल्प रहित होने के लिए क्या करना हैं? भजन करना, नाम का जप करना हैं, गुरु महाराज का ध्यान करना हैं। संकल्प का मतलब होता हैं, मन में विचार उत्पन्न होते रहना। ये विचार उत्पन्न न हो, तो एक विचार का सहारा लेना पड़ेगा, किसका? नाम का और रूप का। जब नाम जपने लगेंगे, स्वरूप का ध्यान करने लगेंगे, तो दूसरे संकल्प नहीं आयेंगे, इसी संकल्प में अपको अपने मन को लगाना है। इसी को व्रत कहतें हैं। यही अम्बरीष का एकादशी व्रत हैं। यदि आपको आकाशवत होना है, तो नाम का जप करना पड़ेगा, ध्यान करना पड़ेगा, इंद्रिय संयम करना पड़ेगा, दशो इंद्रियों एवं मन का संयम करना पड़ेगा। दस इंद्रियां एवं मन इन ग्यारहों का संयम करना है, इसलिए ये एकादशी व्रत हैं, फिर दुर्वासा आए, आने के बाद अम्बरीष से नाराज हो गए। उन्होने क्या किया कि कृत्या प्रकट कर दिए। एक तरफ़ अम्बरीष व्रत कर रहे हैं, दूसरे तरफ कृत्या प्रकट हो गईं, उनके गुरू हैं, उनको ऐसा नहीं करना चाहिए, गुरु को शिष्य पर दया करनी चाहिए, कृत्या प्रकट हो गई, और अम्बरीष के पिछे पिछे दौड़नी लगीं। तो ये दुर्वासा क्या हैं? दुर्वासा का अर्थ होता हैं, वासनाओं को दूर करना। वासना क्या हैं? वासना का अर्थ होता है, जिसके कारण हम बसतें हैं, जन्म लेते हैं। जो हमारे अंदर इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं, इसी को वासना कहते है। इन वासनाओं को त्याग करने की जो वृत्ति है, वो दुर्वासा हैं। प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी।
प्रकृति से परे परमात्मा जो अत्यन्त दूर हैं, उसे प्राप्त करने के लिए जब कोई चलता हैं, तो उसे वासनाओं का त्याग करना पड़ता हैं, कामनाओं का त्याग करना पड़ता हैं। तो कामनाओं और वासनाओं से दूर होने के लिए जब आप सोचेंगे, उसी का नाम है, दुर्वासा।
इनमे फसे हैं, तो दुर्वासा नहीं हैं, वासनाओं का त्याग करने लगे तो दुर्वासा ऋषि हुए।ऋषि माने जानकारी, वासनाओं का त्याग ऐसे ही नहीं होता है, उसकी जानकारी होनी चाहिए। कौन सी जानकारी? भगवान भीतर से बताएं और आप भगवान के आदेश पर वासनाओं का त्याग करें, भीतर से जानकारी मिले तब दुर्वासा। केवल सुनने मात्र से वासनाओं का त्याग कभी नहीं होता। जव तक वासनाएं पूरी तरह से समझ नहीं आयेंगी, कि इस कामना का परिणाम क्या हैं इससे मिलेगा क्या? तब तक उसका त्याग नहीं हो सकता। इसलिए ऐसी जानकारी मिले, जो वासनाओं का त्याग करने में हमे सहयोग प्रदान कर सकें, वो जानकारी, वो ज्ञान जो हमसे वासनाओं का त्याग कराए, उस ज्ञान को धारण करने वाली जो वृत्ति है, वो दुर्वासा है। तो वासनाओं का त्याग करना दुर्वासा हैं। एक तरफ़ आकाशवत होने की इच्छा, ईश्वर प्राप्त करने की इच्छा, और दूसरी तरफ़ संघर्ष क्या हैं? वासनाओं का त्याग करना हैं, दो बातें हैं। यदि आपको आकाशवत होने की इच्छा हैं, ईश्वर प्राप्त को प्राप्त करना हैं, तो वासनाओं का त्याग करना पड़ेगा। जब तक वासनाओं का त्याग नहीं होगा,आकाशवत होने की जो कल्पना है, कल्पना ही रह जायेगा, क्योंकि पहले ही आकाश की परिभाषा दी गईं,बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥
जिसको वासना कहते हैं, उसी को आशा कहते हैं। जबतक वासनाओं की आशा का त्याग हम नहीं करते
तबतक आकाशवत नहीं हों सकते।
आकाश हमारे अंदर है, लेकिन बादल छाएं हुए हैं, तो वासनाओं का त्याग करो और आकाशवत हो जाओ। तो अम्बरीष और दुर्वासा ये दोनो एक ही मनुष्य के अंतःकरण की दो स्थितियां हैं।वासनाओं के त्याग करने का जो ज्ञान हैं, वो किससे मिला हैं, इसलिए दुर्वासा कौन हैं? गुरु हैं। वासनाओं से दूर होने की शिक्षा किसने दी? जो वासनाओं से मुक्त हो गया हैं। जो दुर्वासा हो गया है। जो वासनाओं से दूर हो गया है। उस महापुरुष से हमे मिला है,वासनाओं से दूर होने का ज्ञान, इसलिए जब बीज रूप से ज्ञान हमारे अंदर आ गया, तो हमारे अंदर दुर्वासा आ गए। वासनाओं से जब हम 10 परसेंट दूर हुए तो हम 10 परसेंट महात्मा हैं, सद्गुरू 100 परसेंट दूर हो गए, इसलिए वो 100 परसेंट महात्मा हैं। लेकिन 10 परसेंट दुर्वासा हैं, हमारे अन्दर,10 परसेंट अम्बरीष हमारे अन्दर हैं। अब इन दोनों को 100 परसेंट हमें करना है। जिस दिन
100 परसेंट वासनाओं का त्याग कर दोगे, कोई इच्छा नहीं रखोगे, उसी दिन 100 परसेंट हो जाओगे। तो अब वासनाओं का त्याग करके हम इस मार्ग पर चल दिए। आकाशवत होने की हमारे मन में ईच्छा आई, ईश्वर प्राप्ति की,तो इसमें होता क्या है जब भजन करता है साधक, तो कृत्या छोड़ दिए दुर्वासा। कृत्या छोड़ने का मतलब होता हैं,
“निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
जयंत ने कहा हैं, मैने जो चोंच मारी है, सीता जी के चरणों में उसका फल मुझे मिल गया, और फल पाकर के अब मैं आपके शरण में फिर आ गया। यही दशा दुर्वासा की भी हुई हैं।
“निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। इसको समझना पड़ेगा आपको,जब सदगुरू के प्रति हम समर्पित होते हैं, और भजन में हम लगते हैं, तो सद्गुरु ने जो तपस्या की, बुद्ध ने महावीर ने, सात साल तक, तो ये किससे लड़ते रहे, किसको काटते रहे, कौन इनका पीछा कर रहा था, साल साल जो मुक्त नहीं हुए, कोई बारह साल तक मुक्त नहीं हुआ। ये जो 200 साल से चल रहे थे,24 साल से चल रहे थे, किसी को 20 साल तक तपस्या करनी पड़ी, ये 20 साल तक किससे लड़ रहे थे,कौन इनका पीछा कर रहा था? इसी को कहते हैं, कृत्या।
निज कृत कर्म जनित फल पायउ।
जो अपने द्वारा किया गया कर्म हैं अनेक जन्मों से, जो भोगों के संस्कार पड़े हुए हैं, आंखों ने देखा हैं, कानो ने सुना हैं, शरीर ने स्पर्श किया हैं, और एक जन्म में नहीं हजारों जन्मों में किया हैं, अनन्त, अनन्त जन्मों में किया हैं, निज कृत कर्म, जनित फल, जव किए गए,कर्म संस्कार कटेगा, तो अपना फल प्रदान करेगा। कहां पर प्रदान करेगा? हमारे चित्त में, क्योंकि अब गृह त्याग करके, तपस्या में लग गए, जैसे बुद्ध, है, महावीर हैं,कबीर हैं, गृह त्याग करके तपस्या में लग गए, अब वापस उधर जा नहीं सकते। लेकिन उधर के विचार तो आयेंगे ही, जब वो विचार आएंगे, तो ये विचार कहां से उत्पन्न हुए? अपने किए गए कर्म से, जो कुछ हमने पहले किया, वो हमारी स्मृति में संस्कार रूप में जमा, रहते हैं। अब जब हम भजन आरंभ किए, एकादशी व्रत आरंभ किए, वासनाओं का त्याग आरंभ किए, तो वे ही वासना जो हमने अनन्त जन्मों में भोगी है, उनका फल भोगा है, वो स्मृति में संस्कार रूप में हैं, जैसे ही भजन आरंभ करते हैं, फिर वासनाओं के चिन्तन आरंभ हो जाते हैं, कामनाएं, इच्छाएं, जिन चीजों को कभी याद नही किया, वो स्मृति में आने लगती हैं। जो बीस साल पहले की चीज जो भूल गए थे, बीस मिनट में दिखाई देने लगती हैं। तो अपने द्वारा किया हुआ कर्म वही कृत्या हैं। जब वासनाओं का त्याग करते हैं, त्याग के साथ ही उसमे से उत्पन्न होता हैं। जिस चीज से आप दूर हटोगे, वहीं चीज आपके चित्त में बार बार आएगी, ये भजन का नियम हैं। जब आप नाम जप में मन को लगाओगे, जिस बात से मन को हटाओगे, वही बार बार आकर खड़ा हो जायेगा। जो आकर खड़ा हो जाता हैं, वही कृत्या हैं, ये वासनाओं के एवं कामनाओ के त्याग से उत्पन्न हुई हैं। जब कामनाओं का त्याग करते हैं,तो कामनाओं के ही चिन्तन आने लगते हैं, क्योंकि कामनाएं समाप्त तो हुई नहीं हैं, जैसे जैसे आप दूर हटाओगे, वैसे वैसे और आयेगा। जितना मन को संसार से दूर हटाओगे, उतना ही मन भागता हैं, तो जो कर्म संस्कार है,और संस्कारों से उत्पन्न जो मन में चिन्तन उठता हैं, उसी को कृत्यां कहते है। ये एक वर्ष तक पीछा किया। जव तक विषयो के रस में से निकलकर एक परमात्मा में, एक ब्रह्म का आनन्द हमको न प्राप्त हो जाय, तब तक कृत्या, अर्थात् निज कृत कर्म, हमारे जो पूर्व के कृत कर्म संस्कार है, हमारा पीछा करता हैं।
साधक तपस्या करता है, वासनाओं का त्याग करता हैं, आकाशवत होने के लिए, तो जिसका वो त्याग कर रहा है, उसी से वो लड़ रहा हैं, वही उसका पीछा कर रहा है। जिन कामनाओं को, त्याग करके,दस इन्द्रियों और मन को हमे जीतना हैं, उन्ही कामनाओं से हमको लड़ना हैं, त्याग करने का अर्थ हैं, उनको हटाओ, और हटाया तभी जाता है, जव कोई पीछा करे। जिन कामनाओं को हमे जीतना है, हटाना हैं, वे ही हमारा पीछा करती हैं। जिन वासनाओं का हमे त्याग करना हैं, वे वासनाएं ही हमारा पीछा करती है, परन्तु भक्त अम्बरीष ने क्या किया? हाथ जोड़कर खड़े रहे, कृत्या ने उनका कुछ नही किया। तो वास्तव में जो साधक आकाशवत होने की इच्छा वाला हैं।, समर्पण के साथ भजन में लगा हुआ हैं, तो ये कर्म संस्कार आयेंगे, कहां आयेंगे? हमारे मन में आयेंगे, पर शरीर से हमे कार्य रूप नही दे पाएंगे।मन में आयेंगे और मन में ही विलीन हो जायेंगे, सब कट जायेंगे। और जो मन वासनाओं का चिंतन करता था,एक दिन भजन करने लग जायेगा, योग चिन्तन में लग जायेगा, और एक समय ऐसा आयेगा, कि योग चिन्तन की भी अवश्यकता समाप्त हो जायेगी। दस इंद्रियां और एक मन पर पूरी तरह अधिकार प्राप्त कर लेगा, शांत मन भी जब बिलिन हो जायेगा,तो एकादशी व्रत पूर्ण हुआ। पूरी तरह से वासनाओं का त्याग हो गया,अम्बरीष और दुर्वासा दोनो मिलकर एक हो गए। ऐसा उदाहरण शास्त्रों में बहुत जगह मिलेगा। जैसे कोई ऋषि या कोई और हैं, दोनों झगड़ रहे हैं, फिर मिलकर एक हो गए, लक्ष्मण, परशुराम में झगड़ा होता है, बाद विवाद होता है, अंत में दोनो मिलकर एक हो जातें हैं। जयंत सीता जी के चरणों में चोंच मारकर भागा, बाद में आकर समर्पित हो गया। तो ये ऐसी प्रक्रिया है, जो एक ही व्यक्ती के अंदर चलती हैं, ये दो नहीं हैं। एक ही साधक समर्पित हो रहा है, भजन कर रहा हैं, और इसी के चित्त में वासनाओं का चिंतन हो रहा हैं। एक ही व्यक्ती नाम भी जप कर रहा हैं, और उसी के मन में काम का भी जप हो रहा हैं। तो जो नाम जप रहा हैं, उसका मन जब नाम जप से हट जाता हैं, तो क्या आता है, उसके अंदर कामनाएं पीछा कर लेती हैं, कोई व्यक्ती पीछा कर रहा है, कोई इच्छा पीछा कर रहा है, भजन में बैठेंगे तो उसी का चेहरा नजर आयेगा, तो वो व्यक्ती कहां से आया, वो इच्छा आया कहां से? वो तुम्ही ने उत्पन्न किया हैं, उसे कुछ मान लिया है, इसलिए ये सब आकर खड़ा हो जा रहा हैं। तो अपने द्वारा ही किया गया कर्म है वो सब, जिससे भजन में बाधा पड़ता हैं, ये सब अपने द्वारा ही उत्पन्न किया गया हैं। नाम जपने के लिए जब भजन में बैठोगे, तो स्त्री है, बच्चे हैं, जिससे ज्यादा लगाव है, आकर खड़ा हो जाएगा, किसने उत्पन्न किया ये कृत्या? आपने ही उत्पन्न किया है, इसी से आपको लड़ना हैं। यदि नाम जपना है, तो चित्त से इसे हटाना पड़ेगा। बाहर भले नहीं लड़ें, लेकिन भीतर तो तलवार चलानी ही पड़ेगी। तभी मन एकाग्र होगा। ये कौन दुख दे रहा हैं? जो हमसे ही उत्पन्न कर्म है, हमारी स्मृति में कर्मों के संस्कार पड़े हुए हैं, जो कुछ आज तक हमने किया हैं, यही हमारा पीछा करेगा, जब तक हम आकाशवत नहीं हो जाते। जब तक अम्बरीष के प्रति दुर्वासा समर्पित नही हो जाते, जबतक दोनों मिलकर एक नही हो जायेंगे, तब तक ये कृत्या पीछा करेगी। दुर्वासा का अर्थ हैं, जबतक साधक पूरी तरह वासनाओं का त्याग नहीं करेगा, तबतक वासनाएं पीछा करेंगी। जब संपूर्ण वासनाओं का त्याग हो गया, वासनाओं का तो जिस आकाश के प्राप्ति के लिए आकाशवत होने के लिए,साधक भजन कर रहा था, वासनाएं समाप्त हुई आकाशवत हो गया। तो विष्णु हो गया, विश्व में अणु रूप से व्याप्त हो गया, ईश्वर का स्वरूप हो गया, यहां जाकर एकादशी पूर्ण हो गया। इसी को कहते हैं, एकादशी परायण, जव संपूर्ण वासनाओं का त्याग ओ गया, साधक आकाशवत स्थिती प्राप्त कर लिया, तब भूत वर्तमान भविष्य का ज्ञाता हो गया, सर्वज्ञ हो गया, इसलिए भक्तों में अम्बरीष का बहुत नाम हैं। आप सभी अम्बरीष हो सभी को एकादशी व्रत करना हैं। सबके अंदर आकाशवत होने की इच्छा छुपी हुई हैं। जिस दिन वो इच्छा स्मृति पर आ जायेगी उसी दिन आप सब भजन करने लग जाओगे, जव भजन करने लग जाओगे, तो एकादशी व्रत आरंभ हो जायेगा। अर्थात् एक दिशा में चलने लगोगे, नाम जप ध्यान, गुरु महाराज का आदेश फिर उसपर चलना, और उपवास करने लगोगे,कामानाओ का त्याग करना उपवास हैं, फलों का त्याग करना उपवास हैं। इंद्रियों के विषयो का त्याग करना उपवास हैं। ये सब त्यागने लगोगे, तो आत्मा के समीप निवास होने लगेगा। इसी को एकादशी व्रत कहते हैं। स्थिती मिलने के पश्चात ये व्रत पूर्ण हो जाता हैं।
।। ॐ श्री परमात्मने नमः।।